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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९)
अनुसंधान २२
श्री हेमचन्द्राचार्य
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PRODUATION
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
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कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद
2003
Malayalam
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू( ठाणंगसुत्त,५२९)
'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान
प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक विजयशीलचन्द्रसूरि
Nooooos
श्रीहेमचन्द्राचार्य
कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अहमदाबाद २००३
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आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी
अनुसंधान २२
संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि
संपर्क :
C/o. अतुल एच. कापडिया A- 9, जागृति फ्लेट्स, पालडी
महावीर टावर पाछळ
अमदावाद - ३८०००७
प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि,
अहमदाबाद
प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामंदिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां,
अमदावाद- ३८०००७
(२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अमदावाद - ३८०००१
मूल्य : Rs. 50-00
मुद्रक :
क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल
९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद - ३८००१३ (फोन : ०७९-७४९४३९३)
आवरण- छबि : महेन्द्रभाई र. शाह,
वडोदरा
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निवेदन
'अनुसन्धान' पत्रिका शरु थई, त्यारे सद्गत हरिवल्लभ भायाणीनो आशय ए हतो के प्राकृत भाषाओना क्षेत्रमां थतां कार्योनी माहिती आपवी, अने ज्ञानभंडारोमां संघरायेली सामग्रीने प्रगट करवी. आ आशय प्रमाणे चालवानो आ पत्रिका सतत प्रयास तो करे छे.
सवाल ए थतो रहे के वीतेला एक-दोढ सैकामां, जैन भंडारोमा संघरायेल असंख्य हाथपोथीओ-ग्रन्थोनुं संपादन- प्रकाशन थयुं छे : केटलुंक अद्यतन संपादन पद्धतिपूर्वक, तो मोटा भागनुं प्रणालिकागत रूपे. आमांनुं घणुं बधुं, आजना अभ्यासीओ माटे अज्ञात पण होय अने अलभ्य पण, तो ते बनवाजोग छे. ठेर ठेर जूना पुस्तकभंडारो अगाउ हता, जेमांथी घणानुं अस्तित्व आजे रघुं नथी. अने छतां, हजी घणा भंडारो छे, जेना माध्यमथी जूनां प्रकाशनो विषे जाणकारी मेळवी शकाय तेम छे. मुद्रित ग्रन्थो, तेना प्रकाशक-संपादक, प्रकाशन वर्ष, संपादनमां उपयुक्त हाथपोथीनुं तथा तेना भंडारनुं नाम आ बधुं नक्की जाणी शकाय, तो कया ग्रन्थो असंपादित - अप्रकाशित छे, तथा कया कया भंडारनी कई कई पोथी हजी अस्पृष्ट- अनुपयुक्त छे तेनो निश्चय थई शके.
गंजावर काम छे आ. बहारनो बीजो पथारो संकेलीने एमां खोवाई जवा जेटली निष्ठा अने मनोबळ धरावनार व्यक्ति / व्यक्तिसमूह ज आ काम करी शके. अने आ काम थाय तो ते करनारने आजना तथा आवतीकालना अभ्यासीओना ऊंडा आशीर्वाद जरूर मळी रहे. भूतकाळमां 'जैन ग्रन्थावली', 'जैन ग्रन्थगाईड' जेवां कामो आ दिशामां थयां छे ज, तेनो लाभ घणो लई शकाय : बे रीते : तेना आधारे कार्यपद्धति नक्की करी शकाय; तेमां रहेली क्षतिओनुं नवा कार्यक्रममां निवारण करी शकाय.
सद्भाग्ये, आपणे त्यां को' क को क खूणे आवा कार्य माटेनो सळवळाट चालु थई रह्यो होवानुं जाणवा मळे छे. ए सळवळाट जलदी जलदी नक्कर 'प्रकल्प' नुं स्वरूप धारण करीने कार्यान्वित थाय अने सर्व अभ्यासीओनो तेमां सहज सहयोग सांपडी आवे तेवी अभिलाषा - आ स्थानेंथी व्यक्त करवी उचित लागे छे.
- शी.
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अनुक्रम
१. भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 1
जिनस्तवन २. महो० यशोविजय-लिखित कर्मप्रकृति- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 4
संक्षेप विवरण . ३. समुद्रबन्ध चित्रकाव्य-एक परिचय विजयशीलचन्द्रसूरि 7 ४. समुद्रबन्ध आशीर्वचन । सं. मुनि जिनसेनविजय 12 ५. ३६३ पाखण्डी स्वरूप स्तोत्र-सावचूरि सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय 27 ६. जिनपूजाविधि
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 32 ७. समेतशिखरगिरिरास
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि . 41 ८. स्वाध्याय (ललितविस्तरासत्क) सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 53 ९. ग्रन्थावलोकन : इतिहासना अज्ञात
प्रदेशमां स्वैर विहार : निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक. लेख समुच्चय
मुनि भुवनचन्द्र १०. ट्रंक नोंध
विजयशीलचन्द्रसूरि ११. पत्रचर्चा : 'विबुध'पदविज्ञप्ति- आ. प्रद्युम्नसूरि
परिपत्र विषे... १२. नवां प्रकाशनो (माहिती) १३. नवी माहिती १४. प्रो. डॉ. के.आर.चन्द्रनी चिरविदाय
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भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित जिनस्तवन
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
अनेक श्रेष्ठ ग्रन्थोना प्रणेता श्रीहरिभद्राचार्यनी रचना प्राप्त थाय, ए भक्त साधको माटे ओच्छव समी घटना गणाय. तेमणे तो १४४४ ग्रंथोप्रकरणो रच्यानुं सर्वविदित छे. परंतु ते पैकी बहु थोडीक ज रचनाओ आजे उपलब्ध छे. शास्त्राध्ययनना अने संशोधनना क्षेत्रे काम करता कोई पण विद्वानना मनमां, आवा प्रसिद्ध पुरुषनी अप्रगट-अलभ्य रचना मळी आवे, तेवी भावना होय ज; अने क्यारेक खरेखर तेवी चीज जडी जाय त्यारे ते नाची ज ऊठे.
___अहीं आ आचार्यश्रीनी एक तद्दन नानकडी, फक्त ८ श्लोकमय पण अद्यावधि अज्ञात-अप्रगट रचना आपवामां आवी छे. सातमा पद्यमांनो 'भवविरहं' शब्द, आ रचना हरिभद्रसूरिनी होवानी महोरछाप बनी रहे छे. उपरांत, समसंस्कृत-प्राकृत रचना तथा "भवदवजलवाह (पद्य २)", "मायारेणुसमीरण (३)" वगेरे, “संसारदावानलदाहनीरं"नी तेमनी प्रख्यात स्तुतिरचना साथे साम्य धरावतां रूपक-प्रयोगो- आ बन्ने बाबतो पण आ रचना हरिभद्रसूरिनी ज होवानी वातने समर्थन आपे छे.
'आर्या' छंदमां निबद्ध आ स्तोत्रनी पदावली खूब ललित तथा मधुर छे. उपमा तथा रूपको पण हृदयंगम छे. एमांये छठ्ठा पद्यमांनुं 'स्वसमयकमलसरोवर' -ए रूपक तो भारे चमत्कृति सर्जी जाय छे. 'स्वसमयरूप सरोवरमां कमल' एवं रूपक तो बधां आपी शके, अने ए स्वाभाविक पण लागे. परंतु अहीं कर्ताए 'स्व समयरूपी कमलने खीलवनार सरोवर' रूपे स्तुत्य तत्त्वनी जे कल्पना करी छे, ते लाजवाब छे. बीजी एक नोंधपात्र बाबत ए छे के जिन साधारण स्तवन अष्टकआठ श्लोकात्मक होई, तेनो आठमो श्लोक पण उपरना श्लोकोनी जेम ज स्तुत्य तत्त्वना वर्णनविशेषण रूप ज होवो जोईए, तेने बदले आचार्ये आठमा श्लोकमां पोते ज "संस्कृत-प्राकृत वचनो वडे समानता धरावतुं आ स्तोत्र' होवानुं स्पष्टीकरण आपेल छे.
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अनुसंधान-२२ 'आर्या'ना द्वितीय चरणमां १८ मात्रा होय एवो सामान्य हिसाब छे. पण आ स्तोत्रमा त्रीजा पद्यमां बीजा चरणमां १८ने बदले, चोथा चरणनी जेम, १५ मात्रा ज छे, जे ध्यानपात्र गणाय.
आ रचनानी शोध विद्वान् मुनि श्रीधुरंधरविजयजीए करी छे, ते पण अहीं नोंधq घटे. छाणीना श्रीवीरविजय शास्त्रसंग्रहनी कोई पोथी- एक पार्नु तेमनी नजरे चड्यु, अने तेमां आ स्तोत्र तेमने जडी आवतां संपादन माटे तेमणे मने सोंपेल छे. आ पानांमां भावारिवारण वगेरे स्तोत्रो छे. तेनी पाछली बाजुए आ स्तोत्र छे, अने आ स्तोत्र शरु थाय ते पूर्वेनी पंक्तिमां "दो० पूंजा लिखितं.... संवत् १५११ वर्षे चै० ॥" आवा अक्षरो वांची शकाय छे. ते जोतां आ स्तोत्र १६मा शतकना प्रारंभे उपलब्ध होवार्नु कल्पी शकाय तेम छे. अक्षरमरोड अत्युत्तम अने पाठ एकदम शुद्ध छे, ते पण ध्यानार्ह छे.
अङ्गुलिदलाभिरामं सुरनरनिवहालिकुलसमालीढम् । देव ! तव चरणकमलं नमामि संसारभयहरणम् ।।१।। कामकरिकुम्भदारण ! भवदवजलवाह ! विमलगुणनिलय ! । किंकिल्लिपल्लवारुण - करचरण ! निरुद्धचलकरण ! ॥२॥ मायारेणुसमीरण ! भवभूरुहसिन्धुर ! निरीह ! । मरणजरामयवारण ! मोहमहामल्लबलहरण ! ॥३॥ भावारिहरिणहरिवर ! संसारमहाजलालयतरण्ड ! । कलिलभरतिमिरभासुररविमण्डल ! गुणमणिकरण्ड ! ॥४|| अमर-पुरन्दर-किन्नर-नरवरसन्दोहभसलवरकमल ! । करुणारसकुलमन्दिर ! सिद्धिमहापुरवरनिवास ! ॥५॥ स्वसमयकमलसरोवर ! सुरगिरिवरसारसुन्दरावयव ! । चिन्तामणिफलसङ्गम ! रागोरुगगरुडवरचरण ! ॥६॥ हरहास-हार-हिमकर-हिम-कुन्द-करेणुधवल ! समचित्त ! । अकलङ्क ! सुकुलसम्भव ! भवविरहं देहि मम देव ! |॥७॥
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एवं संस्कृतवचनैः प्राकृतवचनैश्च सर्वथा साम्यम् । विदधानैर्विनुतो मे जिनेश्वरो भवतु सुखहेतुः ||८||
इति सर्व श्रीजिनसाधारणस्तवनं समसंस्कृतं श्रीहरिभद्रसूरिकृतम् ॥
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महोपाध्याययशोविजय-लिखित कर्मप्रकृति-संक्षेप विवरणम्-(अपूर्ण) ॥
. सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
‘कम्मपयडी'ना नामे प्रसिद्ध 'कर्मप्रकृति' ग्रंथ तथा तेना परनी उपाध्याय श्रीयशोविजयजीकृत विस्तृत टीका-खूब जाणीतां छे. परंतु मारा हाथमां आवेल एक पुराणां पानांनी झेरोक्स-तेमांनुं लखाण-जोतां एम लागे छे के उपाध्याय यशोविजयजीए कर्मप्रकृतिनी मूल गाथाओगें संक्षिप्त शब्दार्थात्मक विवरण रचवा, पण आदर्यु होवू जोईए.
आ पार्नु पंचपाठ प्रतनुं प्रथम पार्नु छे. प्रत · कर्मप्रकृतिनी मूळ गाथाओने आलेखे छे. प्रथम पत्रमा ८ गाथा छे, ने नवमी गाथानी शरुआत मात्र छे. प्रतना प्रारंभे "सकलपण्डितशिरोमणि पण्डित श्री ५ श्रीलाभहर्षगणिपरमगुरुभ्यो नमः ॥" आम अक्षरो छे, ते पछी तरत ज गाथाओ छे. पत्रनी चोतरफ यशोविजयजीए स्वहस्ते लखेलुं विवरण छे, जे अत्रे संपादनपूर्वक प्रस्तुत छे.
एम लागे छे के आ प्रत यशोविजयजीनी पोतानी प्रति हशे, अने पोते बाल जीवोना बोध खातर आ संक्षिप्त विवरण रचवानो उपक्रम को हशे. साथे साथे एम पण लागे छे के आ काम तेओ पूरुं नहि करी शक्या होय. कारण के उपलब्ध प्रथम पत्रमा मूळ गाथा ८ छे, ज्यारे विवरण फक्त ७ गाथार्नु ज लखेलुं छे. आठमी गाथा- विवरण समाई शके तेटली जग्या तो पानामां बची ज छे. परंतु लखाण ७मी गाथाना विवरण बाद अटकी जाय छे. ते परथी अनुमान थाय छे के विवरणY काम अहीं ज अधूरुं रह्यं हशे.
झेरोक्सनुं आ पार्नु कया भंडारनुं हशे ते ख्याल पडतो नथी. मने स्मरण छे ते प्रमाणे आवां केटलांक प्रकीर्ण झेरोक्स पानां मुनि श्रीधुरंधरविजयजीए मने केटलांक वर्ष अगाऊ मोकलेला, तेमांनुं आ पार्नु होवू जोईए. ए जे होय ते. पण अहीं तो उपा. यशोविजयजीनी एक नवी ज रचनानी भाळ मळी, अने ते पण तेमना पोताना हस्ताक्षरमां ज, ते घणा
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महत्त्वनी तथा आनंदनी वात छे.
ऐन्द्र श्रेणिनतं नत्वा,वीरं तत्त्वार्थदेशिनम् ।
अर्थं संक्षेपतः कर्मप्रकृतेर्यत्नतो ब्रुवे ॥१॥ सिद्धति । सिद्धं सिद्धार्थसुतं वन्दित्वा निधौतसर्वकर्ममलम् ।
कर्माष्टकस्य करणाष्टकं उदयसत्ते च वक्ष्यामि ॥१॥ । तत्रादौ करणाष्टकमेव प्रतिपादयति- बंधण त्ति । बध्यतेऽपूर्वं गृह्यते. येन तद् बन्धनम् । संक्रम्यतेऽन्यप्रकृतिरूपतयाऽऽपाद्यते येन तत् संक्रमणम् । उद्वत्येते प्रभूतीक्रियेते स्थिति-रसौ यया वीर्यपरिणत्या सा उद्वर्तना । एवमपवय॑ते हृस्वीक्रियेते तौ यया साऽपवर्तना । उदीर्यते उदयप्राप्तमुदयावलिकायां यया सा उदीरणा । उदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापनमुपशमना । उद्वर्तनाऽपवर्तनान्यकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निधत्तिः । सकलकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापनं निकाचना ॥२॥
इत्येतानि करणानि । एषां वीर्यविशेषरूपत्वादादौ वीर्यमेव निरूपयतिविरियं इत्यादि । वीर्यान्तरायस्य देशक्षयेन क्षयोपशमेन छद्मस्थानां सर्वक्षयेण च केवलिनां वीर्यलब्धिर्भवति । ततस्तस्याः सकाशात् सलेश्यजीवमात्रस्याभिसन्धिजं बुद्धिपूर्वकं धावनादिक्रियाहेतुः । इतरदनभिसन्धिजं च भुक्ताहारस्य धातुमलत्वाद्यापादकं करणवीर्यं भवति सलेश्यवीर्यलब्धेर्हेतोः सदातनत्वेन तत्कार्यकरणवीर्यस्यापि तथात्वात् । यत्तु भगवत्यादावशैलेशीप्रतिपन्नानां करणवीर्यस्य भजनीयत्वमुक्तं तदुत्थानादिक्रियाहेतुबाह्यकरणमाश्रित्यैवेति ध्येयम्
॥३॥
परिणाम त्ति । तत्करणवीर्यं योगनामधेयं परिणामालम्बनग्रहणसाधनं तेन हेतुना च परिणामादिसंज्ञया लब्धनामत्रिकं भवति । तथा हि - ग्रहणवीर्येण औदारिकादिवर्गणा गृह्णाति । परिणामवीर्येण औदारिकादिरूपतया परिणमयति । आलम्बनवीर्येण च मन्दशक्तिर्यष्टिमिव भाषादिद्रव्याणि भाषादिनिसर्गार्थमालम्बत इति । तथा कार्यस्याभ्यासो नैकट्यं परस्परं प्रवेशश्च शृङ्खलावयवानामिवैकक्रिया नियतक्रियाशालित्वम् । ताभ्यां विषमीकृताः प्रदेशा येन तत् तथा । येषु
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अनुसंधान-२२
कार्याभ्यासस्तेषु अधिकं वीर्यम्, अन्येषु चात्मप्रदेशेषु अल्पतरमित्यर्थः ॥४॥
अत्रैतानि द्वाराणि-अविभाग त्ति । अविभागप्ररूपणा १, वर्गणाप्ररूपणा २, स्पर्धकप्ररूपणा ३, अन्तरप्ररूपणा ४, स्थानप्ररूपणा ५, अनन्तरोपनिधा ६, योगे-योगविषये परंपरोपनिधा ७, वृद्धिप्ररूपणा ८, समयप्ररूपणा ततो जीवानामल्पबहुत्वप्ररूपणेति ॥५॥
पन्न त्ति । केवलिप्रज्ञाच्छिन्ना अविभागा एकै कस्मिन् प्रदेशे लोकस्यासंख्येयकं -असंख्याता लोकाः तत्प्रदेशसमा जघन्येन भवन्ति, उत्कर्षतोऽप्येतावन्त एव, किन्तु जघन्यतोऽसंख्यातगुणा: ॥६॥
येषां प्रदेशा नो समा अविभागाः सर्वतश्चान्येभ्यः स्तोकतमाः ते घनीकृतलोकासंख्येयभागवृत्त्यसंख्येयगतप्रदेशराशिप्रमाणाः समुदिता एका वर्गणा। परं परतो यथोत्तरं एकाद्यविभागाधिका वाच्या ॥७॥
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कवि दीपविजयजीकृत 'समुद्रबन्ध चित्रकाव्य'-एक परिचय
__विजयशीलचन्द्रसूरि 'माता त्रिशला झूलावे पुत्र पारणे' ए सुप्रसिद्ध रचनाने कारणे जैन संघमां अत्यन्त लोकप्रिय बनी गयेला कविवर पंडित श्रीदीपविजयजी महाराज ओगणीसमा शतकमां थयेला विख्यात जैन साधु-कवि छे. तेओ गुजरातना वडोदराना वतनी हता (जैन. गू.क. ६/१९५). वडोदराना गायकवाड राजाओ तेमने 'कविराज' एवं तथा उदयपुरना राणाले 'कविबहादुर' अq बिरुद आप्युं हतुं.
आ कविराजनी अनेक रचनाओ उपलब्ध छे. केटलीक प्रकाशित पण छे, अने थोडीक हजी अप्रकाशित छे. आ लेखमां तेमनी आवी ज एक . अप्रसिद्ध रचनानो परिचय आपवामां आवे छे.
जोधपुरना राठोड वंशीय राजवी मानसिंह राठोडनी प्रशस्तिरूपे एक चित्रकाव्यनी रचना तेमणे करी छे. आ रचनानी कविराजे स्वहस्ते आलेखेली सचित्र प्रत (ओळियुं : वस्त्रपट : Scroll) वडोदरानी श्री आत्मारामजी जैन लायब्रेरीमां विद्यमान छे, तेमां कविए आ रचनाने 'समुद्रबन्ध आशीर्वचन' एवा नामे ओळखावेल छे. 'गुजराती साहित्य कोश- मध्यकाल (पृ. १७५)'मां आ रचनानो 'समुद्रबन्ध सचित्र आशीर्वाद काव्य प्रबन्ध' एवा नामे निर्देश मळे छे.
आम तो आ एक अखंड ओळियुं ज छे, पण आपणी-भावकोनी सवलत खातर अहीं तेना पांच विभाग पाडी वर्णववामां आवेल छे. ते विभागोनुं वर्णन आ प्रमाणे छे :
प्रथम विभागमां लांबु गद्यपद्यात्मक लखाण छे, तेमां प्रारंभे प्रस्तावनारूपे आठ तखतनां नाम अने तेमां आठमा तखत मरुधर-जोधपुरना नरेश, अनेक विशेषणो तथा उपमाओ धरावता महाराज मानसिंहजीने पुत्रनी, राज्यनी, लाभनी, क्षेम, जय अने धननी प्राप्ति थाय तेम ज तेना शत्रुओर्नु मर्दन तथा प्रतापनी वृद्धि थाय ते अर्थे 'समुद्रबन्ध आशीर्वचन' लखवानो संकल्प आलेखवामां आव्यो छे. ते पछी छप्पय छंदमां बे काव्यो आप्यां छे जेमां समुद्रबन्धनुं माहात्म्य कविए वर्णव्युं छे. कविए कहुं छे के 'समुद्रबन्धरूपे अपाती आशीष ए सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद तथा वधाई गणाय; तेना प्रतापे समुद्रपर्यंत
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अनुसंधान-२२ पृथ्वीनुं एकछत्री राज्य सांपडे.. ते काव्योना अन्ते, समुद्रबन्ध काव्यना १२९६ अक्षर, ते महाबन्धमा अन्तर्गत चौद रत्नोनां नानां बन्धकाव्योनी गुंथणी छे तेना ३५५ अक्षर, एम कुल १६५१ अक्षरो होवानुं कवि निर्देशे छे; जेवा के धनुषबन्ध, चोकीबन्ध, कपाटबन्ध, हळबन्ध, हारबन्ध, मालाबन्ध, निसरणीबन्ध वगेरे बन्ध एटले ते ते पदार्थनी आकृतिमां रचायेल काव्यो-चित्रकाव्यो ए महाबन्धमा समाववामां आव्या होवानुं कवि सूचवे छे.
