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________________ भवविरहाङ्क श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित जिनस्तवन सं. विजयशीलचन्द्रसूरि अनेक श्रेष्ठ ग्रन्थोना प्रणेता श्रीहरिभद्राचार्यनी रचना प्राप्त थाय, ए भक्त साधको माटे ओच्छव समी घटना गणाय. तेमणे तो १४४४ ग्रंथोप्रकरणो रच्यानुं सर्वविदित छे. परंतु ते पैकी बहु थोडीक ज रचनाओ आजे उपलब्ध छे. शास्त्राध्ययनना अने संशोधनना क्षेत्रे काम करता कोई पण विद्वानना मनमां, आवा प्रसिद्ध पुरुषनी अप्रगट-अलभ्य रचना मळी आवे, तेवी भावना होय ज; अने क्यारेक खरेखर तेवी चीज जडी जाय त्यारे ते नाची ज ऊठे. ___अहीं आ आचार्यश्रीनी एक तद्दन नानकडी, फक्त ८ श्लोकमय पण अद्यावधि अज्ञात-अप्रगट रचना आपवामां आवी छे. सातमा पद्यमांनो 'भवविरहं' शब्द, आ रचना हरिभद्रसूरिनी होवानी महोरछाप बनी रहे छे. उपरांत, समसंस्कृत-प्राकृत रचना तथा "भवदवजलवाह (पद्य २)", "मायारेणुसमीरण (३)" वगेरे, “संसारदावानलदाहनीरं"नी तेमनी प्रख्यात स्तुतिरचना साथे साम्य धरावतां रूपक-प्रयोगो- आ बन्ने बाबतो पण आ रचना हरिभद्रसूरिनी ज होवानी वातने समर्थन आपे छे. 'आर्या' छंदमां निबद्ध आ स्तोत्रनी पदावली खूब ललित तथा मधुर छे. उपमा तथा रूपको पण हृदयंगम छे. एमांये छठ्ठा पद्यमांनुं 'स्वसमयकमलसरोवर' -ए रूपक तो भारे चमत्कृति सर्जी जाय छे. 'स्वसमयरूप सरोवरमां कमल' एवं रूपक तो बधां आपी शके, अने ए स्वाभाविक पण लागे. परंतु अहीं कर्ताए 'स्व समयरूपी कमलने खीलवनार सरोवर' रूपे स्तुत्य तत्त्वनी जे कल्पना करी छे, ते लाजवाब छे. बीजी एक नोंधपात्र बाबत ए छे के जिन साधारण स्तवन अष्टकआठ श्लोकात्मक होई, तेनो आठमो श्लोक पण उपरना श्लोकोनी जेम ज स्तुत्य तत्त्वना वर्णनविशेषण रूप ज होवो जोईए, तेने बदले आचार्ये आठमा श्लोकमां पोते ज "संस्कृत-प्राकृत वचनो वडे समानता धरावतुं आ स्तोत्र' होवानुं स्पष्टीकरण आपेल छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520522
Book TitleAnusandhan 2003 01 SrNo 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages78
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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