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________________ January-2003 ॥१०॥ रिपु गयू जनमद सबल तं । पाय नमावत गात । मनुनांम मृगपत्त ज्यों । देख्यो एह विख्यात ॥६॥ गुनिजन पथि राजत । निंबोतरु सुच प्राग समान । याथें किय ओपम लिखे । देखो ज़ना सुजान ॥७॥ भारभूत अरिगज दलंत । तेग मान भरमार । मिट्यो मित कास्यप उदें । अपय सरूपां धार ॥८॥ तो सुचि निर्मल गंगकुल । कुलइवतो पितमात । रजनीनास भानु समो । कुल विकास बल नीत ॥९।। तूह लील सुगाज चयन, सुचविदजनं प्रवीन । पयीमे नत वसेत गुन, रटे रंग में लीन सत वच कुली करन गुनं, सुचधी वाच सोहाय । नम्य यरी मतंग तिको, नाम सुने पुल जाय ॥११॥ कलि रघुनास बिरद । वाग्मी जसु बल न्याय । भाण रहो नभ जिम सदा, । टीको सब नरराय ॥१२।। तो विक्रम सम क्रम मन । दृढ सत वाचा धीर । प्रभरति निति वरइमा । रिप-घनाप-समीर ॥१३।। मति अभेराज सुचत मनु । बुद्धि कलि तुम वृद्ध । गुरौ द्युति सत वाचसा । यस विषेस प्रसिद्ध ॥१४॥ सूभूषन भूषितं लसा । मनुइंद निजरिद्ध । धीर धर तपतेज बुधासु । विभु विस्तर समृद्ध ॥१५॥ भजंत तव चट ओय अरिज्युं । जावे किरने मित । हरी रिपव तुं भूपहरी । रहे कुरंगां भीत ॥१६॥ इमासु जगतां (जगतां) विदित विराजत तव नव निद्ध । गय रह भट पत्तन वरो भुक्ता सब ए रिद्ध ||१७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520522
Book TitleAnusandhan 2003 01 SrNo 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages78
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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