आगळ वधतां कवि कहे छे के आ नाना नाना बंधो दरेक राजाने आशीषरूपे चढावाय. पण जे 'समुद्रबन्ध' नामे मोटा बन्ध छे तेनो आशीर्वाद तो कां तो चक्रवर्ती राजाने अने कां छत्रपति राजाने ज चढावी शकाय. आ (मानसिंह) राजा छत्रपति राजा होवाथी तेमने आ समुद्रबन्ध-आशीर्वाद आपुं छु. आ पछी कवि अष्टक अर्थात् आठ काव्यो के कवित्त द्वारा मानसिंह राजाने आशीर्वाद आपवानी साथे साथे तेना इष्टदेवोनां नाम-वर्णनपूर्वक तेओ पण तेनी रक्षा करे तेवू वर्णन करे छे. ते क्रमशः जोईए. १. श्री जालन्धरनाथ रक्षा-आशीर्वचन : छप्पय छंदमां कविले जालन्धरनाथ
एटले के शंकर भगवाननुं स्वरूप वर्णव्युं छे अने ते राजानी रक्षा करे, संकट हरे तेवो आशीर्वाद व्यक्त कर्यो छे. आ कवितमां शंकरनुं जालंधरनाथ तरीके थयेल वर्णन तेमज आ रचनाना प्रारंभे कवि लखेल 'श्रीजालन्धरनाथो जयति' एवो प्रारंभ जोतां आ राजवीना इष्टदेव शंकर होवा जोईए अने तेनो संबंध नाथसंप्रदाय साथे होवो जोईए एम अनुमान थाय छे. कवितनी अंतिम पंक्तिमा 'लाडूनाथ' एवं नाम आवे छे, 'ते कां तो शंकरपुत्र गणपतिनुं सूचक होय अने कां तो ते नामे कोई योगीनो संकेत पण होय. बीजो छप्पय पण उपरनी माफक ज जालंधरनाथ-शिवजीनुं वर्णन आपे छे. त्रीजा छप्पय छंदमां 'महामन्दिर श्रीकृष्णदेव-रक्षा' रूप आशीर्वचन छे. आमां मोरमुगटधारी श्रीकृष्णनुं स्वरूप सरस वर्णवायुं छे. जैन कवि शिवजी अने कृष्णनुं आवं सरस वर्णन करे ते वात पण उदार मनोवलण
सहित अनेक दृष्टिए महत्त्वपूर्ण गणाय तेवी लागे छे. ४. . चोथा छप्पयमां 'नवग्रहरक्षा-आशीर्वचन' छे. तेमां नवे ग्रहो राजानुं
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मंगल करो तेवी भावना व्यक्त थई छे. ५. पांचमा छप्पयमां सकलदेव रक्षा-आशीष आपेल छे. तेमां शंभुसुतथी
लईने जगदंबा सुधीना अनेक देव-देवीओनी रक्षा वर्णवाई छे. ६. छठ्ठा छप्पयमां कविराज दीपविजयना सुवचननी रक्षारूपी आशीर्वाद व्यक्त करवामां आव्यो छे.
आमां समुद्रबन्धमाहात्म्यनां बे कवित्त अने रक्षानां छ कवित्त एम मळीने कुल ८ कवित्त थयां छे, अने तेने कविए 'आशीर्वचनअष्टक' तरीके ओळखावेल छे.
त्यारबाद त्रण कवित्त, संभवतः मनहर छंदमां छे ते, द्वारा कविए मानसिंहनी यशकीर्तिनुं वर्णन कर्यु छे. तेनी साथे ज विभाग १ पूरो थाय छे.
विभाग २मां राजाना त्रण सेवकोनां राजस्थानी - जोधपुरी शैलीनां सुन्दर चित्रो छे, अने तेनी नीचे एक नाना चोकठामां मानसिंह राजाना खड्गनुं वर्णन करतुं कवित्त छे. तेनी नीचे, पांचमा विभागमां ज एक खूणामां म्यान युक्त तलवार, मजा- चित्र जोवा मळे छे.
विभाग ३मां पण राजाना त्रण छत्रधर वगेरे सेवकोनां त्रण. अलग अलग चित्रो छे, अने तेनी नीचेना चोकठामां राजाने मेघनी उपमा अर्पतुं कवित्त छे.
विभाग ४मां समुद्रबन्धना चित्रकाव्यमा ३६ पंक्तिओमां डाबेथी जमणे वांचीए तो एक पंक्तिमा एक एम कुल ३६ दोहरा (मोटा कोठामां) वंचाय छे. आ दोहराओ स्वयं एक रचना बनी छे, तेमां राजानी कीर्तिनुं वर्णन कविए कर्यु छे.
. अने पांचमा विभागनुं स्वरूप दर्शावतां कवि पोते ज लखे छे के जेम श्रीकृष्णे समुद्रमन्थन करीने १४ रत्नो काढ्यां ते रीते में पण आ समुद्रबन्ध-चित्रकाव्यना मन्थन थकी १४ नानां बन्धकाव्योरूपी रत्नो नीपजाव्यां छे. ते १४ रत्नो आ प्रमाणे छे : ८ राजनीतिनां रत्न, ४ आशीर्वचनरूपी रत्न, १ बिरुद-उपमा- रत्न, १ कविनी प्रार्थना- रत्न -- ए रीते १४ रत्नो छे. आ बधां रत्नोनी विगते समजूती आपतां कवि कथे छे : १. राजनीति १ : स्त्रीनो विश्वास न करवो; ते विषे-यां चिन्तयामि सततं०
ओ नीतिशतकना श्लोक द्वारा एकसरो हारबंध : रत्न १.
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अनुसंधान-२२ २. राजाए भजन पण करवू घटे, ते सूचवतो रामरक्षा स्तोत्रनो श्लोक-चरितं
रघुनाथस्य० वडे बेसरो हारबन्ध : रत्न २. ३. राजा दुष्टने दंडे, शिष्टने रक्षे, ओ नीति विषे सुभाषित-दधिचन्दनतम्बोलं०
ओ वडे बीजो बेसरो हारबन्ध : रत्न ३. ४. राजाओ व्याकरणादि भणवू जोईए ते अंगे सारस्वत व्याकरणनो प्रथम
श्लोक-प्रणम्य परमात्मानं० ओ वडे वज्रबन्ध : रत्न ४. . राजाए हरिरस चाखवो जोईए ए विषे बिहारी कविनो दोहरो-मेरी भवबाधा हरो० ए वडे धनुषबन्ध : रत्न ५. राजाने गूढ समस्या आवडवी जोइए ते अंगे-दधिसुतके० ए वडे धनुषबन्ध : रत्न ६.. राजाए दयापूर्वक वेदवाणी सांभळवी, ए विषे दोहरो-धाता बांनी चो
मुखी० ए वडे पहाडबन्ध : रत्न ७ ८. राजा द्रोहीथी दूर रहे, दीवान राखे, ए नीति विषे गाथा-नासइ जूएण
धणं० ए वडे पहाडबन्ध : रत्न ८. आम ८ राजनीतिनां ८ रत्न थाय. ९. भूपति मानि मर्दन० ए खंड कलीबन्ध : रत्न ९; १०. अविचल तप तेज० ए खंड कलीबन्ध : रत्न १०; ११. श्रीमानराजगंगा० ए श्रीपुष्करणीबन्ध : रत्न ११; १२. पटप्रधान मानसंग० ए लहेरबन्ध : रत्न १२; १३. मानराज समशेर० ए पुष्करणीबन्ध : रत्न १३; १४. मानराज कुंभ घट० ए छडीबन्ध रत्न १४.
आ १४ बन्ध एक समुद्रबन्ध थकी प्रगट छे, तेमां कविनी अद्भुत रचनानिपुणता व्यक्त थाय छे.
आना पछी कवि मोतीदाम नामना छंदमां ७ गाथाओ द्वारा नृपवर्णन करे छे. ते पछी एक कवित्त छे, ते पण राजाना वर्णन- ज छे. छेक छेल्ले तोटक छंदमां संस्कृत भाषामां अर्घसमस्यारूप काव्य वडे कविराज, दिनकर, दामोदर, त्रिपुरा, सुरपति, सोमेश्वर अने नगराजा आ बधा देवो राजानी रक्षा करो तेवी आशीष आपीने कवि काव्यनी समाप्ति करे छे..
. प्रांते आपेली पुष्पिकामां कवि पोतानो परिचय आ प्रमाणे नोंधे छ : तपागच्छमां विजयानन्दसूरि (आणसूर) गच्छमां, गायकवाड राजाए आपेल
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11 'कविराज' बिरुद धरावनार जती पं. दीपविजय कविराजे राठोड राजा मानसिंहनी कीर्तिना गानस्वरूप समुद्रबन्ध-आशीर्वचन रचेल छे. सं. १८७७ना विजयादशमीदिने कविराज दीपविजये स्वहस्ते लखेल छे.
समग्रपणे आ रचनानुं अवलोकन करतां कवितुं काव्यकौशल्य, चित्रकाव्य जेवा कठिन काव्यप्रकारनी रचना तथा एकमां अनेक चित्रकाव्यो समाववानी निपुणता, व्रजभाषा तथा छंदो परतुं प्रभुत्व तथा चित्रकलाचित्रालेखननी क्षमता - एम अनेक बाबतो विषे प्रकाश पडे छे. एक संभावना खरी के चित्रो कविए कोई निपुण चित्रकार पासे पण दोराव्यां होय. . परंतु कवि स्वयं चित्रकलाकुशल नहि ज होय तेवू जकारपूर्वक कही शकाय तेम तो नथी ज. केमके कविए जाते चित्रांकित करेल वसुंधरा देवी, रंगीन चित्र मळी आव्युं छे (जुओ अनुसन्धान - पत्रिका, क्र.२०, जुलाई २००२).
प्रसंगोपात्त एक मुद्दो कहेवो ठीक लागे छे. जैन मुनि थईने कवि ' राजानां, शास्त्रोनां तथा ते अनुषंगे तेना देवादिकनां गुणगान गायं एमां औचित्य खरुं ? कदाच आ सवाल खुद कविना चित्तमां पण उग्यो होवो जोईए. तेनो संकेत कविए रचेल एक ऐतिहासिक रचना 'सोहमकुलपट्टावली'नी प्रशस्तिमां स्वयं कविए ज आ शब्दोमां आप्यो छे :
"कवेसर बिरद धरावी जगमें, बहु नृप सस्त्र वखांण्या भुज बल फोज संग्राम वखांण्या, आतमदोष न जाण्या रे"
__ (जैन गू.क. ६/१८८) आ वातने बाजुओ राखीने विचारीओ तो, कवि, कविकर्म मध्यकाळना उत्तम कविओनी हरोळमां कविने निःशंक स्थान अपावे तेवं छे, तेमां बेमत नहि. कविवरना स्वहस्ते आलेखायेल आ वस्त्रपट-चित्रकाव्यनी छबी आ अंकमां अन्यत्र आपवामां आवी छे.
आ काव्यनी रचना व्रजभाषामां होवाथी ते विषेनी अज्ञताने कारणे अर्थबोध थवो कठिन पडतो होई पदच्छेद, शुद्धता वगेरे अंगे कांई ने कांई गरबड रही जवानु स्वाभाविक छे. जाणकारो ते विषे नोंध मोकलशे तो हवे पछीना अंकमां प्रकाशित करवानुं गमशे.
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तागुनी। न
वांसाचो ताएक
समु मुदिर जा ति बा का
[चिताज्या घुघू भान निर खाखीन्हो यत्यं हतनी
द
नि जना पाच्य राजासानि
का सबल
या में लीन १०
पुलाजा
सामीर
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से जातिबातेजा
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REAS
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समुद्रबन्ध आशीर्वचन
सं. मुनि जिनसेनविजय विभाग प्रथम. (चित्रनी उपरना भागनुं लखाण)
श्रीजालंधरनाथोर्जयति । ॐ नमः सिद्धम् ॥ श्री वरदाई नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ।। श्रीमानधाता ११। सेतबंध रामेसर ।२। धीरासर पत्तन ।३। कनोज ।४। पाली ।५। खेड ।६। मंडोवर ।७। जोधपुररत्नघढ ।८। अष्टमतखत श्री मरुधर महापुन्यदेसे । अगंजगंजन रिपुराजानमानमर्दक मार्तंडावतार पुन्यपात्र वाचाअविचल, गुनगंगाजलनिर्मल संग्रामांगनधीर दानैकसौंडीर परदुःखभंजनविक्रम, दानोपमा-करणनृपसम प्रजाजनआधार न्याई श्रीरामचंद्रावतार समद्धिपुन्यप्राग्भार सर्व धर्मार्थकुशल नरोत्कृष्ट नरसिंह सर्वविद्याप्रणित(वीण) सर्वभूपतिसिरोमणि सर्वाभवद्भपतिमौलिहीर श्रीविक्रमसदृशबलवीर औदार्या सौंदर्य धीर्य गांभीर्य सर्वगुणालंकृत सर्वशास्त्रार्थपारकोविद सर्वसंस्कृतभाषाग्रंथनिपुन सर्वकलाप्रणित(वीण) धर्माधिष्ट श्रीहिंदूपति-पादसाह निकंटकराजधारक मलेच्छदुर्जयवारक राजभारधुरंधर लक्ष्मीभंडारअभरभर, अनेकनृपसेवित चरन, दुखदीनअसरनसरन, श्रीसूर्यवंशउद्योतकारक, श्रीराठोडकुलसोभाकारक, श्रीगुमाननृपकुलगगनभास्कर, निजमातृकुक्षिरतनागर, गौब्राह्मणप्रतिपाल, पुन्यविशालभाल, अखंडयसकीर्तिप्रनाल, अरिकालकरवाल, प्रचंड भुजाल, इत्यादि अनेक सुभ कोटि उपमा बिराजमान : पुनः श्रीराजाहरचंद सत्यवादी, जयचंदवत् दलपांगुल, श्रीसीहाजीवत् भाग्यवान, श्रीजोधाजीवत् प्रतापवान, श्रीवजमालसदृश एकच्छत्र वा(धा)रक श्रीहिंदन-भान, श्री १०८ श्री श्री श्री महाराजाधिराज महाराज श्रीमानसिंहजी ताकुं पुत्रार्थे, राज्यार्थे, लाभार्थे, क्षेमार्थे, जयार्थे, धनार्थे, शत्रुमर्दनार्थे, प्रतापवर्धनार्थे, श्री श्री समुद्रबंध-आसिर्वचन लिख्यते ।।
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छप्पय :
तत्रादौ श्रीसमुद्रबंधको महात्म ॥
समुद्र्बंध आसीस, सबपें श्रेष्ठबधाई । समुद्रमोदिनी अंतसु, एकछत्र अधिकाई । होत निकंटक राज, सबनृप सेवेंत बंका । बंकारिपुर्मेदमत्त, पुनि होत सत्रुपें संका । मेर रवी ससी समुद्रलग, अविचल रौजे नित नित बहो । मानराज कर्विदीप दोडं, कोटि कोटि मंगल लहौ 11211
पुनः महात्म || छप्पय :
समुद्रबंध फल उदय, गजलीला बहो आवे. समुद्रबंध फलैउदय, सुदिन दिन दोलत थावे । समुद्रबंध फलउदय, सपुत्र कलत्र सवाई,
समुद्रबंध फर्लेउदय, सुमंगल गीत वधाई ।
समुद्रबंध महौतम अतुल, राजलील लाभे घणी, मांनसींह महीपौल कीसुं, कविराज दीप कीरति भनी ॥२॥ यो समुद्रबंध के सर्वाक्षर | १२९६ । अरु १४ रत्न दूसरी बेर बंचीजे ताके | ३५५ | अक्षर हैं । यों सर्व मिलके । १६५१ | अक्षर हैं ॥ धनुषबंध | चोकी बंध । कपाटबंध । हलबंध । हारबंध । मालाबंध | निसरणीबंध । प्रमुख छोटे छोटे चित्रकाव्य हे ।
सो सब राजाकुं चढे । अरु यो समुद्रबंध बडो चित्रकाव्य आसिरबचन । चक्कवें राजाकुं चढें, अरु छत्रपति राजाकुं चढे या नीति है । ता थें छत्रपति श्रीमान महिपालकुं यो आसिर्वचन समुद्रनामा
सदा जयकारी भव भव ॥ श्रेयः ॥
१. चक्रवर्ती ।
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अनुसंधान-२२
श्रीमान महिपालकुं श्रीजालंधरनाथ रछ्या आसिर्वचन ॥ छप्पय ॥ तीन नयन छवि गयत(न), सयन जितमयन विकटसर, जटाजूट अवधूत, भेख आलेख डिगांबर । . सिंघल दोउ गेल, भाल अध चंद सुहंकर, भस्म अंग सिर गंग, उमयपति इश्वर अमर । जलंधरनाथ जगनाथ जगपति देवनाथ संकट हरें, लाडूनाथ कविराज दीपत, मानराज मंगल करें ॥३॥ पुनः छप्पय । जग संतां प्रतिपाल, भाल अधचंद बिराजत, गिरतनया अरधंग, गंग सिर ऊपर छाजत । जटा मुगटभरभार, वाहन बेल दिवाजत, बाघंबर तरसूल, डमरु धुनि घन गाजत । जालंधरनाथ विभूनाथ जटधर देवनाथ सेवत चरन । दीपविजय कविराज राजत मानराज मंगल करन ॥४॥ अथ महामंदिर श्रीकृष्णदेव स्तुति रछ्या आसिरवचन । छप्पय : गोवरधनधर अधर, अमरनरसेवत सेवत पदकज, गोपनंद घनबरन, भरन जगचरन सरन भज । मोर मुगट छबि लसत नसत सब दुरित विहंडन, जयजयजय जगतिलक, तिलक पुनि जदुकुलमंडन । वसुदेव नंदन कवि दीप राजत जगत सब संकटहरन, मानसिंह महिपालज्युं पें सकल कुसल मंगल करन ॥५॥
२. रक्षा ।
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अथ नवग्रह रछ्या आसिरवचन ॥ छप्पय : तेज रखी जिम प्रबल, सोम ज्युं सीतल बानी, मानुं मंगलरूप, बुध सदा गुनखानी । सुरगुरुज्युं मतिवंत, सुक्र सुकाव्य अलंकित, सनिक अरिगन मंद राहु ज्युं प्रबल अरिहत । रिपुकुल केत खंडन प्रघल, दीपविजय आसीस बरन, मांन महिपाल पुनितु कुसल, नवे ग्रह मंगल करन ॥६।। अथ सकलदेव रछ्या आसिरवचन] ॥ छप्पय : संभुसुतन घनसांम, राम काम पुनि हलधर, सागर गिरवर अमर, चंद सूर लच्छि सुखकर । कामधेन घट कुंभ, कल्पतरु ब्रह्म अमरपत, सिद्धि बुद्धि जगदंब, सुअंबरयन सब संपत । कविराज दीप अरु जगत कविजन, सुबेंन मंगल उच्चरें, महिपाल मान अविचल फतेसु, सकलदेव रछ्या करें ॥७॥ अथ कविराज दीपविजयको सुबचन रछ्या आसिर्वच ॥ छप्पय : तपो नाथ तव राज सुगिरवर रवि ससिष्भाई, तपो नाथ तव राज सुसागर सीमा ताई । तपो नाथ तव राज सेषनाग-फनिमाला, तपो नाथ तव राज सु नितनित मंगलमाला । दारिद दोहग व्याधि संकट वलय होय सागर खपो, कविराज दीप आसिस नितनित मानराज अविचल तपो ॥८॥
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अनुसंधान-२२ इति श्री दीपविजय कविराजेन विरचिताया आसिर्वच अष्टक || श्रीमान नरेन्द्र की उजल यस कीर्ति बरनन ॥ कवित धर्ना छरी ।। मालतीको पूंज मचकुंद को समुंह किधौ, चंद के किरन गंगानीरको उजास हैं । स्फाटक को हार किधौ, मुगताकी माल जेंसी, कामगोखीर खीर दधिको प्रभास हैं । सारद को हंस किधौ, इंद गजराज जेंसी, पंकजको उंघ देव धामको विकास हैं । दीप कविराज आज मांनमहिपाल तेरी, कीरति उजास च्यारों खुंट में प्रकास हें ॥९॥ पुन:तेज तपधारी सो विहारी सुख सिंधन को, हिंदन को ईस बगसीस बड दानी हैं । गुनको प्रकासी सुविलासी जस कीरतको, पुन्यको उजासी वेंन माधुरी सुहानी हैं । राजनको राज सिरताज सब भपनको. दीपकवि मानराज कीरती तबांनी हें । बाघअज ए कठोर धरामें पिलायो नीर, दूजो वजमाल बेंर दूसरी कहानी हें ॥१०॥ अथ प्रताप बरनन । कवित ॥ ३१॥ गेंन बिच सूर जेसें, गंगजलपूर जेसें. धराधर मेर जेसें, जेसें मृगराज हें । उडुगन चंद जेसें, सुरगन इंद जेसें,
पिंगल के छंद जेसे, जेसें घन गाज हें । १. धनाश्री ।
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खीर गोखीर जेसें, विक्रम बलवीर जेसें, पार्थि रनवीर जेसें, ऐर गजराज हैं । युं सब राज राजबीच, नरन के प्रताप ज्यौं, दीप कविराज आज मांनराज महाराज हें ॥११॥
-x - अब समुद्रबंध के ३६ दोहरें लिखे हैं ।
पित समुद्रबंध वांचणेकी रीत या हें के आगों से आडी ओल ३६ वांचणी तामें महाराजको किर्तिबरनन बंचीजे ।।
पिछ्य १४ रत्न बंचीजे सो निचे लिख्या प्रमाणे ॥
विभाग बीजो (जमणी तरफनां चित्रोनी नीचेना चोकठानुं लखाण) अथ श्री मांनमहीपालकी खाग को बरनन ॥
