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________________ January-2003 11 'कविराज' बिरुद धरावनार जती पं. दीपविजय कविराजे राठोड राजा मानसिंहनी कीर्तिना गानस्वरूप समुद्रबन्ध-आशीर्वचन रचेल छे. सं. १८७७ना विजयादशमीदिने कविराज दीपविजये स्वहस्ते लखेल छे. समग्रपणे आ रचनानुं अवलोकन करतां कवितुं काव्यकौशल्य, चित्रकाव्य जेवा कठिन काव्यप्रकारनी रचना तथा एकमां अनेक चित्रकाव्यो समाववानी निपुणता, व्रजभाषा तथा छंदो परतुं प्रभुत्व तथा चित्रकलाचित्रालेखननी क्षमता - एम अनेक बाबतो विषे प्रकाश पडे छे. एक संभावना खरी के चित्रो कविए कोई निपुण चित्रकार पासे पण दोराव्यां होय. . परंतु कवि स्वयं चित्रकलाकुशल नहि ज होय तेवू जकारपूर्वक कही शकाय तेम तो नथी ज. केमके कविए जाते चित्रांकित करेल वसुंधरा देवी, रंगीन चित्र मळी आव्युं छे (जुओ अनुसन्धान - पत्रिका, क्र.२०, जुलाई २००२). प्रसंगोपात्त एक मुद्दो कहेवो ठीक लागे छे. जैन मुनि थईने कवि ' राजानां, शास्त्रोनां तथा ते अनुषंगे तेना देवादिकनां गुणगान गायं एमां औचित्य खरुं ? कदाच आ सवाल खुद कविना चित्तमां पण उग्यो होवो जोईए. तेनो संकेत कविए रचेल एक ऐतिहासिक रचना 'सोहमकुलपट्टावली'नी प्रशस्तिमां स्वयं कविए ज आ शब्दोमां आप्यो छे : "कवेसर बिरद धरावी जगमें, बहु नृप सस्त्र वखांण्या भुज बल फोज संग्राम वखांण्या, आतमदोष न जाण्या रे" __ (जैन गू.क. ६/१८८) आ वातने बाजुओ राखीने विचारीओ तो, कवि, कविकर्म मध्यकाळना उत्तम कविओनी हरोळमां कविने निःशंक स्थान अपावे तेवं छे, तेमां बेमत नहि. कविवरना स्वहस्ते आलेखायेल आ वस्त्रपट-चित्रकाव्यनी छबी आ अंकमां अन्यत्र आपवामां आवी छे. आ काव्यनी रचना व्रजभाषामां होवाथी ते विषेनी अज्ञताने कारणे अर्थबोध थवो कठिन पडतो होई पदच्छेद, शुद्धता वगेरे अंगे कांई ने कांई गरबड रही जवानु स्वाभाविक छे. जाणकारो ते विषे नोंध मोकलशे तो हवे पछीना अंकमां प्रकाशित करवानुं गमशे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520522
Book TitleAnusandhan 2003 01 SrNo 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages78
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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