Book Title: Anusandhan 2003 01 SrNo 22
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 49
________________ January-2003 सिव पाम्या वीसै प्रभू सीधा साधु अनंत । आगलि वलि अति सिझस्यै वर्धमान प्रवदंत ॥४॥ भवउदधि तरवा भणी एह शिखरगिर नाव भव्यजीव मिलकर सदा यात्र करै शुभ भाव ॥५॥ इणही ज जंबूद्वीपमै दक्षिण भरत अभिराम । धन धन पूरब देशमै छै तीरथ गुणधाम ॥६॥ देशी : नींविया की ॥ साचविर्यै विधि इण परै ए करियै आतम शुद्ध शिखरगिरि वंदियै ए निरमल चित्त धरि बुद्ध भवियण टोली हिलमिली ए गातां गीत रसाल जय बोलो जिन वीसनी ए पहिरो संघपतिमाल तन मन वयण जे वसीकरे ए गोपवो इंद्री पंच धरमी व्रत आराधता ए वाक्य मधुरता संच निज घरथी जब नीसरे ए जात्रा करणनै जाय छेहरि नित जै पालतां ए जनम सफल शुद्ध थाय ईर्यायें पंथ सोधता ए पैदल चढणो जोय शि० शि० ३ शि० शि० ४ शि० शि० ५ शि० शि० ६ शि० शी ७ सर्दहणा गुरुदेवनी ए समकितधारी होय कपट कदाग्रह परिहरो ए टालो मिथ्यामति संग सामायिक सुभ भावथी ए ब्रह्मव्रत धार सुचंग भूमि संथारै सूवणो ए सचित्त करो परिहार करीयै नित्य एकासणी ए आदरो एकल आहार तीरथ देखी करौ नूंछणा ए कीजै मन उल्लास मोतियां थाल वधावियै ए प्रगट कीजै पुन्यरास वस्ती वसै पालगंजनी ए वरतैं सदा जिनधर्म न्याए राज चोसालसूं ए राजा करै राज्य कर्म दियै प्रदक्षिणा गिरि तणी ए मधुवन कीजै मुकांम शि० शि० शि० ८ शि० शि० ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only 43 शिष० १ शिष ० शिषं० २ www.jainelibrary.org

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