कवित ॥ पावक प्रलयकाल व्याल जीह ज्वाल कीधौ, बालधी बिसाल लंक जालकी सी जानी हें । दारुन सुमन धनु दहन नयन कीधौ, रक्त बीज ग्रसनी की लसनी लसानी हें । जमकी सी दाढ परसैन पें असाडबीज, पातनसी कीधौ वज्रघात सी वखानी हें । गुमान के सपूत महाराज मान तेरी खाग कीधौ, अरी जालनकुं कालकी निसानी हैं ॥१॥
इति खाग वरनन ॥ भद्रं भूयात् ।। ___ - x
१. खडग ।
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अनुसंधान-२२ विभाग त्रीजो (डाबी तरफनां चित्रो नीचेना चोकठा- लखाण) श्रीमान महीपालकुं मेघउपमा
छप्पय ॥ घन गर्जत आकास तुं धन गर्जत खत पर, जलधार तोय अमोघह बॅन झर । घन विकासत धरत तुं जन हृदय विकासन, घन वल्लभ हे मोर, तुं वल्लभ कवि सासन ।
ओ जलपत तुं दलपत नृपत महीपाल मांन अविचल रहें, मेघ जिस्यों बरसत सदा सु दीपविजय कवि यों कहे ॥१॥
॥१॥
विभाग चोथो (समुद्रबंधना मोटा कोठाना ३६ दोहरा) श्रीवरदा कवि मात तुं । महमाई जग आद । तुं चतुरा कवि वच सुधा सुरनर वंदत पाद सोभा भासी जनपती । रमा सहित हरि धीर । दुरित हरत विभुता गुनी । नमें सबें जस वीर ॥२॥ गवरि तनुज कीजे दया । सब भय चंता वार । नत पय पंकज सबो । सयो तुं एक मन बार ॥३॥ वर्नु मानसिंह किति । समुद्रबंध दधि नाम । यां रह रवि ससि मेर समु । मुदिर जातिबा काम ॥४॥ अरिजन मान सुदेख तब । क्योंन डरत चल चित । ज्यों, घु घू भानु निरख रवी न्होय त्युं हत नित ॥५॥
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॥१०॥
रिपु गयू जनमद सबल तं । पाय नमावत गात । मनुनांम मृगपत्त ज्यों । देख्यो एह विख्यात ॥६॥ गुनिजन पथि राजत । निंबोतरु सुच प्राग समान । याथें किय ओपम लिखे । देखो ज़ना सुजान ॥७॥ भारभूत अरिगज दलंत । तेग मान भरमार । मिट्यो मित कास्यप उदें । अपय सरूपां धार ॥८॥ तो सुचि निर्मल गंगकुल । कुलइवतो पितमात । रजनीनास भानु समो । कुल विकास बल नीत ॥९।। तूह लील सुगाज चयन, सुचविदजनं प्रवीन । पयीमे नत वसेत गुन, रटे रंग में लीन सत वच कुली करन गुनं, सुचधी वाच सोहाय । नम्य यरी मतंग तिको, नाम सुने पुल जाय ॥११॥ कलि रघुनास बिरद । वाग्मी जसु बल न्याय । भाण रहो नभ जिम सदा, । टीको सब नरराय ॥१२।। तो विक्रम सम क्रम मन । दृढ सत वाचा धीर । प्रभरति निति वरइमा । रिप-घनाप-समीर ॥१३।। मति अभेराज सुचत मनु । बुद्धि कलि तुम वृद्ध । गुरौ द्युति सत वाचसा । यस विषेस प्रसिद्ध ॥१४॥ सूभूषन भूषितं लसा । मनुइंद निजरिद्ध । धीर धर तपतेज बुधासु । विभु विस्तर समृद्ध ॥१५॥ भजंत तव चट ओय अरिज्युं । जावे किरने मित । हरी रिपव तुं भूपहरी । रहे कुरंगां भीत ॥१६॥ इमासु जगतां (जगतां) विदित विराजत तव नव निद्ध । गय रह भट पत्तन वरो भुक्ता सब ए रिद्ध
||१७||
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॥१८॥
।।२२।।
अनुसंधान-२२ दक्षु बोधिय काज चटुलसु तेगसें नबि मयेत । धरम निति अरिगट्टयौं राज साज संकेत तुं अखंड न्याईय चलसु । पर तमोघहर साव । भजो स्यांमनामा तुम सुधामप्यति वेक नाव (?) ॥१९॥ परमड विद सुनाथ तसु । गुरुनीम कीधा रक्त । तिमिरेध शठ निर्गुना । धन्य धीतमति भक्त (?) ॥२०|| भटथटातिवुचित जना । नत जसु सोभा भास्व । बिंब तपन जिम गगनमि, समक्ष नीको भास्व ॥२१॥ ससि प्रभा भालेधिका तिव्र तरनि तव तेज । तिव्र तेज हिमोजभर इच्छत सुरंगयह हेज सुगुन धाम इसु निति सुत नमुं । केवल अमृत बेंन । ज्यांहितो सोमा सिअल. पुनौ दारसुं सेन ॥२३॥ कविगुनको हर्षे तुल्य तूंग कवी विसराम । ऋजु भाव कील यस जलद, सांप्रत गुनी आराम ॥२४।। मम इच्छित माधव मनु तु, रामाचल स्तवराज । कुजन याति नंदोपमा, इच्छित तव साधाज ॥२५॥ सकलमाज सुतर मर्द । दुरित नासो विघनीत । भागूर्वेतव सब बिहासु ! वांछित हो नवण(णी)त ॥२६।। तो दान वरकिर्ति संचु । धनंद पती द्युति भाय ।। तुं प्रजन जन सुपालनो । रिपु नित सेव्वे पाय ॥२७।। तों राज सुनि दुर्जन गलत । गुन चटुल नासके संग । वो आभा तिक्ष्ण मती । यों नही तेग उमंग ॥२८|| जग जसु राज सोहा धरसु । तो गुन गाते धीतः ।। यांति पुअनिति कर्म मतिसु । सच गुन भाती नीत ।।२९।।
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॥३२॥
यस गुर ज्यु वाचा सुघर । दिल तव सकृत रंग । समरनाथ सन्मथ तनु । भोगु तु हि उमंग ॥३०॥ कुंभमनुरधि कल्पतरु । सुजवी वार्धत्वेश्म । नक्त दिवस वट ज्यों बढत । या तहि अरीकु वेश्म ॥३१।। सुयससे तसु पुन्यसिखर । अविचल नंदी अखेम । नंदी घन ज्यौं तो गिरा । संपइ रज्जंपि एम दूषनहर भूषन कवी । सुमती जलधि जिहाज । ज्यौं आभ निहनव उपन । चारु वरघन गाजु ॥३३।। विजयसिह वसी गगन । भयो भान यो जीतः ।। विमान कुंजर वर लिला सवें भई सुघन इत्थ ॥३४॥ नृपगुमान सुत पटनीधी । प्रौढ पुन्य स्तुति नज्ज । जई राजनिति हि गुनसु । सगुनं सौं सइ हेज ॥३५॥ समुद्रबंध सोभाकिती । दीपविजय कवि कीध । राजनृपति कवि कामगवि । भूनाथ नाथ स्मृद्ध ॥३६।।
-x
--
विभाग पांचमो
(कोठानी नीचे- लखाण) ज्यौं कृष्णदेवनें समुद्र मथन करके १४ रत्न निकारें हें । ताको निर्णय ॥
. कवित ।। धुर सिलोक महवृत्त, ति सिलोक लघुवृत्त । दोहा तीन गाथा एकसौ सोहायों हें ।
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एक अरीजीत मांन, आसिरवाद हो प्रमान, दोय बिरद उपमासुं प्रार्थनासौ गायो हें । यों भए सु चउदरत्न परखिई करी प्रयत्न, दधिको सुमंथ करी भांतसें बनायो हें । बुद्धि कीस गत्ति केलि उगत्ति जुगत्ति गेलि याहि थें समुद्रबंध दीपनें कहायों हें ॥१॥
अब १४ रत्न रितस्युं लिख देखावे हैं ।
या समुद्रबंध मांहे से ८ राजनिती आठ रत्न ।
४ आसिरवचन च्यार रत्न । १ बिरद ओपमा एक रत्न ।
१ कवि प्रार्थना एक रत्न । एवं १४ रत्न स्पष्ट लिखके समझावें हें ।
अनुसंधान-२२
सब जगत अरु विसेषें राजा होके स्त्रीको विश्वास साच मानवो नहीं । या नीति हैं | ताकुं भर्तृहरसतक प्रथम श्लोक हितचितंन ॥
यां चितयामि सततं मयि सा विरक्ता० ॥ इति प्रथम रत्न || एकोसरहार बंध ॥ १ ॥
राजा होकें राज तो करेई । पिण कुछक भगवत- भजन किया चाहीइं ॥ या राजनीती ॥ ताकुं राम - रछ्याको प्रथम श्लोक-हितशिक्षा ॥ चरितं रघुनाथस्य० ॥ इति द्वितीयरत्न || २|| दुसरहारबंध ||२||
राजा होकें दुष्टकुं सिक्षा करें । रहियेत प्रजाको प्रतिपालन करें । या नीती हें । ताकुं प्रस्थावक स्लोक हितसिक्षा ॥ दधी चंदन तंबोलं० ॥ इति तृतिय रत्न || ३ || ए दुसर हारबंध ||३||
राजा होके कछुक व्याकरण शब्द पढा चाहीई ॥ ताकुं सारस्वत व्याकरण को प्रथम श्लोक हितसिक्षा || प्रणम्य परमात्मानं ० ॥ इति चतुर्थ रत्न
||४|| वज्रबन्ध ||४||
राजा होंके कछुक हरीरस चातरी पढी चाहीई ॥ ताकुं बिहारीको दोहरो सिक्षा || मेरी भवबाधा हरो० ॥ इति पंचमरत्र || ५ || ए धनुषबंध |५| १. रैयत
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राजा होंके कछुक गूढार्थ पढ्या चाहीइं, या राजनीती हैं | ता गुढ दोहरो हितचिंतन ।। दधीसुत के नीचे बसें० ।। इति षष्टम रत्न ॥६॥ ए धनुष बंध ॥६॥
राजा होंके दया सहित बेद बांनी सुनों ॥ ताकुं दोहरो हितसिक्षा । धाता बांनी चोमुखी० ॥ इति सप्तम रत्न ||७|| ए पहाड बंध ||७||
राजा होंके दिवान परधान राखें सो राजसुभचिंतक रखें । अरु राजद्रोहिकुं दूर रखें-करें, या राजनीती हें ॥ ताकुं सिद्धांत की गाथा हितचिंतन || नासइ जुएण धणं० ।। इति अष्टम रत्न ॥८॥ ए पहाड बंध । ए ८ राजनीती
||८|
भूपति मानि मर्दन० ॥नवरत्न |हा। ए खंडो कलीबंध ।।९।। अविचल तपतेज० ॥ इति दसम रत्न ॥१०॥ ए खंडो कलिबंध ।।१०।।
श्री मांनराज गंगाकुल चिरजय ।। इति एकादसम रत्न ॥११॥ श्रीपुष्करणी बंध ॥११॥
पट प्रधान मानसंग सुदिगविजयोस्तु० ॥ इति द्वादशम रत्न ॥१२॥ ए हेर बंध ॥१२॥
मानराज सम सेरबहादर० ॥ इति त्रयोदशम रत्न ॥१३॥ ए पुष्करणी बंध ॥१३॥
— मानराज कुंभ घट मम मनोवांछितदायको भव० || ए छडीबंध इति चतुर्दशम रत्न ॥१४॥
या एक समुद्रबंध माहे से १४ बंध निकस्ये ॥ १४ फूलकी सेरको १ चोसर हारबंध ॥१॥ १६।१६। फूलकी एक सेरके दो दूसेर हारबंध ॥३॥ . १॥ वज्र मुरज बंध ॥४॥ दो धनुष बंध ॥६॥ दो पहाड बंध ||८|| दो खंडो कलिबंध ॥१०॥ दो पुष्करणी बंध ॥१२॥ एक लेहेर बंध ॥१३॥
एक छडीबंध ॥१४॥ इसे १४ रत्न समुद्रबंध मांहेसे वंचीजे हे सो समझके वांचणो ॥
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अथ मोतीदांम छंद ॥
तपें जग सूरज तेज प्रमांन, नमे जस आन बडें महिरान ! बडी जस कीरत उज्जल लाज, कहावत सांच गरीब निवाज || १||
भयो जगपालन तुं नरनाह, जयो अनपूरन पूर अगाह । झरें मदपूर बडे गजराज, गजें मनु साम घटा घन गाज ||२|| घटाघट अश्वतणी खुर ताल, झगामग बीज जिसी करवाल । अरी सब भाज गए दह वट्ट, भयो जय मंगलके घघट्ट ||३||
सदानित जीत घुरंत निसांन, हुओ बखते सगुनी गुनजान । कवीजन आस तणो तरुराज, रवी ससि मेर समो वड साज ||४|| कहावत हिंदनको सुलतान, दधी (दली? ) लग अन अखंड प्रमान । अनोपम राजकुली वडनूर, बहो चीरजीव तपो जगसूर ॥५॥
अनुसंधान- २२
रखें सुर छप्पन कोटि सदाय, करें सुर तेतिस कोडि सहाय । गुमानतणां सुत मांन नरेस, तपो तव राज सदा सुविसेस ||६||
धरा प्रतिपालन नेक कहाय, हुओ बजमाल सवाय सवाय । सदा दीप विजै कविनाम, कह्यौ इह छंद सुमोत्तिय दाम ||७||
अथ कवित ||३१ ॥
छत्रि सब वंसमें राठोड बंस सूरवीर, गुमानकुल सिंधु मुगता अदभूतीको
प्रबल प्रचंड जस तेरो देस देसनमें,
रूप कामदेव सो भूषन कनक मोतीको । सूरवीर दान मांन दीपे जस खाग ताग,
तो में सुभ लच्छन हें सुंदर सपूतीको,
दीप कविराज आज मान महीपाल दीपें,
तेरे भुज डंडन पर मंडन रजपूतीको ॥२०॥
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अथ तोटक छंदे द्वादस अक्षर-सोल मात्रा सहित संस्कृत भाषायां ॥
नकमोदपुरारपमेसगिरा, दिरदाईत्रईसुतसोरनजा । चतुराक्षर संधिरधोर्धगता, तवशत्रुगणा ( णं) न्नृप हंतु सदा ||२१|| दीर्घायु भव ३ || ( भव भव भव ) ॥
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त्रपुराई सुरपत च तु सोमेसर नागराजा त व
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इति श्रीमत्तपागण । श्रीविजयानंदसूरीगच्छे ।
राज श्री गायकवाड दत्त - कविराज बिरद । जत्ती पं. दीपविजय कविराजेन विरचिताया । श्री राठोड कुल गगन भान । महाराजाधिराज । महाराज | श्री मानसिंह महीपाल किर्तित गुन समुद्रबंध आसिरवचन श्रेयः ॥ तोटकछंद देवरछ्या न क मोद पु रा र प मे श गि रा दिनकर दामोदर ईसु त सो र न जा
दिर
दा र त्र
रा क्ष र
संधि र धोर्ध
ग ता
शत्रु ग
स
संवत १८७७ वर्षे । शाके १७४२ प्रवर्तमाने ।
श्री आसोज सुदि विजयादशम्यां । लिखितं । स्वहस्ते ।
पं. दीपविजय कविराजे ॥
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णा नृ
-
विभाग छठ्ठो समुद्रबन्ध- कोठा- अन्तर्गत
चतुर्दश बन्ध
यां चिंतयामि सततं महा ( यि ) सा विरक्ता,
पहं तु
साप्यन्यमिच्छसि (ति) जनं स जनोअ ( S) न्य) सक्त: । अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या,
धिग् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥१॥
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दा
एकसरो हारबन्ध ||१||
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चरितं रघुनाथस्य शतकोटीप्रस्तरं । एकैकमक्षरं पुंसां महापातिकनाशनं ||२||
दधि चन्दन तम्बोलं कुच कर्पास भेषजं । इक्षुखण्डे तिले मूर्खे मर्दनं गुणवर्द्धनं ॥३॥
प्रणम्य परमात्मानं बालधीवृद्धिसिद्धये । सारस्वतिमृजुं कुर्वे प्रक्रियां नातिविस्तराम् ||४||
दधीसुत के निचे बसें मोतीसुत्तके बीच | सो मागत व्रजनाथ का दिओ सांम दृग्मी
मेरी भव बाधा हरो, राधानागर सोय । या तनकी ज्यांहिं परे स्यांम हरित द्युति होय ॥५॥
धाता बानी चोमुखी दीए वेद समजाय । देखो एह बानी विना सब पानीमें जाय ||७||
दूसर हारबन्ध ॥२॥
अनुसंधान-२२
दूसर हारबन्ध ||३||
वज्रमुरजबन्ध ||४||
||६||
धनुषबन्ध ॥५॥
धनुषबन्ध ||६||
नासइ जूएण घणं नासइ रज्जं कुमंतमंतीहि । अइरूवेन (णं) महिला न (ना) संति गुणेन सव्वेण ॥८॥
पहाडबन्ध ॥७॥
भूपति मानि मर्दन० || खंडौ कलिबन्ध || अविचल तप तेजे० ॥ खंडौ कलिबन्ध || मानराज गंगाकुल चिरजय० ॥ पुष्करणी बन्ध || पटप्रधान मानसंग सुदिगविजयोस्तु० || लहेरबन्ध || मानराज समसेर बाहादुर० || पुष्करणी बन्ध ॥ मानराज कुंभ घट मम मनोवांच्छित दायको भव० ॥ छडीबन्ध |
पहाडबन्ध ॥८॥
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अज्ञातकर्तृक- अवचूरिसहितं
क्रियावादि-आदि ३६३ पाखण्डी स्वरूप स्तोत्र
.सं. मुनि कल्याणकीर्तिविजय
अनुसंधानना २१मा अंकमां "क्रियावादी - आदि ३६३ पाखण्डीस्वरूप स्तोत्र" प्रकाशित थयेल । ते ज स्तोत्रनुं अवचूरि सहित एक पत्र मळी आव्युं छे । अवचूरि साथेना ते स्तोत्रने अत्रे पुनः प्रकाशित करवामां आवे छे । अवचूरिना कर्ता अवचूरिमां नियुक्तिकारनो उल्लेख करे छे तेथी अनुमान थाय छे के आ स्तोत्रनी रचना निर्युक्तिना आधारे थई छे । जो के आ स्तोत्रनी त्रीजी गाथा 'असीइसयं किरियाणं' आवश्यकनियुक्तिमा अने ध्यानशतकमां प्राप्त छे ए पण ध्यानार्ह छे । प्रस्तुत अवचूरि मात्र त्रण गाथा उपर ज छे | तेमां चारेय वादीओनी संख्या - तेओनुं स्वरूप तथा मान्यता दर्शावेल छे । तथा तेओना भेदोनी स्थापना पण आपेल छे ।
पत्रनुं पंचपाठ-स्वरूप तथा अक्षरोना मरोड वगेरे जोतां तेनुं लेखन १७मा सैकामां थयुं होय तेवुं जणाय छे । अक्षरो सुंदर छे । लेखनमां अशुद्धिओ घणी छे छतां मूल स्तोत्र पूर्व प्रकाशित स्तोत्र करतां घणुं शुद्ध छे । अवचूरिना कर्ता तथा प्रतिलेखक विशे कोई संदर्भ आ पत्रमां प्राप्त थतो नथी । पत्रमां हांसियामा आनो परिचय आपनां लखेलुं छे के ३६३ पाखंडी ० ५०१ ” ।
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सिरिवज्जसेणपणयं तणयं सिद्धत्थतिसलदेवीणं । पाखंडतिमिरनासन - सूरं वीरं नम॑सामि ॥१॥
( अवचूरि: ) तत् एवं षड्विधे भावे भावसमवसरणम् । भावमीलनमभिहितम् । अथवाऽन्यथा भावसमवसरणं निर्युक्तिकृत् एव दर्शयति । क्रियांजीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । एतद्विपर्यस्ता अक्रियावादिनः । तथाऽज्ञानिनो ज्ञाननिह्नववादिनः । तथा वैनयिका-विनयेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा वैनयिकाः । एषां चतुर्णामपि सप्तभेदानामाक्षेपं कृत्वा यत्र विक्षेपः क्रियते तद् भावसमवसरणमिति । एतच्च स्वयमेव नियुक्तिकारोऽ
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न्त्यगाथायां कथयिष्यति ।
साम्प्रतमेतेषामेवाभिधानान्वर्थदर्शनद्वारेण स्वरूपमावि : कुर्वन्नाह ॥१॥ अत्थितात्यादि (सामियेत्यादि) -
अनुसंधान-२२
सामिय ! तुह मयरहिओ भोलविओ हं कुमग्गरूवेहिं । पासंडविसेसेहिं तिसयतिसहि ते य इमे ॥२॥
जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्ति एव इति एवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनः । ते त्वेवंवादित्वात् मिथ्यादृष्टयः । तथा हियदि जीवोऽस्त्येवेत्येवमभ्युपगम्यते ततः सावधारणत्वात् न कथंचिन्नाऽस्तीति । अत: स्वरूपसत्तावत् पररूपापत्तिरपि स्यात् । एवं च नाऽनेकं जगत् स्यात् । न चैतत् दृष्टमिष्टं वा ।
