Book Title: Anusandhan 2003 01 SrNo 22
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
January-2003
21
॥३२॥
यस गुर ज्यु वाचा सुघर । दिल तव सकृत रंग । समरनाथ सन्मथ तनु । भोगु तु हि उमंग ॥३०॥ कुंभमनुरधि कल्पतरु । सुजवी वार्धत्वेश्म । नक्त दिवस वट ज्यों बढत । या तहि अरीकु वेश्म ॥३१।। सुयससे तसु पुन्यसिखर । अविचल नंदी अखेम । नंदी घन ज्यौं तो गिरा । संपइ रज्जंपि एम दूषनहर भूषन कवी । सुमती जलधि जिहाज । ज्यौं आभ निहनव उपन । चारु वरघन गाजु ॥३३।। विजयसिह वसी गगन । भयो भान यो जीतः ।। विमान कुंजर वर लिला सवें भई सुघन इत्थ ॥३४॥ नृपगुमान सुत पटनीधी । प्रौढ पुन्य स्तुति नज्ज । जई राजनिति हि गुनसु । सगुनं सौं सइ हेज ॥३५॥ समुद्रबंध सोभाकिती । दीपविजय कवि कीध । राजनृपति कवि कामगवि । भूनाथ नाथ स्मृद्ध ॥३६।।
-x
--
विभाग पांचमो
(कोठानी नीचे- लखाण) ज्यौं कृष्णदेवनें समुद्र मथन करके १४ रत्न निकारें हें । ताको निर्णय ॥
. कवित ।। धुर सिलोक महवृत्त, ति सिलोक लघुवृत्त । दोहा तीन गाथा एकसौ सोहायों हें ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78