Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 14
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 49
________________ 44 सम्भावयामि भवतस्तनुसम्भवेन, भामण्डलेन सितिना जिन ! भासुरेण । पूर्णं नभस्तलमिदं सकलं यदीति, नो तत्कथं मरकताभमिदं बभूव व्योमस्थितस्त्रिदशदुन्दुभिरेष हृद्यः, पुंसां नदन्निति विभो वदतीव नित्यम् । भो भो ! जगत्त्रयपतिर्जगदर्थवेदी, नाऽतः परोऽस्ति भुवने तदमुं श्रयध्वम् लोकत्रयैकतिलकं प्रणमन्त्यमुं ये ते कीर्तिकेवलशिवत्रयमाश्रयन्ते । कुन्देन्दुसुन्दरतरं त्रिजगज्जनानां, छत्रत्रयं तव निवेदयतीव देव ! कुन्दावदातयशसं भगवन् ! भवन्तं, भिन्नेन्द्रनीलमणिनिर्मलकायकान्तिम् । कारुण्यपुण्यहृदयं हृदि यो बिभर्ति, यान्ति क्षणेन विपदः क्षयमीश ! तस्य Jain Education International ॥१२॥ ॥१३॥ For Private & Personal Use Only ॥१४॥ 1 इति श्रीमत्पार्श्वक्षितिवलयविख्यातकरहेटकस्याऽलङ्कार ! त्रिभुवनपते ! नम्रशिरसाम् । सभावं स्तोतॄणां विदलय महामोहपटलं, घनं कर्मव्रातं हरवितर निर्वाणपदवीम् ॥१५॥ 11211 पूज्य भट्टारकप्रभु श्रीसोमतिलकसूरिविरचितं करहेटकमण्डन श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् ॥ www.jainelibrary.org

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