तथा नाऽस्ति एव जीवादिकः पदार्थ : इति एवं हि नोक्रियावादिनः । तेऽपि सद्भूतार्थप्रतिपादनान्मिथ्यादृष्टय एव । तथा हि- एकान्तेन जीवास्तित्वप्रतिषेधे कर्तुरभावः प्राप्नोति । एतस्याऽपि प्रतिषेध- स्याऽभावस्तदभावाच्च सर्वास्तित्वमनिवारितमिति ।
तथा न ज्ञानमज्ञानम् । तद् विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः । ते हि अज्ञानमेव श्रेय इति एवं वदन्ति । एतेऽपि मिथ्यादृष्टय एव । तथा हि- अज्ञानमेव श्रेय इत्येतदपि न ज्ञानमृते भणितुं पार्यते । तदभिधानाच्चाऽवश्यं ज्ञानमभ्युपगतं तैरिति ।
तथा वैनयिका-विनयादेव केवलात् स्वर्ग-मोक्षावाप्तिमभिलषन्तो मिथ्यादृष्टयः । यतो न ज्ञानक्रियाभ्यामन्तरेण मोक्षावाप्तिरिति ।
एतेषां च क्रियावाद्यादीनां स्वरूपं तन्निराकरणं चाऽऽचारटीकायां विस्तरेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते ||२||
साम्प्रतमेतेषां भेदसंख्यानिरूपणार्थमाह- असीयेत्यादि (असीइ - इत्यादि) असीइसयं किरियाणं अकिरियवाईण होइ चुलसीइ । अन्नाणिय-सत्तठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥३॥
क्रियावादिनाम् अशीत्यधिकं शतं भवति । तच्चाऽनया प्रति ( प्र ) क्रियया ।
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29 तद्यथा-जीवादयो नव पदार्थाः परि परिपाट्या (परिपाट्या) स्थाप्यन्ते । तदधः स्वतः परतः इति भेदद्वयम् । ततोऽप्यधो नित्यानित्यभेदद्वयम् । ततोऽपि अधस्तात् परिपाट्या काल-स्वभाव-नियतीश्वरात्मपदानि पञ्च व्यवस्थाप्यन्ते ।
जीव अजीव पुन्य | पाप आश्रव संवर | निर्जरा बन्ध मोक्ष स्वतः | परतः नित्यः अनित्य काल स्वभाव नियति, ईश्वर आत्मा |
पा
(ए स्थापना)
इति स्थापना ॥ ततश्चैवं चारिणकाः । क्रमस्तु यथा-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः (१) तथा अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः (२) एवं २ । एवं परतोऽपि भङ्गद्वयं-सर्वेऽपि चत्वारः ४ कालेन लब्धाः । स्वभावनियतीश्वरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुर एव लभन्ते । ततश्च पञ्चाऽपि चतुष्कका विंशतिर्भवन्ति । साऽपि जीवपदार्थेन लब्धा । एवं अजीवादयोऽपि अष्टौ प्रत्येकं विंशतिं लभन्ते । ततश्च नव विंशतयो मीलित्वा क्रियावादिनामशीतिउत्तरशतं भवति इति १८० ॥
अक्रियावादिनां नाऽस्त्येव जीवादयः पदार्था इत्येवमभ्युपगमवतामनेनोपायेन चतरशीतिरवगन्तव्या । तद्यथा-जीवादीन पदार्थान् समभिलिख्य तदधः, स्व-परभेदद्वयं व्यवस्थाप्यते । ततोऽप्यधः काल-यदृच्छा-नियतिस्वभाव-ईश्वरात्मपदानि षट् व्यवस्थाप्यानि ।
| जीव अजीव आश्रव संवर निर्जरा बन्ध मोक्ष ।
स्वतः
परतः
काल
| यदृच्छा| नियति | स्वभाव ईश्वर | आत्मा
स्थापना । अक्रियावादिनां भेद-८४-भङ्गकानयनोपायस्त्वयम् । नाऽस्ति जीवः स्वतः कालतः (१) तथा नाऽस्ति जीवः परतः कालतः (२) । एवं यदृच्छा-नियति-स्वभावेश्वरात्मभिः प्रत्येकं द्वौ द्वौ भङ्गको लभ्येते । सर्वेऽपि द्वादश (१२) । तेऽपि च जीवादिपदार्थसप्तकेन गुणिताश्चतुरशीतिः इति (८४) ।
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तथा चोक्तम्
"काल- यदृच्छा-नियति-स्वभावेश्वरात्मतश्चतुरशीतिः नास्तिकवादिगणमते सर्वे भावाः स्व पर संस्थाना (ना: ) ||" []
साम्प्रतं अज्ञानादेव विवक्षितकार्यसिद्धिमिच्छतां ज्ञानं तु सदपि निष्फलं दोषवच्चेत्येवमभ्युपगमवतां सप्तषष्टिः अनेनोपायेनाऽवगन्तव्या । तद्यथा जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त भङ्गकाः संस्थाप्या:१. सत्, २. असत्, ३. सदसत्, [४. अवक्तव्यम् ], ५. सदवक्तव्यम्, ६. असदवक्तव्यम्, ७. सदसदवक्तव्यम् इति । स्थापना |
जीव अजीव पुन्य पाप आश्रव संवर निर्जरा बन्ध मोक्ष
अवक्त- सद् असद् सदसत् व्यजीवः अवक्तव्य अवक्तव्य अवक्तव्य जीव: जीव: जीव: जीवः
सत् असत् सद
जीवः
जीवः सत्
जीव:
सतीभावोत्पति: १ सदसती भावोत्पत्तिः ३ असती भावोत्पत्तिः २ अवक्तव्यभावोत्पत्तिः ४
( एवं तह ६७)
अभिलापस्तु अयम् सन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (१) असन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (२) सदसन् जीव: को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (३) अवक्तव्यो जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (४) सदवक्तव्यो जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (५) असदवक्तव्यो जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (६) सदसद्वक्तव्यो जीवः को वेत्ति ? किं वा तेन ज्ञानेन ? (७) एवं अजीवादिषु अपि सप्त भङ्गकाः । सर्वेऽपि मिलिताः त्रिषष्टिः (६३) । तथाऽपरे इमे चत्वारो भङ्गकाः । तद्यथा सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? ( १ ) असती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किंवाऽनया ज्ञातया ? (२) सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? (३) अवक्तव्या भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वाऽनया ज्ञातया ? (४) सर्वेऽपि सप्तषष्टिः इति । उत्तरभङ्गकत्रयमुत्यत्तिभावावयवापेक्षमिह भावोत्पत्तौ न
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January-2003 सम्भवति - इति नोपन्यस्तम् । उक्तं च
"अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिससविधान् । भावोत्पत्तिं सदसद्विधां वा, तां च को वेत्ति ?" ॥ इति ॥ [ ]
इदानीं वैनयिकानां विनयादेव केवलात् परलोकमपीच्छतां द्वात्रिंशत् अनेन क्रमेण बोध्यास्तद्यथा- सुर-नृपति-यति-ज्ञाति-स्थविरा-ऽवम-मातृ-पितृषु मनसा वाचा कायेन दानेन चतुर्विधो विनयो विधेयः । सर्वेऽपि अष्टौ चतुष्ककमिलिता द्वात्रिंशत् इति । उक्तं च- ..
"वैनयिकमतम् - विनयश्च मनो- वाक्-काय-दानतः कार्यः । सुर-नृपति-यति-ज्ञाति-स्थविरा-ऽवम- मातृ - पितृषु सदा ॥"[ ]
सर्वेऽपि एते क्रिया-ऽक्रिया-ऽज्ञान-वैनयिकवादिभेदा एकीकृता: त्रीणि त्रिषष्ट्यऽधिकानि प्रावादुकमतप्राप्तानि भवन्ति ।
अत्थि जिओ सउ-परओ निच्च-अणिच्चो य कालओ निअओ । ससहावेसर-आया, नवपयगुण असिइसउ किरिया ॥४॥ नत्थि जिओ सउ-परओ काल-जइच्छा-नियइ-सहाव(वा?)ओ । . ईसर-आया सगतत्तसंगुणा अकिरिय चुलसीइ ॥५।। सय-असयोभय-वत्तव्व-सयवत्तव्वो य असयवत्तव्यो । तदुभयवत्तव्वजिओ नवपयगुणिया उ तेवठी ॥६॥ सयभाव-असयभावा तदुभयऽवत्तव्वभाव-उप्पत्ती । इय चउजुय सत्तट्ठी भेया अन्नाणवाईणं ॥७॥ मण-वय-काय-दाणे सुर-निव-जइ-थेर-नाइ-अवमेसु । . पिय-माइसु अड-चउगुण बत्तीसं विणयवाईणं ॥८॥ इय तिसया तेसट्ठा पासंडा चंडकुग्गहग्गहिया । तह कुण जह मं सामिय ! पुणो वि बो(बा)हंति नो एए ॥९॥
॥ इति स्तवनम् ॥छ।।
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जिनपूजाविधि : मध्यकालीन विधान
सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
केटलाक वखत पहेलां मुनि श्रीभुवनचन्द्रजीने मांडलना भंडारमांथी एक चोपडो (गुटको) जोवा मळेलो; तेमांनां अमुक पृष्ठोनी झेरोक्स करावी तेणे मने मोकलेल, तेमां आ 'जिनपूजाविधि' छे. तेमना लखवा प्रमाणे आ गुटको श्रीहीरविजयसूरिजीना निकटना साधु वा श्रावकनो होवो जोईए. अने तेम होय तो आ लखाणनुं मूल्य घणुंबधुं आंकवुं जोईए, केमके ते १७मा शतकना चलणी विधाननुं लखाण गणाय.
आ लखाणमां आम तो जिनप्रतिमानी पूजानो विधि अने क्रम आपवामां आव्यो छे. पूजाविधि आम तो प्रचलित ज छे. परंतु प्रचलित विधिमा केटलुंक एवं प्रवेशी गयुं छे, जे आ विधिमा जोवा नथी मळतं. एवी वातो तरफ ध्यान दोरवाना अभिप्रायथी ज आ लखाण अत्रे प्रकट करवामां आवे छे.
स्नान पूर्वाभिमुख बेसीने करवानुं छे, ते पण जीव विनानी - निर्जीव धरती धोतीयुं - वस्त्र पहेरवानी क्रिया उत्तर दिशा भणी ऊभा रही करवानी छे. साथे वस्त्रनी संख्या अने स्वरूप पण लख्यां छे.
पर.
२. देरासरमां दाखल थईए त्यारे पहेलो जमणो पग अंदर मूकवो ए सूचन ध्यानपात्र छे.
३. प्रदक्षिणा परिवार सहित, वाजते गाजते, नीची नजरे, सृष्टिक्रमे करवानुं विधान मळे छे, जे सुज्ञो माटे उपयोगी गणाय विधिविधानमां केटलीक क्रियाना बे क्रम होय छे : १. सृष्टिक्रम; २. संहारक्रम, उत्तम अने पोषक - विधायक क्रिया सृष्टिक्रमे थाय. तेथी ऊलटा प्रकारनी क्रिया अवळा - संहारक्रमे थाय. आ मंत्र-तंत्र शास्त्रनी रहस्यनी वात छे. प्रदक्षिणा, पूजा वगेरे उत्तम - पोषक - लाभकारक क्रिया छे, ते सृष्टिक्रमे ज थाय. प्रदक्षिणा देतां आजे सर्वत्र बोलाता दूहाना स्थाने ते वखते प्राकृत ३ गाथा बोलाती हती, तेनुं पण सूचन अहीं मळे छे. उपरांत, प्रदक्षिणा दई शकाय तेम न होय तो प्रभु आगळ ऊभा रही, हाथ जोडी आवर्त
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देतां देतां ३ गाथा बोलीने ते विधि साचवी लेवानुं सूचन पण करेल छे. ४. आ पछी देरासर पुंजवानुं एटले के झाडु, पुंजणी वगेरेथी साफ करवानुं छे, अने साथे साथे बीजां देरासरो (होय तो ) नी चिन्ता ( तेनी पूजानो प्रबंध करवानी चिन्ता) करवानी सूचना छे.
आ पछी ज सुखड - केसर घसवानुं छे, ते पण मुखकोश बांधीने ज. तेमांये पूजानुं तथा तिलक माटेनुं अलग करी मूकवानुं छे. पछी बधुं लईने गभाराना दरवाजे जाय, त्यां आठपडो मुखकोश बांधीने ज अंदर जाय ते सूचन छे.
५.
६. अंगपूजाना आरंभे निर्माल्य वासी फूल, केसर वगेरे उतारवानी वात छे. खोखुं उतारवानी वात नथी. पुराणां खोखां आज लगी क्यांय मळ्यां पण नथी. २००-४०० वर्ष जूनी आंगी मळे छे तेमां पण पाखर, हंस, मुगट, कुंडल, बाजुबंध, हार, श्रीफल आटलुं ज, वधुमां वधु, मळ्युं छे; आखुं के खंडशः धातुनुं खोखुं नहिज. पछी पखालनी वात आवे छे, एमां दूधनी वात आवती नथी. सुगन्धित पाणी अने तेमां सुखड - केसर-फूल त्रण वानांनुं मिश्रण करवानी अने ते थकी प्रक्षाल करवानी सूचना छे. आमां दूध क्यांय नथी आवतुं. आजे तो दूधनी ज प्रधानता होय छे. दूध न होय तो प्रक्षाल अधूरो- विधिहीन मनाय छे. फलतः वासी, कोथळी के फ्रीजनां दूधनो पण छोछ रह्यो नथी, ते नितान्त आशातना गणाय तेम छे. वळी, आ विधिमां जीवोनी जयणानी वात वारेवारे करी छे; ज्यारे दूधना के दूधमिश्रित पखालथी थती चीकाश, फूग, जीवोत्पत्ति, तेनाथी आकर्षाईने आवती गरोळी, उंदर, वांदा वगेरेनो उपद्रव, ते बधांनी पूजारी द्वारा थती हिंसा आ बधांनो विवेक आजना पूजाप्रेरको तथा पूजा- कारको पासे जोवा मळतो नथी ज.
७. अंगलूहणांनी वात विगते समझवायोग्य छे. कुल ४ अंगलूहणां राखवा. बे आजे वापर्यां, ते काले न वापरवां; काले बीजां बे वापरवां. एकेक अंगलूहणुं साडा त्रण गजना मापनुं लेवुं. तेने केसर सुखडनो पास आपी पीळां करवानां छे. वळी तेने सुगंधभर्या स्थाने राखवानी सूचना छे. ८. पखालनुं पाणी तथा निर्माल्यभूत बीजा पदार्थ भेगा न राखतां जुदा
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अनुसंधान-२२
राखवानी सूचना छे. तेने निरवद्य-निर्जीव जमीन पर परठवाय; त्यां कुंथवा जेवी जीवात उत्पन्न न थाय तेनी तथा वरसाद पडे तो फूग न वळे तेनी दरकार राखे; गमे तेम नाखे तो पाप लागे; ते पदार्थोने
ओळंगाय नहि; आ बधी वातो विवेकी माटे खूब प्रेरणादायी छे. नव अंगोना क्रममां भाल, कंठ, हृदय, उदर- आ अंगोनो समावेश नथी. ते, कारण, अहीं बे पगने बे अंग, बे जानु, हाथ, खभाने पण २-२ अंग गणेल छे, ज्यारे अन्यत्र बे पग, जानु, हाथ, खभाने १-१
(संयुक्त) अंग गणेल होय छे, ते होवू जोईए.. १०. फूल पूजा पण सृष्टिक्रमे ज करवानो विधि नोंधपात्र छे; मन फांवे तेम
गमे ते अंगे फूल. गोठववानां नथी. उपरांत, फूल केवां लेवां ने केवी रीते, ते अंगेना सूचन पण ध्यानार्ह छे. आ वातो आजे कोण स्वीकारे
समजे छे ? . ११. पहेलेथी कोईए पूजा करी लीधी होय तो ते दूर करवी अने आपणे
नवेसरथी पूजा करवी, ते बाबतनो अहीं स्पष्ट निषेध थयो छे. घणाने ८ प्रकारी पूजानो नियम होय छे, तेओ पूर्वकृत पूजाने रद्द करी फरी बधुं करवाना जड आग्रही होय छे, तेमणे आ विवेक समजवा योग्य छे. पूजा करतां प्रतिमाना मुख पर सुखडनुं विलेपन करवानी मनाई पण
फरमावाई छे. १२. अग्रपूजामां कयो पदार्थ भगवाननी कई बाजुए मुकवो तेनो विधि खूब
महत्त्वपूर्ण छे. दीवो जमणे, धूप डाबे, अने नैवेद्य-फल-जलपात्र सन्मुख प्रतिमानी बराबर सामे धरवानुं विधान अहीं छे. साथियो-सिद्धशिलानुं विधान नथी; फक्त अक्षतनी ३ ढगलीओ ज करवानुं विधान छे; अने छेक छेवटे (अष्ट) मंगल चोखा वडे आलेखवानुं विधान छे. आजे केटलाक लोको अष्टद्रव्यपूजा पछी मात्र मंगलदीवो करे छे, आरतीनो निषेध करे छे. पण आ विधिमां आरती तथा मंगल दीवो बन्ने करवानुं
स्पष्ट सूचन छे. १३. फलपूजा तो थईज छे, छतां छेवटे नाळियेर धरवानुं पण विधान छे.
चंदनना थापा देवानुं पण विधान छे. वधुमां, देरासरमां पोते रह्यो, बेठो,
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तेना निमित्ते (वळतररूपे ?) भंडार मूकवानुं एटले के भंडारमा नाणुं मूकवानुं विलक्षण विधान पण छे. आज़े दरेक देरासरमां भंडार होय छे, ने तेमां पैसा नाखवानो रिवाज छे. वळी, ते पैसाने निर्माल्यपूजाद्रव्य तरीके गणावाय छे. वळी, आजे तो सर्वत्र साथियो वगेरे रचीने ते पर फलादिनी- साथे पैसा मूकवानी तथा तेने स्वहस्ते भंडारमा नाखवानी प्रथा छे. ते प्रथा- पगेरुं पण अने तेनी अयोग्यता पण अहीं आ विधान द्वारा जणाय छे. खरेखर तो समग्र पूजाविधिमां धन के नाणुं मूकीने पूजा करवानुं क्यांय विधान ज नथी. बधे अष्ट द्रव्यो वगेरे द्वारा ज पूजा करवानी वात छे. अटले नाणुं पूजाद्रव्य (उपकरण) नहि, माटे ते निर्माल्य पण नथी थतुं. छतां भंडार छे, तथा नाणुं भरवानुं होय छे, ते शी रीते ? शा माटे ? तेनी स्पष्टता आपणने आ विधिमांना 'जेतलीवेला देहरामां रहीइ ते
निमित्त भंडारि मूंकीइं" - ए वाक्यथी सांपडे छे. १४. आ वाक्यना अनुसन्धानमां, आ ज विधिगत, एक बीजुं वाक्य पण
पकडवानुं छे : "घणी वेला धोतीयां राखीइ नहीं, राखइ तु दोष लागि"। अर्थात् पूजानां वस्त्रो लांबो वखत पहेरी राखवामां दोष कह्यो छे. आजकाल कलाको लगी पूजाना कपडामा रहेवानी, पूजा उपरांत माळा, व्याख्यान, सामायिक, वहीवटी कार्य आ बधुं करवानी जे पद्धति चाले छे, ते सामे आ वाक्यो लालबत्तीरूप छे. सारांश ए के झाझो समय पूजाना कपडे रहेवाय नहि, ने ते कपडे देरासरमां जेटलो वखत
रहे तेना चार्ज-वळतररूपे भंडारमा नाणुं नाखवानुं रहे. .. १५. एक बीजी महत्त्वनी वात आ विधिमां वर्णवी छे. ते वात छे जलपूजानी.
मूर्तिनी जूनी पूजा उतार्या बाद जे थाय छे तेने प्रक्षाल उपरांत अभिषेक गणवानो चाल आजे छे. आ विधिमां तेने प्रक्षाल ज गणावेल छे; ते पण प्रतिमाने स्वच्छ करवानी दृष्टिए ज. पछीथी दरेक ८ प्रकारी पूजा करवानी, तेमां जलपूजा पण करवानी छे ते भगवान सामे फल-नैवेद्यनी जेम अने तेनी साथे जलभरेलुं पात्र धरीने-मूकीने; नहि के प्रतिमाने न्हवडावीने. आ विधि शास्त्र ग्रंथोमां तो मळे ज छे, परंतु १७मा सैकामां
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पण ते प्रचलित होवो जोईए (आजे तो छोडी देवायो छे) तेम आ विधिगत विधान वांचवाथी जणाई आवे छे.
