Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 14
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 103
________________ 98 // 24 // गुणवानिति प्रसिद्धः संनिहितैरेव भवति गुणवद्भिः ख्यातो मधुर्जगत्यपि सुमनोभिः सुरभिभिः सुरभिः // 22 // शिष्टाचार इति (इतीव) विघ्नविहिते शास्तुः प्रमाणीकृतं शास्त्रं स्यादिति संनिरोध इति वा विघ्नस्य संपद्यताम् / शास्त्रादौ कृतबुद्धयो विदधते येनेष्टदेवस्तुतिं तेनेत्थं भगवानपि प्रववृते प्रज्ञाधनोऽयं कविः // 23 // अर्हन् हरो हरिरनादिरनाहतश्च बुद्धो बुधो निरवधिविधिरव्ययश्च / इत्याद्यनेकविधनिर्मलनामधेयं शुद्धाशयः परमहंसमहं नमामि तत्पाण्डित्यं न पतति पुनर्येन संसारचक्रे सा संप्रीतिर्न पतति पुनर्या कृते वाऽकृते वा / ते किं भोगा रतिषु विदुषां ये न वाच्या परेषां तत्कर्तव्यं किमिह बहुना येन भूयो न भूयः तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसा[प्रब]न्धे देवे रागद्वेषमोहादिमुक्ते। साधौ सर्वग्रन्थसंदर्भहीने संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः // 26 // अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभस्तत्र दहने न मीनोऽपि ज्ञात्वा बत बडिशमश्नाति पिशितम् / विजानन्तो ह्येते वयमिह विपज्जालजटिलान् न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ||27|| ___ // 25 // // 25 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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