________________
68
अनुसंधान-२२ (८) मार्गपरिशुद्धिप्रकरणम् : सटीक.
___ कर्ता : उपा. यशोविजयजी. टीकाकार : आ. कुलचन्द्रसूरि. प्राप्तिस्थान : दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोलका. सं. २०५८ (९) दशवैकालिकसूत्रम् - तिलकाचार्यकृतवृत्तिसहितम् ।
संपादक : आ. विजयसोमचन्द्रसूरि-मुनि जिनेशचन्द्रविजयौ. प्रकाशक : रांदेर रोड जैन संघ, सूरत. ई. २००२
श्री तिलकाचार्ये आ वृत्ति वि.सं. १३०४ मां रची छे. ते आ ग्रंथरूपे प्रथमवार ज प्रकट थाय छे. आ ग्रन्थना संपादन-प्रकाशन द्वारा प्राचीन साहित्यना संशोधनक्षेत्रने नवा संशोधक मुनिवरोनी प्राप्ति थाय छे ते आनन्दनो विषय छे.
__संपादन एकंदरे उत्तम थयुं छे. जो के मुद्रणदोषोनुं प्राचुर्य तथा संशोधनात्मक ग्रन्थ माटे नितान्त अनिवार्य एवां परिशिष्टोनी ऊणप खूचे छे. तो टिप्पणो माटे थयेल चिह्नोनो उपयोग, उत्तम-सुघड छापकाम होवा छतां, वाचक माटे नडतररूप बनी रहे छे. अंको-आंकडाओनो उपयोग थयो होत तो वांधो न आवत. दरेक अध्ययनने प्रांते आवतो 'त्ति बेमि' शब्द, गाथानो अंश नथी, छतां आ संपादनमां तेने गाथाना अंशरूपे केम गोठव्यो हशे ? सूत्रनी समाप्ति बाद बे चूलिकाओ छे, तेमां "प्रथमा रतिवाक्या चूलिका" होय त्यां "द्वितीया रतिवाक्या चूलिका" छपायुं छे, ते खरेखर तो दृष्टिदोषजन्य क्षति ज गणाय तेम छे. ग्रन्थ, 'शुद्धिपत्रक' बनावीने मूकायुं होत तो खूब उपयोगी बनत.
तिलकाचार्य-वृत्तिमा केटलीक नवी नवी वातो जाणवायोग्य पण छे. ओनो अभ्यास थाय तो घणुं जाणवा मळे. दा.त. चाणक्यना प्रसंगमां सुबन्धुने 'अभव्य आत्मा' गणाव्यो छे (पृ. १५), तो स्थूलभद्र-श्रीयक-यक्षा आदिनी कथा पण केदलीक सरस नवी-बुद्धिगम्य वातो वर्णवे छे.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org