प्रांते, आ विधिनी प्रति मारा पर मोकलती वखते लखेलो पत्रमा मुनि श्रीभुवनचन्द्रजीए लखेल केटलाक मुद्दा नोंधुं तो -
"अष्टप्रकारीनो क्रम, नव अंग, अक्षत वगेरे अंगेनी ते वखतनी .. प्रणालिका कंईक जुदी ज छे. पं. कल्याणविजयजीनी 'जिनपूजापद्धति'नां केटलांक विधानोने समर्थन मळे तेवू आमां घणुं छे.... प्रणालिका अने परंपराने शाश्वत जेवी समजी बेसनाराओना हाथमां आ मूकवा जेवं छे.... अत्यारे जेम छे तेम पहेला पण हतुं- अर्थात् हालनी विधि 'सनातन' छे एवी मान्यता बरोबर नथी."
लेखनी भाषा मारुगुर्जर एटले के राजस्थानी (मारवाडी) मिश्रित गुजराती लागे छे. केटलाक शब्दोनो संग्रह छेवाडे आपेल छे.
पूजानी विधि लिखिइ छइ । पूरवदिसि बइसी अंघोलि कीजि । भूमिका पुंजीनइ जीव काजि । पडे धोतीउं पहिरीइं । पगे भई अणफरत उत्तरदिसि साम्ह रही धोतीउं पहिरई अनि उत्तरासंग करि । ते धोतीआ श्वेत निर्मल चोखां । किरिडिआं नही । फाटा नही । साध्या नही । आंतरी सहित । पुरुष नइ २, स्त्री नइ ३ धोतीआं ॥
पिहिलूं बारणि 'निसिही' कहइ । तेणी निसिहीइ मन वचन कायाई करी घरनुं व्यापार निषेधाइं । मांहि पइसतां अभिगमन चारि करीइं - जिन पूजा व्यतिरेक सचित्त छांडीइं १, अचित्त वस्तु आभरणादिक राखीइं २, मननुं एकांतपणु करीइं ३, एकसाडिउ उत्तरासंग करीइं ४ । पूजानु उपस्कर सर्व लेई जईइ । पहिलं जिमणउ पग मांहि मुंकीइ । जगन्नाथनइ जिमणइ पासई रहीइं। मूलनायक- मूख देखी माथि हाथ चडावी नमता थिका 'नमो जिणाणं' कहीइ वार ३ । ए पांचमु अभिगमन साचवीइं ॥
पछंइ वाजिब वाजतइ परिवार लेई सृष्टिं प्रदक्षिणा ३ दीजइ । जगन्नाथना जिमणि पासाथी डावि पासि ऊतरीइ । तिहां "जयजंतु कप्पपायव०" ए त्रिणि गाथा भणीइं । नीचु जोतां मनमाहि एहवं चिंतवीइं 'ज्ञान-दर्शन
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चारित्र आराधवानइ काजिनं वलि समोसरणि बिठा चिहुं रूपे तिहां देउं छू ।' जउ प्रदक्षिणानुं ठाम न हुई तु ऊभु रही हाथ फेरवतु गाथा ३ कहइ । पछइ देहरुं पूंजई । वली बीजा देहरानी चिंता करई ॥
मुखकोश बांधी सूकडि केसर घसि पूजानी अनि तिलकनी जूजूई ऊसारि पूजानु ऊपसकर सघलु लेई ऊभु थाइ । गभारानि बारणि जईन निसिही बीजी कहि । पंचांग प्रणाम करि वार ३ मस्तक भुइ लगाडइ । 'नमो जिणाणं' कहइ । पछइ आठपुडु मुखकोश करि, जिम मुखनु सास अनि नासिकानुं सास प्रतिमानइ न लागई ॥
हवि अंगपूजा लिखीइ छइ । जगन्नाथनु निर्माल्य ऊतारीइं । पछि पुंजणी प्रतिमा पुंजीइ । जीवनी यतना कीजइ । पषालनि सुगंध पाणी करी । माहिं सूकडि केसर फूल मुंकी कलश भरीइं । पछइ प्रतिमा प्रनालीइ बाजोठि अथवा थाली ऊपरि ऊंची मुंकीइं । कलश बिहुं हाथि लेई
बालत्तणंमि सामिअ ! सुरगिरिसिहरंमि कणयकलसेहिं । तिअसासुरेहिं न्हविउ ते धन्ना जेहि दिट्ठो सि ॥
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अथवा 'स्नातस्या०' गाथा एक मुखि ऊचरतु ढालि । पछइ वालाकूची मइल टालि शुद्ध कीजि । तिहार पछी अंग लूहीइ । ते आंगलूहणा २ कीजि । ते अंगलूहणा सूकडि केसरि पीलां कीजइ । सुगंध ठामि मुकीइ । सुहाली भेरवना सष (प? ) २ कीजि । एक दिनना अंगलूहणां बीजि दिनि वासी मूकीइ । एवं अंगलूहणा ४ कीजि । पषालपाणी निर्माल जूजूआ राखीइ, निरवद्य भूमिकाई परठवीइं । उलंडाई नही । तिहां कुंथुआदिक जीव ऊपजइ नही तिम करीइ । वरसातमांहिं क्कलि ( फूलि ) न वलि तिम करी । भावि तिम नाखीइ तु आशातना लागि ||
पूजा करता भणीइ नही, वात न कीजि, षणीइ नही । एकाग्र चित पूजा उपरि राखी । सूकडि केसर कर्पूर लेई नवांगि सृष्टि पूजा कीजि । पग २ जानु ४ हाथ ६ षभा ८ मस्तक ९ । पछइ आभरण चडावीइ । पछि सृष्टि फूल चडावी । ते फूल अखंडित अम्लान काप्यां नहीं, जीवे खाधां नही, सर्व जाति, रूडि वस्त्रि घाली रूडे परि आण्या, एहवा चडावी । प्रथम मूलनायक पूजीइं । मूलनायकनि विशेष पूजा कीजि । जउ पहिलू विशेष
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पूजा कीधी हुइ तु आपण न ऊतारीइं । ते ऊपरि आपण करीइं । जउ घणी वेला थई हुइ तु फूल करमाणा हुइ तु ऊतारी विशेष पूजा करीइं ॥
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पछी सृष्टि सृष्टि सघली पासानी प्रतिमा पूजीइ । पछि बाहिरला चउमुखनी पूजी । पछि मंगल चैत्य पूजीइ । प्रतिमानि मुखि सूकडि कांई नलगाडीइं । रूडि आसनि बइसी प्रतिमा पूजीइं ॥
हवि अग्रपूजा लिखीइं छई । दीवु जगन्नाथनि जिमणि पासि मेहलीइं । नैवेद्य धान घृत पकवांन फल पांणीइ भरिउ भाजन जगन्नाथ नइ सामुं ढोईइ । अने चोखाना त्रिणि पुंज आगलि करीइं जगन्नार्थानि डावि पासि धूप ऊखेवीइं । पछि आरती मंगलेवु घीनु करीइ । पछि गीतवाजित्र वाजति सृष्टि वार ३ आरती ऊतारीइं, मंगलेवु वार ३ ऊतारीइं । पछि चमर ढालीइं । पछि भंडारि मूंकीइं ॥ जेतली वेला देहरामां रहीइ ते निमित्त भंडारि मूंकीइं । नालिकेर ढोईई । चंदनना हाथा दीजीइं । तुंदुलना मंगल आलेखीइं ।
हवइ भावपूजानि अवसरि त्रीजी निसीही कही । रंगमंडप आवी चैत्यवन्दन कीजि । घणी वेला धोतीयां राखी नही । राखीइ तु दोष लागि ।। एतला पूजाना उपस्कर जोईइ : देहरासर हाथ डउढ उंचउ मांडीइ । चंदूओ ऊपरि बांधी । कलस १ धूपधाणुं १ बाजोठ १ डंडासणउं १ काजाउद्धरणी १ वली १ कलसीउ १ पाणी ढोवानि सीप १ सूकडि ऊसारवा वासकुंपी १ वास घालवा डाबडी १ केसर घालवा डाबडी १ अगरुनी डाबडी १ वास घालवानी डाबडी (?) कपूर घालवा थांट १ पुंजणी १ वालाकुची १ डाबडु १ आंगलूहणा घालवा डाबडो १ चोखा घालवानि दोडीउ १ निर्माल घालवानि डालरि १ तालजोडुं १ दीवु १ पीतलनु, आरती १ मंगलेवु १ पाटलु १ बिसवानु, दीवी १ लाकडानी तथा पीतलनी, सूकडिनुं गाठीउ उरसीउ १ चंगेरी १ फूल घालवानी । धोतीआ जोडुं १ मुखकोश १ पडे धोतीउ १ आंगलूहणा ४ गज साढा त्रीणिना, हाथलूहगुं १ गज १ एकनूं अनि पषाललूंहणुं गज च्यारिनू, त्राबानु घडु १ पाणी घालवानि, गलणुं १ गलवानि, गलणुं १ ने वानि । छत्र १ चामर २ ।
पांच प्रकारे पूजा ५॥ आठ प्रकारे पूजा
सूकडि केसर १ फूल २ आषे ३ दीवु ४ धूप सूकडि केसर १ फूल २ दीवु ३ आषे ४ नैवेद्य
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भुई
५ फल ६ पाणी ७ धूप ८ ॥ सतरे प्रकारे पूजा - न्हवहण विल्हेवण १, चक्षु २ वा वस्त्र, छूटां फूल ३, फूलनी माला ४, वर्णक फूल ५, कर्पूर चूर्ण ६, आभरण ७, फूलहरूं ८, फूलपगर ९, आरती-मंगलेवु १०, दीवु ११, धूप १२, नैवेद्य १३, फल १४, गीत १५, नृत्य १६, वाजिंत्र १७ ।। एकवीस प्रकारे पूजा - पषाल १ विलेपन २ वस्त्रयुगल ३ वास ४ फूल ५ आभरण ६ धूप ७ दीप ८ फल ९ अक्षत १० नैवेद्य ११ पानीय १२ पांने १३ सोपारी १४ छत्र १५ चामर १६ वाजित्र १७ गीत १८ नाटक १९ स्तवस्तुति २० कोशवृद्धि २१ ॥
शब्दकोश अंघोलि स्नान पुंजीनइ पुंजीने-जीवरक्षा थाय
तेम साफ करीने
भोंय-भूमि उत्तरासंगे ऊपरj-खेस वस्त्र किरिडिआं जर्जरित के करोळियां वाळां (?) साध्या
सांधेलां आंतरी वस्त्रने छेडे थोडाक तार काढीने छेडा काढवा ते पूजाव्यतिरेक पूजा सिवायर्नु एकसाडिउ एकवडो (खेस) उपस्कर
सामग्री सृष्टिक्रम एटले आपणे डाबेथी जमण जq ते,
प्रभुने जमणेथी डाबे. चिहुं रूपे घार 'मुखे - चौमुख रूपे मुखकोश मोढा पर बांधवानो रुमाल सूकडि सुखड-चंदन
जुदी जुदी ऊसारि
काढी, राखी रुमालना आठ पड(करवा)
सृष्टिं
जूजूई
आठपुडु
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निर्माल्य / निर्माल गई कालनी पूजा-वासी पूजानो उतारो जीवहिंसा न थाय तेनी चीवट
यतना
प्रक्षालन प्रणाळ-नीकवाळो
सुगंधी वाळानी जूडी
अंग लूछवानां वस्त्र
पषाल
पाली
वालाकूची
आंगलूहणा सुहाली भैरवना
सषर/सपर
निरवद्य भूमिका
उलंडाई
कुंथुआ
फूलि -
भावि
आशातना
भणीइ
षणीइ
सृष्टिपूजा
पासानी
मंगलेवु
भंडारि मूंकीई
हाथा
तुंदुल
डालरि
तालजोडु
गाठीउ
उरसीउ
सुंदर सुपेरे
निर्जीव धरती
ओळंगाय
झीणी जीवात
फूग
जाणी बूझीने
दोष / पाप
भणीए / बोलीए
खोतरी - खंजवाळीए
प्रभुने जमणेथी डाबे पूजा
पाषाणनी(?)
मंगलदीवो
पैसा मूकवा
हाथना थापा
थांट
पषाल लूंहणुं - भोंयलूछणुं नेवानि
चोखा-अक्षत
वासण विशेष (?) सूंडली - टोपली - (म.गु.श. को . )
पंखो (?)
टुकडो
घसवानो पत्थर - ओरसियो
-टाट (तासक) (?)
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श्रीगुलाबविजय-विरचित श्रीसमेतशिखर गिरि रास
. सं. विजयशीलचन्द्रसूरि
वीस तीर्थंकरोना निर्वाण कल्याणक थकी तथा असंख्य साधकोना सिद्धिगमन थकी पावन बनेल पर्वत-तीर्थ श्रीसमेतशिखरगिरि ए जैन संघरों अत्यंत पवित्र, मान्य अने आराध्य तीर्थ छे. आ तीर्थनी गुणगाथा वर्णवतो तेमज अहीं थयेल शामळिया पार्श्वनाथनी प्रतिष्ठाना ऐतिहासिक बनावनी स्मृति वर्णवतो एक नानकडो रास, तपगच्छीय मुनि गुलाबविजयजीए वि.सं. १८४७मां रचेलो, ते अत्यारे मारी पासे उपलब्ध एक प्रतिने आधारे संपादित करीने अत्रे रजू करवामां आवे छे.
रासनी छ ढाल छे. प्रथम ढालमां पालगंज राज्य तथा तेना राजानो उल्लेख (कडी ९-१०) मळे छे. ते पछीनी कडीमां मधुवन, पहिली घाटी, सीतानाल ए भौगोलिक नामो आवे छे. १६मी कडीमां सहस्रफणा पारसनाथनो उल्लेख छे, अने १७मी कडीमां सजल कुंड-जल भरेल कुंड अने तेनी पासे वीस जिननां पगल्यां-पगलांनो ऐतिहासिक उल्लेख थयो छे. भोमियाजीनो क्यांय निर्देश नथी: शासनदेवी-तीर्थनी अधिष्ठायक - एम (कडी १२) उल्लेख छे. संभवतः भोमियाजीना प्राकट्य पूर्वेनी आ रचना छे.
बीजी ढालमां आ तीर्थे मोक्ष पामनारा २० तीर्थंकरो तथा तेमनी नगरीनां नामो वर्णवेल छे, तो त्रीजी ढालमां ते पैकी कया तीर्थंकर कया दिवसे निर्वाण पाम्या तेनुं वर्णन छे. ढाल ४मां कया जिन साथे केटला साधु सिद्ध थया तेनी विगत आपवा साथे तेमना निर्वाणस्थलरूप ढूंक-कूटटेकरीनां नामो पण आपेल छे.
____पांचमी ढालमां, वि.सं. १८२५मां, तपगच्छपति विजयधर्मसूरिना राज्ये ओसवालवंशीय श्रावक शाह सुकालचंदे, अहीं देरासर कराव्युं अने तेमां माघ शुक्ल पक्षे शामळिया पार्श्वनाथ प्रभुनी प्रतिष्ठा करावी - ते ऐतिहासिक घटना- सुस्पष्ट बयान आपेल छे. साथे ज, ते श्रावके वीसे ढूंक एटले के
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तीर्थनो नवो उद्धार कराव्यानी पण नोंध करेल छे. आ सुकालचंद एटले जगतशेठ खुशालचंद एम नीचेना सन्दर्भ थकी समजाय छे :
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"आ समये वि.सं. १८२५ ना महा सुदि ५ना रोज जगतशेठ खुशालचंद वगेरेए समेतशिखर महातीर्थ उपर तथा तळेटीमां मधुवनमां नानां मोटा जिनमन्दिरो बनावी तेनी भ. विजयधर्मसूरिना हाथे प्रतिष्ठा करावी हती. (मो.बा.फ.नं. ३३ तथा समेतशिखररास ) " ( - जैन परंपरानो इतिहास - ३, पृ. ११०, त्रिपुटी महाराज अमदावाद - ई. १९६४)
ढाल ६मां तीर्थभक्ति-वर्णन, अने ७मां प्रशस्तिवर्णनमां संवत् १८४७मां अषाढ वदि १०ना विशालानगरीमां वा. ऋद्धिविजय शिष्य भावविजय शिष्य पं. मानविजय शिष्य गुलाबविजये आ रास रच्यानो सन्दर्भ छे.
आ रास अंगे (मध्यकालीन)) 'गुजराती साहित्य कोश' मां 'गुलाबविजय' ना अधिकरणमां नोंध निर्देश मळे छे, पण ते मुद्रित होवानुं सूचन नथी, तेथी अहीं तेनुं प्रकाशन थाय छे. क्यांय मुद्रित होवानुं कोईना ध्यानमां होय / आवे तो अवश्य सूचित करे.
आ रासनी प्रति ७ पत्रोनी छे. प्रति संभवतः १९मी सदीमां लखायेली जणाय छे. मूळ कृति गुजराती भाषानी होय, तेमां मारवाडी जबाननी छांट तो भळी छे ज; ते उपरांत बंगाली बोलीनी छांट पण जोवा मळे छे : पूरब, निरबाण इत्यादि पदो द्वारा. बंगाल- प्रदेशमां आ प्रति लखवामां आवी होय तो बनवाजोग छे.
