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अनुसंधान-२२
पत्रचर्चा 'विबुध पदविज्ञप्तिना परिपत्र विषे..... थोडंक
- आ. श्रीप्रद्युम्नसूरि वीतेला दिवसोमां पासे पडेला अनुसंधानना जूना अंको - जे कदी जूना न थाय तेवा अंको हाथमां लइने जोतो हतो तेमां अनुसंधान-५मां एक जग्याए नजर अटकी गई । मूल पाठ मारा रसनो विषय हतो तेने बराबर वांचतां तेना हार्दने जाणी शकायुं तेनो आनंद थयो । पछी ए मूल पाठ उपर तेना संपादक मुनि श्री महाबोधिविजये जे पंक्तिओ लखी छे ते वांचतां ख्याल आव्यो के मूल पाठनुं हार्द आमां पामवानुं बाकी रही गयुं छे । जुदा द्रष्टिकोणथी आने जोवामां आव्यु छ । मूल वात वाचको समक्ष हजी पण मूकाय तो कदाच वर्तमान परिप्रेक्ष्यमां पण ते श्रीसंघनी परिस्थितिने समजवा - मूलववामां उपकारक बनी रहे ।
आ एक परिपत्र छ । संघव्यवस्था-गच्छव्यवस्था माटे गच्छनायकोने दिशासूझ मले तेवो परिपत्र छे। आ 'विबध'पदविज्ञप्ति विषेनो परिपत्र छ । आ परिपत्रने मुनि श्रीमहाबोधिविजयजीए विबुधजनविज्ञप्ति कह्यो छे तेथी लागे छे के तेओने आनो सन्दर्भ-पृष्ठभूमिका समजबहार रह्या छे । मने एवं लागे छे के जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि महाराजे वि.सं. १६४८(?)मां पोष वदि १०ना आ परिपत्र जाहेर कर्यो छे। त्यारे तेमना निश्रावति शिष्य-उपशिष्यनी संख्या बे हजार सुधी पहोंचेली हती - आटलो पुण्यप्रकर्ष तपागच्छने माटे घणी गौरवनी घटना गणाय । ___ आ बे हजार श्रमणो तो गुजरात-कच्छ सौराष्ट्र उपरांत आग्रा, लाहोर, राजस्थान-मेवाड जेवां विशाल प्रदेशमां विचरता-विहरता रहेता । दीक्षाओ थती। शास्त्रनुं अध्ययन-अध्यापन थतुं । योगोद्वहन करवापूर्वक आगमनो स्वाध्याय थतो। श्री भगवतीजीना सूत्रना योगनो अवसर प्राप्त थई जतां अनुज्ञास्वरूप गणिपद पण थइ जतुं । पछी आवती पंडितपदनी वात । आ पद उपाध्याय पहेलां अपातुं आ पद आपती वखते ते ते श्रमण-मुनि-साधु पासे शी शी योग्यता जरूरी गणाय तेनुं दर्शन आमां छे । अटले जे जे साधु गणिपदधारी बने तेने माटे तेमना शिष्यो, लागता-वळगता श्रावको ते गणिने पंडित पद आपवा माटे भलामण करे । आवी
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