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श्रीगुरवे नमोस्तु ॥ अथ श्री शिकरजीरो राश लिखि ॥ दूहा : सांवलिया श्रीपासजी पणमवि व (च) रण जिणंद । थुणुं रास सुरतरुसमो सीखर समेत गिरिंद ||१|| महीयल मै तीरथ घणा गिणतां न लहूं पार 1 ऊर्द्ध अधो मध्यलोक मै समेतसिखरगिरि सार ॥२॥ ऋद्धि वृद्धि सुखसंपदा दायक दीठा होय ।
अष्ट सिद्धि नव निधि जप्यां इण सम अवर न होय ॥३॥
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सिव पाम्या वीसै प्रभू सीधा साधु अनंत । आगलि वलि अति सिझस्यै वर्धमान प्रवदंत ॥४॥ भवउदधि तरवा भणी एह शिखरगिर नाव भव्यजीव मिलकर सदा यात्र करै शुभ भाव ॥५॥ इणही ज जंबूद्वीपमै दक्षिण भरत अभिराम । धन धन पूरब देशमै छै तीरथ गुणधाम ॥६॥
देशी : नींविया की ॥
साचविर्यै विधि इण परै ए करियै आतम शुद्ध शिखरगिरि वंदियै ए निरमल चित्त धरि बुद्ध भवियण टोली हिलमिली ए गातां गीत रसाल जय बोलो जिन वीसनी ए पहिरो संघपतिमाल तन मन वयण जे वसीकरे ए गोपवो इंद्री पंच धरमी व्रत आराधता ए वाक्य मधुरता संच निज घरथी जब नीसरे ए जात्रा करणनै जाय छेहरि नित जै पालतां ए जनम सफल शुद्ध थाय ईर्यायें पंथ सोधता ए पैदल चढणो जोय
शि०
शि० ३
शि०
शि० ४
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शि० ५
शि०
शि० ६
शि०
शी ७
सर्दहणा गुरुदेवनी ए समकितधारी होय कपट कदाग्रह परिहरो ए टालो मिथ्यामति संग सामायिक सुभ भावथी ए ब्रह्मव्रत धार सुचंग भूमि संथारै सूवणो ए सचित्त करो परिहार करीयै नित्य एकासणी ए आदरो एकल आहार तीरथ देखी करौ नूंछणा ए कीजै मन उल्लास मोतियां थाल वधावियै ए प्रगट कीजै पुन्यरास वस्ती वसै पालगंजनी ए वरतैं सदा जिनधर्म न्याए राज चोसालसूं ए राजा करै राज्य कर्म दियै प्रदक्षिणा गिरि तणी ए मधुवन कीजै मुकांम शि०
शि०
शि० ८
शि०
शि० ९
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शिष० १
शिष ०
शिषं० २
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शि०
शि० १५
पहिली घाटी चढी करी ए सीतानाले विश्राम शि० १० स्नान करी निरमल जलै ए पावन करवो अंग शिo धोई निरमल धोतीया ए आगै चढणो उतंग
शि० ११ अधिष्ठायक तीरथतणी ए पूजेवि शासनदेवि शासनदेवि सानिधि करी ए पूरै मनोरथ हेवि शि० १२ केसर चंदन घसि भला ए मृगमद नै घनसार शि० वीसै ढूंक जुहारियै ए सफल गिणो अवतार शि० १३ जव अक्षत पुष्प अभिनवा ए बरक रुपेकै कराय शि० श्रीफल पूगीफल घणा ए कुसुम सुगंध चढाय शि० १४ पांचूं अभिगम साचवू ए पूजु पारसनाथ.. स्नात्र महोच्छव नवनवा ए खरचो संपति साथ सहसफणो तेवीसमो ए मनमोहन महाराज भवियण वंदै भावसुं ए सारै आतमकाज शि० १६ सजलकुंड शोहामणो ए पासें पगल्या जिन वीस शि० ते देखी मन गहगह्यो ए प्रणमूं भाव जगीस शि० १७ फेरी देवो जिनबिंबनी ए आरती उतारु आय शि० सांहमी मिल रातीजगो ए राश भास गुण गाय शि० १८
. . दुहा ॥ समेतशिखर ए तीरथै महोच्छव करियै अनेक .. जन्म सफल करिवा भणी बाधी हृदय विवेक १ इहां वीसै जिन आवीया मास भक्त तप धार
ए जिन ए गिरि उपरै सीधा भविहितकार ...२ ___ढाल २ । तुमे चेतो रे चेतो प्राणिया - ए देशी ॥ जिन नगरी जिनजी जनमिया ते वरणबूं उधा(दा)र । एहि ज जंबूद्वीप मै भलो दक्षिण रे एह भरत मझार क ॥१॥
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जनमै रे जिनराज सुरपति आवै रे सब महोच्छव काज कै त्रिभुवनपति तिलकमा रे उगति कै सुख साज क ॥२॥ ( ? )
अजित अयोध्या जिन पुरी रे सावथी संभवस्वांम वनिता अभिनंदन प्रभू सुमति प्रणमूं रे कौसल्या ठाम क ||३||
कौसंबी जिन पदमप्रभू रे वणारसियै सुपास चंदाप्रभू चंद्रावती सुविध जनमे रे काकंदी मांहि कै ||४||
शीतल जिन भद्दिलपुरै रे सींहपुरी श्रेयांस
कंपिलपुर विमलनाथजी रे अनंत अयोध्या रे लह (हो) अवतंस ॥५॥
रत्नपुरी मै धरमजिनेसर संतिनाथ गजगाम
कुंथु गजपुर सहरमे रे हथिनागे अठारमो स्वाम क ||६||
मल्लिनाथ मिथिलाधिपती रे मुनिसुव्रत राजगृह राय महिलायै नमिनाथजी रे पासस्वामी रे बणारसी राय कै ॥७॥
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यां नगर्यां प्रभू जनम लह्यो रे वीस प्रभू जगदीस ए गिरि सहू शिव पामिया रे काउसगध्यान वीस महीश कै ॥८॥
ढाल ३ । आदर जीव० ए देशी ||
श्रीवीस जिनेशर सीधा इण गिरि गणधर साधु अनंतजी इण ठामै वलि सीझसी अनंता भासै इम भगवंतजी
श्रीवीसजिनेशर० १
चैत्र सुदी पंचमी दिन सीधा अजित संभव जिनरायजी उज्वल याने घरी काउसग्गे अजित ( समेत ? ) शिखर गिरि आयजी
श्री०
अभिनंदन जिन चोथा स्वामी अष्टमी सुदि वैशाखजी इण ठामै शिव संपति पामी करी आगमनी साखजी
श्री० ३
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- अनुसंधान-२२
पांचमा सुमतिजिनेशर साहिब चैत्र शुकल नवमी जाणजी । मिगसर वदि इग्यारस सीधा पद्मप्रभू निरबाणजी श्री० ४ फागुण वदि सातमी दिन ईहां सातमा श्रीसुपासजी चंद्रप्रभू भादव वदि सात्युं सीधा सकल विलासजी श्री० ५ सुविधिनाथ भादौ सुदि नौमी करी काउसगध्यानजी इण तीरथ महिमा बहु जाणी लह्यो परम कल्याणजी श्री० ६ जयता सीतल सीवो (?) दसमा शीतलनाथजी बदि बैशाखे द्वीतिया दिवसै ध्यावै काउसग साथजी श्री० ७ श्रेयकरी महियलमै विचरै इग्यारमो श्रीश्रेयांसजी श्रावण वदि दिन तीज जिनेशर लह्यो मुक्ति अवतंसजी श्री० ८ विमलनाथ अषाढ वदि दिन सप्तमीयें शुभ वारजी समेतशिखर गिरि काउसग्ग धरिकै पाम्या मुक्ति उदारजी श्री० ९ चउदसमा श्रीअनंत जिणंदा मेघाडंबर ट्रंकजी सुदि चैत्री पंचमी दिन सीधा धरि मन ध्यान अचूकजी श्री० १० धर्मनाथजी धर्म वधार्यो वारी भव जगकूपजी ज्येष्ट सुदी पंचमी इण ठांमै पांम्यां सिद्ध स्वरूपजी श्री० ११ अचिरानंदन चंदन सीतल संतनाथ सुखकारजी तेरस ज्येष्ट वदीने दिवसै शिवसुख पाम्या सारजी श्री० १२ वदि वैशाखै पडिवा दिवसै कुंथुनाथ जिनरायजी अविचल पद पाम्या इहां आवी वंदु तेहना पायजी श्री० १३ सुदि मृगसिर दशमी दिन सीधा श्रीअरनाथ महंतजी फागुण सुदि बारस दिन कीधो मल्लिनाथ भवअंतजी , श्री० १४ ज्येष्ट वदी नवमी मुनिसुव्रत सीधा इण गिरि ठामजी .... नमिजिन दशमी.. वदि वैशाखै करियै तास प्रणामजी श्री० १५ पारस आस सफल करो मेरी सांवलिया पास जिणंदजी:श्रावण शुदि अष्टमी दिन पाम्या परम पदारथ छंदजी श्री० १६
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गिरवो तीरथ महिमा मोटी (टो) एहना गुण है अपारजी विन केवलियै कुण कहिवायै उत्तम तीरथ सारजी
ढाल ४ चोपईनी ॥
गुणरयणायर एह सुठाण भिन भिन साधूनी संख्या जाण शिखरै श्रीजिन साधु संथार जे सीधे ते सुणो उधा (दा) र सिद्ध वर कूटै एक हजार तीरथमहिमानें वरताय पदपंकज प्रणमूं नितमेव
बीजा जिन संगै अणगार सीधा एह शिखरगिरि आय साधु सहस संग संभवदेव तिण करवी इण तीरथ सेव साधु सहस चोथा जिनराय आनंद कूटै शिवपद पाव सिद्धक्षेत्र ए उत्तम जाण अजरामर दाता सुखखाण अविचल ट्रंकै सुमतिजिणंद सहस साधु संगै सुखकंद शुभ कैलाशशिखर शिवठाम त्रिविधै पूजी करुं प्रणाम साधु तीहोत्तर सीधा साथ मोहनकूट पदमप्रभूनाथ पुहवीनंदन स्वामी सुपास साधु पांचसै टूक प्रभास चंद्रप्रभू जिन वंदो वली ललीतकूट ईशानें वली थिरपद सहस संघातें लहै शिवपद पामी मन गहगहै सुविधि सुप्रभकूट वखाण मुनि सहस्र संगे लीधो निरबाण तेहना नित प्रति वंदो पाय ते दुरगति टाली शिवगति जाय ८ वलि शीतल श्रेयांस सुखकार विद्युतकूट- संकुलकूटै सार साधु सीधा एक हजार प्रणमो मन धरी भाव अपार विमल अमल पद तीजै लहै निरमलकूट तीरथ इम ठहै साधु जिन संग षटशत जाण ते वांद्यां होय करमकी हांण अनंतनाथ चौदमा जिनराय सातसे संगै मुक्तिपद पाय स्वयंभूकूट पर थयो निरबाण वंदो तीस्थ ते हित आण
१. चोथी पंक्ति प्रतमां नथी लखी.
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१
श्री० १७
४
७
१०
११
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अनुसंधान-२२ धर्मनाथ जिन शासन देव दत्तवरकूट तिण काजै सेव ऋषी अष्टसै संघातें मुक्तिपद लह्यो तिण कारण निरबाणभूमी कह्यो
१२ शांतिनाथ नवसै मुनि संग कूट प्रभासै लह्यो पद रंग तिण कारण ए तीरथ करो स्वर्गपुरीको सै दीवडो कुंथुनाथ एह गिरिवर सीध ज्ञानधरकूटै अणसण लीध सहस साधु संगें शिव गया तेहतणा जग नाम ज थया मुक्ति लहै श्रीअर सुखकार सहस साधु संगे परिवार नाटक नाम कूट ते ठाम वंदं ए गिरि उत्तम धाम परमदयानिधि मल्लीनाथ साधु पांचसै सीधा साथ जाणी ए गिरि उत्तम ठांण सबल कूट भूमी निरबाण करुणानिधि मुनिसुव्रत ईस दस शत साथै साधु जगीस निर्जरकूट कियो विश्राम इण गिरि पाम्या अविचल धाम १७ प्रणमुं नमिजिन चित्त उमंग सहस एक मुनिवर ले संग कूट मित्रधर सोहै भलो ते निरबाण त्रिभुवन तिलो संगें श्रीसांवलिया पास तेतीस केवली कीधा उल्लास स्वर्णभद्रकूटै तज देह तिणथी मोटो गिरिवर एह अविचल पद पर्वत अवतार दुर्गति तिमिरहरण दिनकार नित नित प्रणमुं हुं तिहुंकाल फल्या मनोरथ मंगलमाल २० श्रावक श्राविका साधु निग्रंथ समेतशिखरगिरि मुक्ति सुपंथ ध्यावै पावै अजपाजाप दूर करै सहु संचित पाप २१
___ ढाल ५ नमो रे श्री० ए देशी ॥ सोहै गुणमणिलाल शिखरगिरि प्रवर तीरथ शुचि एह रे एहवो सुथानक जगमै न कोई भवारण मुक्ति एह रे समे०१ समेतशिखरगिरि भावै वंदो वंदत नंदो चिरकाल रे भेट्या मेटै फेरन भवका पूज्यां पाप पखालै रे समे०२
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पूरब भवें पाप बंधी आया इह भव बांध्या होय रे । ते आलोयणथी छूटेवा सूत्रानुसारें जोय
रे
समे०३ वीसस्थानिक इहां आवीनें तप उच्चारण कीध रे विधिसहित किरिया करै तीर्थंकर गोत्र वलि लीध रे समे०४ पूरब पछिम दक्षिण उत्तर ट्रॅक सोहै मध्य भाग रे कूण विदिस प्रतें जइ छै नमुं हूं चित्त धरि राग रे समे०५ धन धन तपगच्छ राजवी श्रीविजयधरमसूरिंद रे तेह राजें कुलमंडणो तसु श्रावककुलचंद रे समे०६
ओसवंश बिभूषण कुल में संघवी सुकालचंद साह रे देहरो कराव्यो गिरिसेहरो चित्ते आणी उमाह रे स० ७ संवत् अढारें पचवीस में माह सुकल शुभ मास रे सांवलिया तेवीसमो ___ थापी श्री प्रभू पास रे स० ८ ट्रंक रलियामणो ऊपरै कीधुं देहरो वीसुं ठाम रे | नवो उधार तेणे करायो राखी टेक अरु नाम रे स० ९ आठ जोयण विस्तारमै तीरथ तेह प्रमाण रे ऊचो जोयण पुण एक छै अति उत्तम सुथांन रे स०१० कदली आम्रतरु घणां जिहां कर जोडी सुरवेल रे झाड झंगी अति मोटडी सुर मांडै रंगरोल रे स०११ नदियां नाला सोहामणा झरै नीझरणा अनेक रे जात्रीजन पूछे उतर्या जल वरसै ए टेक रे स० १२
ढाल ६ मेंदी रंग लागो - ए देशी ॥ स्वर्ग अपवर्ग ते सही समेतशिखर गिरि एम, तीरथ रंग लागो नैन सलूनें निरखने लागो रंग मेंहदी जेम तीरथ० मन उलट धरी में करी जात्रा शुद्ध करी भाव ती० चिहुं दिस तीरथ निरखिया रे हुवो मन अति उछाह ती० २ जाई जुई मोगरा रे चंदनतरु चंपो वेल ती०
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6m 5
. अनुसंधान-२२ अगर सुगंध महकै घणो रे सोहै शिखरगिरि सैल ती०३ खालनाल. खोअल वडी रे, विकट मनोहर वेड ती उत्तंग मगन सेंजडी रे परबत पद रहेड ती० ४ नवपल्लव तरु शोभता रे जंबू जंभीरी सहकार ती० तोता चातक मधुर स्वरै रे कोकिल करै टहुकार ती० संघ सज्जन सहु उता. रे. मधुवन केरे मझार ती० । पूरै मनोरथ मन तणा रे वरत्या जय जयकार ती० . सयण सनेही निज घरे रे ... सुख सहित भरपुर ती० संघ सहू घर आवियो रे . करम कीया चकचूर ती० ७
ढाल ७ || . .. इण कलिकालें परचा पूरण संकट चूरण मारी जी ... श्रीसमेतशिखरगिर दिनकर तेजै शिव अधिकारी जी १ इंद चंद दिणंद सबे मिल सुरकुमार हुऽ अमारी जी(?) । सुर नर मुनिवर संघ चतुर्विध भवियणनें हितकारी जी २ ग्रहगण मांहै मोटो सूरज तिम ए तीरथ भाष्यो जी मंत्र जंत्र घणाइं जगमें . वडो नवकार ज दाष्यो जी ३ सकल सुगिरिवर अधिपति मेरु धीरज तेणें राख्यो जी :समय परंपराने अनुसारे अनुभव वृद्धि रस चारव्यो जी ४ रमणअ (मणुअ?) तिरय सुरगति अधिकी, सहुथी मुक्ति वखांणी जी मानसरोवर उत्तम पंखी अवर ते समधा(?) जाणीजी ५ ए तीरथ जिण नहि वंद्या पूज्या ते दुर्भाग्य जन प्राणी जी पूजो (जे) वंदै नर भव भावै विनय अधिक चित्त आणीजी ६ जिनमत सूत्र सिद्धांत चरित्रै . जिन पंचांगी माहै जांण्योजी जूजूवा ते दिन श्रीजिन सीधा मुनि संग संबंध वखांण्यो जी ७ कुमती ते पिण सुमती वरज्यो शुद्ध श्रद्धा चित धरज्यो जी देव गुरु धर्म तत्त्वें लहीज्यो श्रद्धा ते अनुसरज्यो जी
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January-2003 संवत अठारै संतालीसें दशमी वदि असाह(ढ?) प्रसीधो जी श्रीसमेतशिखरगिरि रास रूवडो नगरी विसालोमें कीधो जी. ९ . संघ चतुर्विध भवियण हेतै भणतां शिवसुख लीधोजी शुभ भावें संवेग धर सुणस्यै जात्रा सफल तसु सीधो जी १० नमें नेन गगन में भानु(?) तपगच्छ तेजें साजें जी सुरतरु जेहवा प्रगट्या सूरि श्रीविजयसेनगुरुराजें जी वाचक श्रीऋद्धिविजय गुरु श्रीभावविजय गुरु गाजैजी तास सीस पंडित गुणजलनिधि मानविजय गुरु छाजैजी १२ तसु पद पंकज भमर तणी पर गुलाबविजय गुण गाव्यौजी गायो रास शिखरगिरि केरो सुणतां अतिसुख पायो जी रोमरोमांचित हरष धरी सब संघ सुणी मन भायो जी जे भवियण भणस्यै गुणस्यै तस घर नवनिधि पायो जी १४
इति श्री शीषरगिरराश संपूर्णम् ॥ श्रीसुभं भवतु श्रीरस्तु कल्याणमस्तु ।।
शब्दकोश
ढाल कडी
०
संघपतिमाल यात्रासंघ काढे ते संघपति, तेने पहेराववानी
माला
&
छेह रि छ'री' (एकाहारी, भूमिसंथारी, पादचारी,
ब्रह्मचारी, शुद्ध सम्यक्त्वधारी,
सचितपरिहारी) ईर्या गति-चालवानी क्रिया सर्दहणा श्रद्धा नंछणां नूंछणां . लूंछणां-ओवारणां, (रूपानाणां धरी
लूछणा-आवारा, उडाडवानी क्रिया)
3
१ १
५ ८
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१४
6
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अनुसंधान-२२ बरक वरख
___ भगवानने जोईने केटलुक न करवू,
केटलुक कर सांहमी सार्मिक सीधा सिद्ध थया सीझसी सिद्ध थशे केवलियै केवलज्ञानीए आलोयण प्रायश्चित्त खोअल - वेड वीड/वगडो रहेड - समय शास्त्र/सिद्धांत मणुअ तिरय मनुष्य तिर्यंच
2
३ ४
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४
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स्वाध्याय
'ललितविस्तर' ए हरिभद्राचार्यनो एक गंभीर अने मान्य शास्त्रग्रन्थ छे. थोडा वखत अगाउ तेमां पसार थवान बन्युं. ते वेळा, ते ग्रन्थमां तेओओ टांकेला अनेक दार्शनिको- मतो तेमज तेमनां वाक्यो-अवतरणो जोवा मळ्यां, जे खूब जिज्ञासोत्तेजक रह्यां. मने ए जाण नथी के आ बधां मतो - वचनो - दार्शनिको प्रत्ये आपणा दर्शनशास्त्रीओनुं ध्यान गयुं छे के नहि. न ज गडे होय ते तो केम मनाय ? परंतु आ बधां विषे जैन दर्शनशास्त्रीओए क्यांय विस्तारथी ऊहापोह कर्यो होवा, ओछामा ओछु में तो, जाण्यु नथी. शक्य छे के मारुं अज्ञान होय आ बाबते. परंतु, मने आ ग्रन्थमांथी पसार थतो हतो त्यारे ज थयेलुं के आ बधा सन्दर्भो एकवार एकी साथे प्रगट करवा जोईए. तो कोई ने कोई विद्वाननुं ध्यान खेंचाशे. परिणामे आपणने विशेष जाणकारी प्राप्त थशे ज. आवी समजण साथे आ अवतरणो-सन्दर्भो स्वाध्याय स्वरूपे अत्रे प्रस्तुत करेल छे. तज्ज्ञ विद्वानो आ सन्दर्भो विषे अभ्यासलेख, माहितीलेख आपशे तो 'अनुसन्धान'नी यात्राने बळ मळशे.
(सं.) (१) एतेऽपि भगवन्तः 'प्रत्यात्मप्रधानवादिभिमौलिकसाङ्ख्यैः सर्वथा
ऽकर्तारोऽभ्युपगम्यन्ते । “अकर्ता आत्मा" इति वचनात् ।। (पृ.६७) एवं आदिकरा अपि कैवल्यावाप्त्यनन्तरापवर्गवादिभिः आगमधार्मिकैः अतीर्थकरा एवेष्यन्ते । "अकृत्स्नकर्मक्षये कैवल्याभावाद्" इति
वचनात् ।। (७५) (३) एतेऽप्यप्रत्ययानुग्रहबोधतन्त्रैः सदाशिववादिभिः तदनुग्रहबोध
वन्तोऽभ्युपगम्यन्ते । “महेशानुग्रहाद् बोध-नियमौ" इति वचनात् ।।(८२) (४) एते च सर्वसत्त्वैवंभाववादिभिबौद्धविशेषैः सामान्यगुणत्वेन न
प्रधानतयाऽङ्गीक्रियन्ते । “नास्तीह कश्चिदभाजनं सत्त्वः' इति वचनात् ।।
(८६) (५) एतेऽपि बाह्यार्थसंवादिसत्यवादिभिः साङ्कृत्यैः उपमावैतथ्येन
(२)
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निरुपमस्तवार्हा एवेष्यन्ते । "हीनाधिकाभ्यामुपमा मृषा" इति वचनात् 11 (93)
(६) एते चाऽविरुद्धधर्माध्यासवादिभिः सुचारुशिष्यैः विरुद्धोपमाऽयोगेनाभिन्नजातीयोपमार्हा एवाभ्युपगम्यन्ते । "विरुद्धोपमायोगे तद्धर्मापत्त्या तदवस्तुत्वं" इति वचनात् ॥ ( ९८ )
(७) एतेऽपि यथोत्तरं गुणक्रमाभिधानवादिभिः सुरगुरुविनेयैः हीनगुणोपमायोग एवाधिकगुणोपमा इष्यन्ते । "अभिधानक्रमाभावेऽभिधेयमपि तथाऽक्रमवद् असत्" इति वचनात् ॥ (१०७)
(८) सिद्धं चैतत् प्रवृत्त्यादिशब्दवाच्यतया योगाचार्याणां "प्रवृत्तिपराक्रमजयाऽऽनन्द-ऋतम्भरभेदः कर्मयोगः" इत्यादिविचित्रवचनश्रवणात् ।।
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(१६६)
(९) उक्तं चैतदन्यैरप्यध्यात्मचिन्तकैः । यदाह अवधूताचार्य: "नाप्रत्ययानुग्रहमन्तरेण तत्त्वशुश्रूषादयः, उदकपयोऽमृतकल्प-ज्ञानाजनकत्वात् । लोकसिद्धास्तु सुप्तनृपाख्यानकगोचरा इवान्यार्था एव" इति ॥ (१७२) (१०) इष्यते चैतदपरैरपि मुमुक्षुभिः । यथोक्तं भगवद्रोपेन्द्रण "निवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ धृतिः, श्रद्धा, सुखा, विविदिषा, विज्ञप्तिरिति तत्त्वधर्मयोनयः । नाऽनिवृत्ताधिकारायाम् । भवन्तीनामपि तद्रूपतायोगात् " इति ॥
"
(१७८)
(११) एते च कैश्चिदिष्टतत्त्वदर्शनवादिभिः बौद्धभेदैः अन्यत्र प्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा एवेष्यन्ते । " तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु" इति वचनात् ॥
(२१०)
(१२) एतेऽप्याजीविकनयमतानुसारिभिः गोशालकशिष्यैः तत्त्वतः खल्वव्यावृत्तच्छद्मान एवेष्यन्ते । "तीर्थनिकारदर्शनादागच्छन्ति" इति वचनात् ॥ (२२०)
(१३) एतेऽपि कल्पिताविद्यावादिभिः तत्त्वान्तवादिभिः परमार्थेनाजिनादय एवेष्यन्ते । " भ्रान्तिमात्रमसदविद्या" इति वचनात् ॥
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55 (१४) एते चावतकालकारणवादिभिः अनन्तशिष्यैः भावतोऽतीर्णादय एवेष्यन्ते ।
"काल एव कृत्स्नं जगदावर्तयति" इति वचनात् ॥ (२२८) (१५) एतेऽपि परोक्षज्ञानवादिभिः मीमांसकभेदैः नीत्या अबुद्धादय एवेष्यन्ते।
"अप्रत्यक्षा च नो बुद्धि, प्रत्यक्षोऽर्थः" इति वचनात् ॥ (२३१) (१६) एतेऽपि जगत्कर्तृलीनमुक्तवादिभिः सन्तपनविनेयैः तत्त्वतोऽमुक्तादय
एवेष्यन्ते । "ब्रह्मवद् ब्रह्मसङ्गतानां स्थितिः" इति वचनात् ।। (२३७) (१७) एतेऽपि बुद्धियोगज्ञानवादिभिः कापिलैः असर्वज्ञा असर्वदर्शिनश्चेष्यन्ते ।
"बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते" इति वचनात् ॥ (२४४) (१८) एते च सर्वेऽपि सर्वगतात्मवादिभिः द्रव्यादिवादिभिस्तत्त्वेन सदा
लोकान्तशिवस्थानस्था एवेष्यन्ते । “विभुर्नित्य आत्मा" इति वचनात् ।। (२६०) (आधारभूत सन्दर्भ : ललितविस्तरा, सटीका.
हिन्दी अनुवाद सहिता : प्रकाशक : दिव्यदर्शन साहित्य समिति, अमदावाद
ई. १९६३, वि.सं. २०१९)
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ग्रन्थावलोकन
इतिहासना अज्ञात प्रदेशमां स्वैरविहार 'निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख समुच्चय'
मुनि भुवनचंद्र इतिहास आलेखननी आधुनिक पद्धति भले अंग्रेज / जर्मन विद्वानो थकी आविष्कार पामी होय, पण हवे ते विश्वभरमां मान्य पद्धति बनी चूकी छे. आजनो इतिहासकार मात्र चरित्रो, कथाग्रंथो के रासोना आधारे इतिहास लखतो नथी. प्रमाणभूत इतिहास माटे आंतरिक अने बाह्य प्रमाणोनी आवश्यकता आजे सुस्थापित थई चूकी छे; तुलना अने पृथक्करण-विश्लेषण पण जरूरी छे. प्रमाणोनो स्रोत मात्र साहित्यमां-लिखित रूपमां ज सीमित नथी होतो. लिखित उपरांत शिलालेखो, ताम्रपत्रो, प्रतिमालेखो, सिक्काओ, पुरातात्त्विक निष्कर्षों, वैज्ञानिक परीक्षणो- आ बधुं पण इतिहासकारे तपासवू पडे. लिखित सामग्रीमां पण केटलुं वैविध्य होय छे ! मात्र इतिहासग्रंथो ज नहि, हस्तप्रतोनी प्रशस्तिओ, पुष्पिकाओ, प्रवासवर्णनो, लोकगीतो, दस्तावेजो, दंतकथाओ वगेरेमां पण इतिहासना अंशो विखरायेला पड्या होय छे. आवा विभिन्न स्रोतोमां इतिहासकारे नजर दोडाववी पडे छे, भूगोळ-खगोळ के तत्त्वज्ञान-फिलोसोफी जेवा विषयोनो पण परिचय इतिहासकारे राखवो पडे. क्यारेक सैद्धांतिक उल्लेखोना आधारे कोई व्यक्ति के घटनानो समयनिर्णय थयो होय एवा दाखला छे. इतिहासकारनी पासे भाषा, व्याकरण अने साहित्यनी विविध शाखाओ- पण उच्च कक्षानुं ज्ञान होवु जोईए. आ बधाथी उपर, प्रबळ स्मरणशक्ति तथा फळद्रूप कल्पनाशक्ति पण होवा जोईए. दरेक क्षेत्रमा आजे तो विश्वभरमां संशोधको शोधकार्य करता ज रहेता होय छे. इतिहासविद जो आ बधाथी माहितगार न होय तो तेनुं शोधकार्य नबळु ज रही जाय. प्रमाणभूत इतिहासना संशोधन माटे आवी ने आटली सज्जता अपेक्षित होय त्यारे उच्च कक्षाना इतिहास संशोधको के लेखको ओछा होय ए देखीतुं छे.
___ जैन इतिहासनी वात करीए तो आधुनिक पद्धतिए इतिहासमुं आलेखन
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सोएक वर्षथी शरु थयुं छे. मोटा गजाना इतिहास-संशोधकोए इतिहासना घणा बधा कोयडा उकेल्या छे, इतिहासनी पुष्कळ सामग्री एकत्र करी छे. आम छतां, इतिहासमां उमेरवा जेवू हजी घणुं बाकी रहे छे. पुण्यविजयजी, जिनविजयजी, नाथूराम प्रेमी, मोहनलाल द. देसाई, पूरनचंद नाहर, अगरचंदजी नाहटा, जयंतविजयजी, विजयेन्द्रसूरि, पं. सुखलालजी, पं. बेचरदासजी, दरबारीलाल कोठिया जेवा पुरोगामीओए ऐतिहासिक तथ्यो एकत्र करवानुं अने इतिहासना अंकोडा मेळववानुं कार्य कर्यु छे, छतां तेमना समय पछी बहार आवेली नवी सामग्रीना आधारे इतिहासना परिष्कार--परिमार्जननुं कार्य तो ऊ| ज छे.
इतिहासना कंटाळाजनक अने पडकाररूप क्षेत्रे प्रवृत्त होय एवा थोडा सारा संशोधको सद्भाग्ये आजे पण छे. प्रा. मधुसूदन ढांकी आवा एक समर्थ-सुसज्ज-संनिष्ठ, तीक्ष्ण दृष्टि धरावता, बहुमुखी प्रतिभावाळा इतिहासविद छे. एमनुं कार्यक्षेत्र व्यापक छे. आनंदनी वात ए छे के जैन इतिहासना संशोधनने एमणे पोताना कार्यक्षेत्रमा समाव्युं छे. जैन इतिहास विषयक तेमना लेखोनो संग्रह 'निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख समुच्चय' एवा नामे बे भागमां हमणां ज बहार पड्यो छे. आ लेखोनुं परिशीलन करतां कोईने पण लागशे के श्री ढांकीना रूपमां एक समर्थ, जवाबदार इतिहासकार आपणने सांपड्या छे. १९६६ थी शरू करी अत्यार सुधीमां लखायेला ५६ जेटला लेखो - निबंधो आ ग्रंथमां प्रकाशित थया छे. इतिहास संबंधित सामग्रीथी आ ग्रंथ ठसोठस भरेलो छे. विषयवैविध्य, रजुआतनी शैली, शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टिकोण अने लेखकनी सज्जता - आ बधं अहीं नेत्रदीपक बनी आपणी सामे आवे छे. उपर जेनी चर्चा करी छे ते कार्य अर्थात् बहार आवेली ने आवती रहेती नवी सामग्रीना आधारे इतिहास, परिमार्जनकार्य आजे पण चालु छे एवो संतोष श्री ढांकीना आ बे ग्रंथ जोईने जरूर थाय.
इतिहासनी शोधमां नानी नानी विगतो केवो मोटो भाग भजवे छे अने एवी विगतोनो समन्वय करवामां केवा कौशल्यनी जरूर पड़े छे, ए वात आ संग्रहमांनो एक-एक लेख जोतां वाचकने सारी रीते समजाशे. लेखो एटला तो सुग्रथित रूपे लखाया छे के संशोधनात्मक इतिहासलेखनना आदर्श
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अनुसंधान-२२ नमूना तरीके काम आवी शके. 'जीर्णदुर्ग - जूनागढ विशे' (खंड-१, पृ. १९०), 'स्वामी समन्तभद्रनो समय' (खंड-१, पृ. २८), वादी कवि बप्पभट्टिसूरि' (खंड-१, पृ. ५९), 'सिद्धराजकारित जिनमन्दिरो' (खंड-२, पृ. १२२) आदि लेखो इतिहासना विद्यार्थी माटे पाठ्यपुस्तकनी गरज सारे एवा सुबद्ध, समृद्ध लेखो छे. शक्य एटली बधी ज विगतो एकत्र करवी, तेना पर तुलनात्मक विचार चलाववो, नवां प्रमाणो द्वारा तेनुं खंडन के मंडन करवू, शक्य विरोधो स्वयं प्रस्तुत करी तेनुं निराकरण पण पूरुं पाडवू -- आ बधुं विस्तृत अने विगतप्रचुर शैलीओ थयेलुं आ लेखोमां जोवा मळशे.
'नामूलं लिख्यते किञ्चित्' - 'आधार विनानुं कंई पण न लखवू' - ए शास्त्रीय नियमने श्री ढांकी कठोरपणे अनुसरे छे अने आधारो -- प्रमाणो शोधवानो जे श्रम करे छे ते विरल कक्षानो छे. आमां एमनी बहश्रुतता, प्रखर स्मृति शक्ति अने विषय परत्वेनी निष्ठा जणाई आवे छे. लेखो तो माहिती सभर छे ज, लेखांते जोडेलां टिप्पणो पण विस्तृत छे - क्यांक क्यांक तो ५.-१० पानां सुधी लंबाय छे. मीनळदेवी, खरुं नाम मैळलदेवी हतुं ए विधानना टेकामां छेक कर्णाटकना अभिलेखोनो आधार लेखक रजू करे छे (खंड-१, पृ. १३५); 'वालीनाह' व्यन्तरना मूळ नाम विशे दन्तकथा, साहित्य, लोकरूढि, शिल्पशास्त्र जेवा विभिन्न स्रोतोमांथी आधारभूत सामग्री आपे छे. लेखकनी शोध केटली व्यापक छे तेनां आवां दृष्टान्तो ग्रन्थमा ठेर ठेर जोवा मळे छे.
इतिहासकारो पण मानवो होय छे, मानवसहज प्रमाद, पूर्वग्रह के असूयाना प्रभाव हेठळ क्यारेक लेखकना हाथे इतिहासने अन्याय थई जतो होय छे. पोताना समकालीनोनी के पुरोगामीओनी आवी क्षतिओ शोधवानीसुधारवानी कडवी फरज पण इतिहास-लेखके क्यारेक बजाववानी थाय छे. श्री ढांकीने पण आवं कर पड्युं छे. 'सिद्धराजकारित जिनमन्दिरो' (खंड२, पृ.१२२) लेखमां आq थयुं छे. पुरोगामी विद्वाननां विधानोनो सचोट प्रतिकार करवामां लेखके जरा पण कसर छोडी नथी, ते साथे ए विद्वानना प्रदान अने अन्य विशेषताओनो मानभेर उल्लेख करवा- लेखक चूकता नथी. 'स्वामी समन्तभद्रनो समय' (खंड-१, पृ. २८) लेखमा पूर्वग्रहग्रस्त विद्वानोना
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तर्कोनां छोतरां उखाडती श्री ढांकीनी दलीलो कटाक्ष-आदर-पडकारना मिश्रणथी रोचक बनी छे, पण रुचिभंग नथी करती. तारंगाना अर्हत् अजितनाथ प्रासादना कर्ता विशे बे समकालीन विद्वानोनी आलोचना करतो लेख (खंड-२, पृ. १६९) इतिहासकारना उत्तरदायित्वनी छबी प्रस्तुत करे छे. इतिहासमां अटकळ पर आधार न ज राखी शकाय, नक्कर तंथ्यो ज सर्वोपरि बनी रहेवां जोईए ए मुद्दो आ लेखमां सारो तरी आवे छे.
श्री ढांकी शिल्प-स्थापत्य-पुरातत्त्वना विशेषज्ञ छे तेथी जिनमन्दिरो अने शिल्पोना संशोधनमा तेमनी दृष्टि विशेष काम करे छे. ग्रंथनो बीजो खंड शिल्प-स्थापत्य-मंदिर विषयक लेखोथी भरचक छे. द्वितीय खंडना अंते चित्रविभागमां मोटी संख्यामां शिल्प-मूर्ति आदिनी छबीओ अपाई छे, जे नजराणां समान छे.
_ 'गौतमस्वामी स्तव'ना कर्ता वज्रस्वामी विशे लेखमां, प्रशस्तिलेखना वाचनमां एक आंकडो छूटी गयानी कल्पना अने तेना समर्थनमां आधारो आप्या छे ते तेमना जेवा आ क्षेत्रना सुदीर्घ अनुभवीने ज सूझे एवी वात छे. 'चिकुर द्वात्रिंशिका'ना कर्ता कुमुदचन्द्र दिगंबर विद्वान छे अने 'कल्याणमन्दिर'ना कर्ता पण ए ज छे, सिद्धसेन दिवाकर नहि, आना समर्थनमा सुन्दर तर्कश्रेणि लेखके आपी छे. 'प्रभावकचरित' (खंड-२, पृ. ९५)नी एक खूटती कडी लेखके आबाद शोधी काढी छे. कल्याणत्रय (खंड-१, पृ. २२६) प्रकारनी शिल्परचना उपर आ ग्रन्थमां पहेलीवार प्रकाश पाडे छे.
मुद्रण, कागळ अने सजावटथी सुंदर तथा चित्रविभागथी समृद्ध एवा आ ग्रन्थमां प्रूफवाचननी क्षतिओ जो के रही छे. संस्कृत-प्राकृत सामग्रीमां आवी अशुद्धिओ वधारे प्रमाणमां छे जे आ कक्षाना- ग्रंथमां बाधारूप बनी शके छे, ०पण्णरस-चास (खंड-१,पृ.९४)-अहीं चास ने स्थाने 'वास' साचो शब्द छे. दलसंचनियं (खंड-१, पृ.२४), 'तेओ' (खंड-१, पृ.३३), "किं भणियो जाणडज्ज' (खंड-१, पृ. ६७) जेवी अशुद्धिओ अन्य पण घणी छे. खंड-१, पृ. २६० पर आपेला 'रैवतगिरिस्तोत्र'मां आवी भूलो .सारा प्रमाणमां रही छे, तेमांनी केटली प्रूफवाचननी अने केटली हस्तप्रतवाचननी हशे, ते तो
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लेखक ज कही शके. 'वीतरागस्तुति 'नो छंद भुजंगप्रयात जणाव्यो छे (खंड१, पृ. २५५) पण ते वसन्ततिलका छे. क्यांक गेरमार्गे दोरे एवी भूलो पण छे : प्रथम खंडना प्रथम लेखना टिप्पण क्रमांक- २मां 'आचारांग - प्रथम स्कंध : ईस्वी ४३० - ३००' एम छपायुं छे. अहीं 'ई.स.पूर्वे' एम होवुं जोईतु हतुं. बंने खंडोमांना लेखोने अनुक्रममां क्रमांक अपाया छे पण ग्रन्थमां लेखनां शीर्षको साथे क्रमांक अपाया नथी. आ एक अगवडरूप बने एवी क्षति छे.
व्यक्तिनामो, स्थळनामो अने ग्रन्थनामोनी अकारादि सूचि बने भागमां ग्रन्थान्ते आपी छे. ऐतिहासिक संशोधनना कार्यमां आ सूचिओ विद्वानोने सहायक नीवडशे. लेखोना अंते टिप्पणोमां लेखकना विशाळ अवगाहननी साक्षी पूरती ढगलाबंध आनुषंगिक माहिती संगृहीत छे. इतिहासना विद्यार्थीओने आमांथी माहिती अने दृष्टि - बंने मळे ओम छे. टिप्पणोनां विशेषनामोनी पण अकारादि सूचि होय तो खूब उपयोगी बने, पण एकदाच शक्य नथी बन्युं. बने खंडमां श्री हरिप्रसाद गं. शास्त्रीना अवलोकनलेखो छे. प्रा. बंसीधर भट्टनो आमुख प्रथम खंडने प्राप्त थयो छे.
ग्रंथना वांचनमांथी पसार थतां जे थोडुंक नजरमां आव्युं ते पूर्तिरूपे नोंधवानी लालच रोकी शकतो नथी. खंड - १, पृ. १६, टि. २मां 'नोकार' परथी 'नोकारसी' शब्द उतरी आव्यानुं जणाव्युं छे पण अ शब्द 'नमुक्कारसहियं' नोकारसहियं = नोकारसी ओम उतरी आव्यो होय ओवो संभव छे. 'नमुक्कारसहियं' शब्द परचख्खाणमां आवे छे.
खंड-२, पृ. ६३, लेख क्र. २मां लुणाग० छे ते लूणीग होवानो पूरेपूरो संभव छे. 'णी' णा जेवो वंचाय अवुं जूनी लिपिमां बनतुं होय छे. खंड-२, पृ.८३, प्रकृता समर्पिता च- आ श्लोकमां समर्पिता नहीं पण समर्थिता मूळ प्रतिमां हशे समर्थिता ओटले पूरी करी. सम् + अर्थ धातु समाप्तिना अर्थमां प्रयोजातो हतो. लिपिनी विचित्रताने कारणे थि अर्पि वच्चे गुंचवाडो हस्तप्रतवांचनमां थतो होय छे.
खंड-२, पृ. २००, टि. पांचमां लेखके 'निज दैता' नो अर्थ शुं
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करवो अवो प्रश्न कर्यो छे. 'दयिता' शब्द ज भ्रष्ट रूपमा अहीं 'दैता' थयो छे. ललितादेवी वस्तुपालनां पत्नी हतां, ओ सन्दर्भ पण अहीं मार्गदर्शक बने छे.
. 'निर्ग्रन्थ तिहासिक लेख समुच्चय' ग्रंथमां श्रीमधुसूदन ढांकीनी विषयनिष्ठा तथा क्षमतानां दर्शन तो थाय ज छे, साथे साथे शुष्क विषयने रसिक बनावती शैली, मानवीय पासाने स्पर्शती दृष्टि, क्यांक गंभीरता तथा क्यांक- रमूजना छांटणां धरावतुं तेमनुं गरवू गुजराती गद्य वाचकना मनमां श्री ढांकीना प्रफुल्ल-प्रखर व्यक्तित्वनी छाप उपसावी जाय छे. प्रस्तुत ग्रन्थ जैन इतिहासना केटलाय बिन्दुओ पर प्रकाश पाथरे छे. ग्रन्थy वांचन दूर दूरना इतिहासना अगोचर प्रदेशमा स्वैर विहार करी आव्या जेवी अनुभूति वाचकने करावी जाय छे.
इतिहासना अटलाय बिन्दुओ पनी छाप उपसावाला गद्य वाचकना माता तथा
★ निर्ग्रन्थ ऐतिहासिक लेख समुच्चय-खंड १, लेखक : मधुसूदन ढांकी,
प्रथम आवृत्ति, २००२, पृ. डेमी आठपेजी ३४८ + २४, मूल्य : रू. ४००. खंड-२, प्रथम आवृत्ति, २००२, पृ. डेमी आठपेजी ३०४ + २० +८० आर्टप्लेट्स, मूल्य : रू. ५००. प्रकाशक : श्रेष्ठी कस्तूरभाई लालभाई स्मारक निधि, प्राप्तिस्थान : शारदाबेन चीमनभाई एज्युकेशन रिसर्च सेन्टर, 'दर्शन', राणकपुर सोसायटी सामे, शाहीबाग, अमदावाद-३८०००४.
जैन देरासर नानीखाखर - ३७०४३५
जि. कच्छ, गुजरात
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अनुसंधान-२२ टूक नोंध हेमाचार्यकृत ज्ञानसार
(१) 'दुःषमाकाल श्रीसंघस्तवन'नी, अनुमानतः १८मा शतकमां लखायेली, आठ पत्रोनी एक हस्तप्रतिना ७मा पत्रनी पाछली बाजुना हांसियामां वांचवा मलतुं लखाण :
"छावट्ठी कोडीउ, तेत्तीस लखाइ इचाल सया ।
एवं सावियाणं, मझिमगाणं गुणे भणिउ ॥४॥ ६६३३००४०० एतली श्राविका ॥ इति ज्ञानसारग्रन्थे हेमाचार्यकृते ।"
आ हेमाचार्य कया ? मलधारी हेमचन्द्रसूरि हशे के कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य हशे ? 'ज्ञानसार' एवो ग्रन्थ तो आ बेमांना एक पण हेमाचार्यनो बनावेलो होवारों के मळतो होवानुं जाणवामां नथी आव्यु. तो नामफेर थयो होय अने मलधारी हेमाचार्यना रचेला अन्य कोई ग्रन्थनी आ गाथा होय तेवू बनी शके ?
(२) उपा. विनयविजयजीनी शिष्यपरंपरा विषे मुनि श्रीधुरंधरविजयजीए पाठवेली, कल्पसूत्र-बालावबोधना एक पत्रनी झेरोक्स नकलमां वांचवा मळती पुष्पिका आ प्रमाणे छे :
"श्रीविजेयहीरसूरीस्वरजी आचार्य तत् शिष्य कित्तिविजेय उपाधायजी तत् शिष्य ४ विनयविजयउपाधाय तत्सीष पं. श्री ५ पं. नरविजेय पंन्यास तत् शिष्य पं श्री ५ पं. वृधिवीजेय पंन्यास तत् शीष पं. श्री ५ पं. माणक्यविजेयगणी तत् सीष पं. श्री ५ पं. मेघविजेयगणी तत् शिष्य पं. मुक्ति वीजेजी तत् शिष पं. मोहनविजयजी भ्राता मु.रविवीजेजी भ्राता मुनी.... वीजय चेला मु. दांनविजेंजी त.चे.हेमचंदजी । संवत १८७८ ना वर्षे कार्तिक सुद १५ने वार सुक्रे कल्पसूत्र वषाण आठ संपूर्ण लखां छे वांचनार्थ । मु. तत्त्वविजयजी - घनोघबंदरे ॥'
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आ लखाण उपरथी एम समजी शकाय के विनयविजयजीनी शिष्यपरंपरा सं. १८७८ सुधी अने ८ पाट पर्यंत तो विद्यमान हती.
उपरना लखाणमां कीर्तिविजयजीनुं नाम छे त्यां मार्जिनमां अस्पष्ट लखाण आम वंचाय छे : "कीर्तिविजय उपाध्यायना गुरुभाई जन (जिन?) वीजय तेहना जसवीजें उपा... ।"
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शी.
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अनुसंधान-२२
पत्रचर्चा 'विबुध पदविज्ञप्तिना परिपत्र विषे..... थोडंक
- आ. श्रीप्रद्युम्नसूरि वीतेला दिवसोमां पासे पडेला अनुसंधानना जूना अंको - जे कदी जूना न थाय तेवा अंको हाथमां लइने जोतो हतो तेमां अनुसंधान-५मां एक जग्याए नजर अटकी गई । मूल पाठ मारा रसनो विषय हतो तेने बराबर वांचतां तेना हार्दने जाणी शकायुं तेनो आनंद थयो । पछी ए मूल पाठ उपर तेना संपादक मुनि श्री महाबोधिविजये जे पंक्तिओ लखी छे ते वांचतां ख्याल आव्यो के मूल पाठनुं हार्द आमां पामवानुं बाकी रही गयुं छे । जुदा द्रष्टिकोणथी आने जोवामां आव्यु छ । मूल वात वाचको समक्ष हजी पण मूकाय तो कदाच वर्तमान परिप्रेक्ष्यमां पण ते श्रीसंघनी परिस्थितिने समजवा - मूलववामां उपकारक बनी रहे ।
आ एक परिपत्र छ । संघव्यवस्था-गच्छव्यवस्था माटे गच्छनायकोने दिशासूझ मले तेवो परिपत्र छे। आ 'विबध'पदविज्ञप्ति विषेनो परिपत्र छ । आ परिपत्रने मुनि श्रीमहाबोधिविजयजीए विबुधजनविज्ञप्ति कह्यो छे तेथी लागे छे के तेओने आनो सन्दर्भ-पृष्ठभूमिका समजबहार रह्या छे । मने एवं लागे छे के जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि महाराजे वि.सं. १६४८(?)मां पोष वदि १०ना आ परिपत्र जाहेर कर्यो छे। त्यारे तेमना निश्रावति शिष्य-उपशिष्यनी संख्या बे हजार सुधी पहोंचेली हती - आटलो पुण्यप्रकर्ष तपागच्छने माटे घणी गौरवनी घटना गणाय । ___ आ बे हजार श्रमणो तो गुजरात-कच्छ सौराष्ट्र उपरांत आग्रा, लाहोर, राजस्थान-मेवाड जेवां विशाल प्रदेशमां विचरता-विहरता रहेता । दीक्षाओ थती। शास्त्रनुं अध्ययन-अध्यापन थतुं । योगोद्वहन करवापूर्वक आगमनो स्वाध्याय थतो। श्री भगवतीजीना सूत्रना योगनो अवसर प्राप्त थई जतां अनुज्ञास्वरूप गणिपद पण थइ जतुं । पछी आवती पंडितपदनी वात । आ पद उपाध्याय पहेलां अपातुं आ पद आपती वखते ते ते श्रमण-मुनि-साधु पासे शी शी योग्यता जरूरी गणाय तेनुं दर्शन आमां छे । अटले जे जे साधु गणिपदधारी बने तेने माटे तेमना शिष्यो, लागता-वळगता श्रावको ते गणिने पंडित पद आपवा माटे भलामण करे । आवी
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आ परिपत्रनी आ पृष्ठभूमिका छे अबुं हुं समज्यो छु । परिपत्रना अर्थविश्लेषणनी 'अनुसंधान'ना अभ्यासी वाचको माटे हुं जरूरत जोतो नथी । स्हेज विचारवाथी बधुं स्पष्ट समझाई जाय तेवू छे । आम संदर्भ समजवा आटलुं लख्युं छे ।
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अनुसंधान-२२ नवां प्रकाशनो (माहिती) (१) निर्ग्रन्थ : तृतीय अंक (ई. १९९७-२००२)
संपादक : एम.ए.ढाकी : जितेन्द्र शाह, प्रकाशक : शारदाबेन चीमनलाल एज्यु. रिसर्च सेन्टर, अमदावाद-४ ई. २००२.
सद्गत प्रो. डॉ. हरिवल्लभ भायाणीना मानमां प्रकाशित थवा निधरिलो, अने हवे तेमनी पुण्यस्मृतिमां प्रगट थयेलो आ विशेष - वार्षिक ग्रन्थ, तेमां समाववामां आवेल अंग्रेजी, गुजराती, हिन्दी, लेख-विभागोने कारणे तेमज ते लेखोनी विविधता तथा विशिष्टताने कारणे स्पृहणीय-संग्रहणीय बन्यो छे. प्रकाशक-संपादकोनी असल योजना तो 'निर्ग्रन्थ'नामना वार्षिक सामयिकने प्रतिवर्ष प्रगट करवानी हती. परंतु गमे ते कारणोसर, प्रतिवर्षे आ ग्रंथ प्रगट थई शकतो लागतो नथी. आशा राखीए के आ अनियमितता दूर थशे, अने आपणने दर वर्षे आवो रूडो रसथाल संपादको तरफथी सांपडवा मांडशे. उत्कृष्ट कागळ पर उत्कृष्ट अने सुघड मुद्रण, रॉयल साईझनां ३५० आशरे पृष्ठो, अने छतां फक्त रु. ३००/- नुं मूल्य- ए पण ग्रन्थनी विशेषता ज छे. (२) श्री आचारांग सूत्र - प्रथम अध्ययन : राजेन्द्रसुबोधनी 'आहोरी'
हिन्दी टीका. ई. २००२
हिन्दी टीकाकार : मुनि श्रीजयप्रभविजयजी; प्रकाशक : राजेन्द्रयतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन, आहोर (राजस्थान). (३) अज्ञातकर्तृक चतुर्विंशतिजिनस्वन : गुर्जर भाषानुवाद सहित
अनुवाद : स्व. साध्वी श्री सुलोचनाश्रीजी. प्राप्तिस्थान : जैन उपाश्रय पीपरडीनी पोळ, अमदावाद, वि.सं. २०५८
संस्कृत भाषानिबद्ध २४ स्तवनो अनोखा प्रकारनी रचना छे. प्रत्येक स्तवनमां नवा नवा विषयो-भावोनुं गुंफन जे रीते थयुं छे ते जोतां रचनार कोई नीवडेला विद्वान्, कवि, साधक साधु होवा जोईए तेवू अनुमान थाय. ते स्तवनोनो अर्थबोध-भावबोध बाल जीवोने थाय ते हेतुथी अनुवादिकाए यथामति अनुवाद आलेख्यो छे. उपलक अवलोकनमां, पाठदोष क्यांक
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मालूम पड्या छे, संभव छे के ते वाचनदोष के पछी मुद्रणदोष पण होय. दा.त. पृ. ४९ पर “आज्ञाऽपायश्च" पद छे, त्यां "आज्ञा ह्यपायश्च" के "आज्ञा त्वपायश्च" एम होय तो छंदोमेळ सचवाय छे. पृ. ७० पर "यद्विभ्रमां "... "रजः स्वभावां" एम छे त्यां घणा भागे "यद्विभ्रमान्" ...... "रजः स्वभावान्" एम होवू जोईए. प्रकाशन खूब उपयोगी. (४) जैन दर्शनमां नय : डॉ. जितेन्द्र बी. शाह. प्रकाशक : भो.जे.
विद्याभवन, अमदावाद, ई. २००२
शेठ पो.हे. अध्यात्म व्याख्यानमालामां अपायेला त्रण व्याख्यानोनो संग्रह धरावतुं पुस्तक, नयना जिज्ञासुओ माटे उपयोगी थई पडे तेवू छे. भाषा गुजराती. (4) Dr. Harivallabh Bhayani : A man of Letters
by Mahesh Dave - Ramesh Oza, Image Publications Pvt. Ltd. Mumbai, Ahmedabad. 2002 A.D.
सद्गत डॉ. हरिवल्लभ भायाणीना, विदेशी संशोधक विद्वानो साथेना संशोधनपरक पत्रव्यवहारनो अंग्रेजी ग्रन्थ. विद्याप्रेमीओने संशोधनक्षेत्रनी अवनवीन जाणकारी आपतो आ ग्रंथ पठनीय तो खरो ज, पण मुद्रणकलानी दृष्टिए पण उत्तम प्रकाशन होवानी भात पाडी जतो पण ओ ग्रन्थ छे. (६) सेतुबंध :
हरिवल्लभ भायाणी अने मकरन्द दवे वच्चे थयेल पत्रव्यवहारनो ग्रन्थ. सं. विजयशीलचन्द्रसूरि. प्रकाशक : श्री हेमचन्द्राचार्य ट्रस्ट, अमदावाद, ई. २००२. मुख्य विक्रेता : नवभारत साहित्य मन्दिर, गांधी रोड, अमदावाद१, तथा प्रिन्सेस स्ट्रीट, मुंबई-२. (७) आचाराङ्ग सूत्र : अक्षरगमनिका(संस्कृत)युक्तम् १-२. गमनिकाकर्ता :
आ. कुलचन्द्रसूरि, प्राप्तिस्थान : दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोलका, ई. २००२.
आचारांगना मूल प्राकृत सूत्रपाठनी संस्कृत छाया जेवो शब्दार्थ आपती गमनिका, अध्येताओ माटे उपयोगी.
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अनुसंधान-२२ (८) मार्गपरिशुद्धिप्रकरणम् : सटीक.
___ कर्ता : उपा. यशोविजयजी. टीकाकार : आ. कुलचन्द्रसूरि. प्राप्तिस्थान : दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोलका. सं. २०५८ (९) दशवैकालिकसूत्रम् - तिलकाचार्यकृतवृत्तिसहितम् ।
संपादक : आ. विजयसोमचन्द्रसूरि-मुनि जिनेशचन्द्रविजयौ. प्रकाशक : रांदेर रोड जैन संघ, सूरत. ई. २००२
श्री तिलकाचार्ये आ वृत्ति वि.सं. १३०४ मां रची छे. ते आ ग्रंथरूपे प्रथमवार ज प्रकट थाय छे. आ ग्रन्थना संपादन-प्रकाशन द्वारा प्राचीन साहित्यना संशोधनक्षेत्रने नवा संशोधक मुनिवरोनी प्राप्ति थाय छे ते आनन्दनो विषय छे.
__संपादन एकंदरे उत्तम थयुं छे. जो के मुद्रणदोषोनुं प्राचुर्य तथा संशोधनात्मक ग्रन्थ माटे नितान्त अनिवार्य एवां परिशिष्टोनी ऊणप खूचे छे. तो टिप्पणो माटे थयेल चिह्नोनो उपयोग, उत्तम-सुघड छापकाम होवा छतां, वाचक माटे नडतररूप बनी रहे छे. अंको-आंकडाओनो उपयोग थयो होत तो वांधो न आवत. दरेक अध्ययनने प्रांते आवतो 'त्ति बेमि' शब्द, गाथानो अंश नथी, छतां आ संपादनमां तेने गाथाना अंशरूपे केम गोठव्यो हशे ? सूत्रनी समाप्ति बाद बे चूलिकाओ छे, तेमां "प्रथमा रतिवाक्या चूलिका" होय त्यां "द्वितीया रतिवाक्या चूलिका" छपायुं छे, ते खरेखर तो दृष्टिदोषजन्य क्षति ज गणाय तेम छे. ग्रन्थ, 'शुद्धिपत्रक' बनावीने मूकायुं होत तो खूब उपयोगी बनत.
तिलकाचार्य-वृत्तिमा केटलीक नवी नवी वातो जाणवायोग्य पण छे. ओनो अभ्यास थाय तो घणुं जाणवा मळे. दा.त. चाणक्यना प्रसंगमां सुबन्धुने 'अभव्य आत्मा' गणाव्यो छे (पृ. १५), तो स्थूलभद्र-श्रीयक-यक्षा आदिनी कथा पण केदलीक सरस नवी-बुद्धिगम्य वातो वर्णवे छे.
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नवी माहिती विदेशमा रहेली मूल्यवान जैन हस्तप्रतोना केटलोग माटे बे करोड रू नी जाहेरात करतां श्रीवाजपेयी
इन्स्टिट्यूट ऑफ जैनोलोजीना नेतृत्व हेठळ विश्वनी जैन संस्थाओना अग्रणीओनी एक मुलाकात भारतना वडाप्रधान श्री अटल बिहारी वाजपेयी साथे योजाई, जेमा जापान, सिंगापुर, नेपाळ, इंग्लेन्ड अने भारतना अग्रणीओए हाजरी आपी हती. तथा जैन असोसीएशन ओफ नोर्थ अमेरिका एन्ड केनेडा (जैना), जैन कल्चरल सेन्टर, अन्टवर्प अने विसा ओसवाळ कोम्युनिटी, केनियाना प्रतिनिधिओओ आ कार्यमा पूर्ण सहयोगना संदेशा मोकल्या हता. भारतना सांस्कृतिक मंत्रीश्री जगमोहननी उपस्थितिमा योजायेली आ सभानो प्रारंभ श्रीनमस्कार महामंत्रथी थयो. ए पछी इन्स्टिट्यूट ऑफ जैनोलोजीना लंडनना ट्रस्टी श्री महेश शाहे आ संस्थाए वैश्विक क्षेत्रे जैन दर्शनना प्रसार माटे करेलां कार्योनो ख्याल आप्यो हतो.
संस्थाना ट्रस्टी अने मानदमंत्री लंडनना श्रीहर्षद संघराजकाए विदेशमा रहेली जैन हस्तप्रतोनो ख्याल आप्यो हतो. तेमज विक्टोरिया अन्ड आल्बर्ट म्युझियम, ओक्सफर्ड युनिवर्सिटी, वेलकम ट्रस्ट वगेरेमां रहेली जैन हस्तप्रतोनी मूल्यवत्ता दर्शावी हती. ई.स. २००३मां ब्रिटीश लायब्रेरीनी हस्तप्रतोना केटलोगनो प्रथम ग्रन्थ प्रकाशित थशे तेम जणाव्युं हतुं. वळी हस्तप्रतोना केटलोक माटे संस्थाओ विकसावेला कम्प्युटर मास्टर प्रोग्रामनो ख्याल आप्यो हतो. जे प्रोग्राम विश्वभरमां स्वीकार्य छे अने इन्टरनेट परथी तेनी विगतो मळी शकशे. वळी आमांथी मूल्यवान हस्तप्रतो डीजीटाईझ करवामां आवशे. डॉ. कुमारपाळ देसाईओ आ हस्तप्रतोना कार्यथी भारतमा मन्द पडेला हस्तप्रत शास्त्रना अभ्यासने केटलो वेग मळशे ते तथा भारतीय संशोधकोने आनाथी थनारा लाभनी वात करी हती. तेमज समग्र विश्वने कई रीते एनी माहिती उपलब्ध थशे तेनो ख्याल आप्यो हतो. संस्थाना वाइस चेरमेन श्रीनेमुभाई चंदरयाओ अत्यार सुधीमां आ कार्य पाछळ संस्थाओ करेला प्रयत्नोनी विगतो आपी हती. तथा आ विराट कार्य पाछळ विदेशमां वसता जैनो, जैन संस्थाओ अने जैन अग्रणीओना आर्थिक सहयोगनो उल्लेख को हतो. तो राज्यसभाना सभ्य, ब्रिटनमांना भूतपूर्व भारतीय हाइकमिश्नर अने जाणीता
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- अनुसंधान-२२ बंधारणविद् डॉ.एल.एम.सिंघवीओ जैन हस्तप्रत भंडारोनी विशेषतानी वात करीने विपुल संख्यामां मळती जैन हस्तप्रतोनो ख्याल आप्यो हतो.
सांस्कृतिक खाताना प्रधान श्री जगमोहने भगवान महावीरना २६००मा जन्मकल्याणक महोत्सवनी उजवणीना उपलक्षमां सरकारे अकसो करोड फाळव्या अने तेनो जैनतीर्थोनी सुविधाओ वधारवा माटे केवो उपयोग कर्यो तेनी विगतो आपी इन्स्टिट्यूट ओफ जैनोलोजीना प्रोजेक्टना आयोजन तेमज तेने मळेला विश्वना जुदा जुदा देशोना सहयोगनी प्रशंसा करी हती. आशरे छ करोड रुपियाना खर्चे तैयार थनारा आ प्रोजेक्ट माटे इन्स्टिट्यूट ओफ जैनोलोजीओ भारत सरकार पासे बे करोड रू.नी मांगणी करी हती. ओ अंगे प्रतिभाव आपता वडाप्रधान श्रीअटल बिहारी वाजपेयीओ कह्यु के जैन दर्शन पासेथी आ जगतने घj शीखवानुं छे अने कार्यनी महत्ता प्रमाणीने ज तेओओ आ कार्य अंगे पेट्रन इन चीफ थवानुं स्वीकार्यु हतुं. तेमणे आ माटे बे करोड रुपिया आपवानी जाहेरात करी. संस्थाना चेरमेन श्रीरतिभाई चंदरयाए आ अंगे आनन्द अने आभारनी लागणी प्रगट करी अने हस्तप्रत विषयक स्मृतिचिह्न अर्पण कर्यु पछी डॉ. सिंघवी अने श्रीदीपचंदभाई गार्डीओ पण वडाप्रधानने स्मृतिचिह्न अर्पण कर्यु हतुं.
(सौराष्ट्र समाचार-दैनिक वृत्तपत्र, ता. १५-१२-२००२, भावनगरना सौजन्यथी)
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प्रो. डॉ. के. आर. चन्द्रनी चिरविदाय
प्राकृत भाषा-साहित्यना मूर्धन्य विद्वान प्रो. डॉ. के. रिषभचन्द्रनुं ता. ५-१०-२००२ना रोज अमदावादमां दुःखद अवसान थयुं छे. तेमनी विदायथी प्राकृत साहित्यना अध्ययन-संशोधनक्षेत्रे मोटी खोट पडी छे, जे नजीकना भविष्यमां तो पूराय तेम नथी.
गुजरात युनिवर्सिटीना पालि-प्राकृत विभागना अध्यक्ष प्राध्यापक तरीके तेमणे वर्षो सुधी काम करेलं. प्राकृत टेष्ट सोसायटी, प्राकृत विद्यामंडल, प्राकृत विकास फंड वगेरे संस्थाओना माध्यमथी के उपक्रमे प्राकृत साहित्यमां तेमणे खूब प्रदान कर्यु हतुं. प्राकृतनी छए भाषाओ, विशेषतः अर्धमागधी अने शौरसेनीना विषयमां तेमणे ऊंडी शोध कर्या करी. प्राचीन अर्धमागधीनु स्वरूप, तेना ताडपत्र-प्रतोमांथी प्राप्त थता सन्दर्भो - आ बधां विषे तेमणे खुब मथामण करी, अंने आचारांगसूत्रना एक प्रकरणने तेमणे साधार, सप्रमाण रूपे असल-महावीर स्वामीनी अर्धमागधी भाषामां आलेखी प्रकाशित करी पण आप्युं. तेमनो मनोरथ हतो के आंखु आचारांगसूत्र आ रीते तैयार करवं. परंतु आंखोनी दुर्बलता, शारीरिक नादुरस्ती अने घणीवार साधनो-सहायकोनी ऊणप वगेरे कारणे तेमनो ते मनोरथ सिद्ध न थयो. आम छतां, तेमना ग्रन्थो, शोधपत्रो तथा विविध संपादनो, आ दिशामां काम करवा इच्छनार माटे उत्तम मार्गदर्शन पूरुं पाडे तेम छे.
__'शौरसेनी ज मूल-प्राचीन भाषा छे, अर्धमागधी अर्वाचीन छे' आवो प्रमाणहीन अने काल्पनिक विचार ज्यारे दिगम्बर परंपरा द्वारा जोरशोरथी प्रचारमां आव्यो, त्यारे तेनुं सप्रमाण अने तर्क-युक्ति पूर्वक निरसन करवामां प्रा. चन्द्रे महत्त्वनो फाळो आप्यो हतो. अने तेमना ते प्रयत्नना फल स्वरूपे "जिनागमोंकी मूल भाषा" नामे ग्रन्थ आजे उपलब्ध छे.
तेमनां आदरेला केटलांक कार्य हजी पूरां थवानां बाकी छे. ए कार्यो वेलासर अने समुचित रीते पूर्ण थाय तो ते तेमने अपानारी श्रेष्ठ अंजलि बनी रहेशे.
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