Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 14
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
90
जे पुण सुबोहरायस्स चेव वसवत्तिणो कया पुव्विं । सम्मत्त-अमच्चेणं ते जइणपुरे चिरं ठविउं ।।२३३॥ चारित्तधम्मराएण संगया सम्मभावियप्पाणो। साओदयसुहडेणं सुहिणो कीरंति अणवरयं ॥२३४।। किं पुण ठिइक्खएणं तत्तो निव्वासिऊण अणुकमसो। मणुयाउपालरन्ना ते नरनयरीए खिप्पंति ॥२३५॥ जे उण पंचोत्तरवरविमाणविणिवासिणोहमिंदसुरा । मिच्छत्तमंतिणा सह संगो वि न तेसि कइया वि ॥२३६।। एत्तो चिय ते संमत्तमंतिसंजोइएहि भावेहि। एगंतेण सुहोदयरूवेहिं तहिं सया सुहिणो ।।२३७।। किं पुण एएसिं पि हु चिरकालाओ वि ठिइक्खओ होइ । तत्तो खिप्पंति इमे वि माणुसीगब्भवासंमि ॥२३८॥ तयणु सुइरं अपाविय-अवयासो इय असाय नाम भडो । लद्धंतरो वियंमभिउमारंभइ किं चि अव्वत्तं ॥२३९॥ किं पुण तक्कालपरिफ्फुरंत संमत्तभावसुहडेहिँ । पायं पसरंतो पडिहम्मइ तेसिं असायभडो ॥२४०॥ जं विजयाईहिंतो चुया सुरा के वि होंति तित्थयरा । केंवि पुण चक्कवट्टी अच्चतसुइन्नपुनभरा ॥२४१।। के वि हु तत्तो वि चुया जइ वि हु पुरिसा हवंति सामना । तह वि हु बहुसुहनिहिणो हवंति एक्कावयाराई ॥२४२॥ जे उण उवेंति इहइं सव्वट्ठाओ विमाणरयणाओ। ते सव्वे वि मणूसा नूणं एगावयारत्ति ॥२४३।। तेसिं सुहमणवरयं पसरइ जो उण हवेइ दुहलेसो। सो दुद्धसक्करारसथाले निवरसतुल्लो ॥२४४॥ तह मोहराय कडगे सुहडा जे के वि संति दुद्धरिसा। तेसि वि लीलाए चिय भंजिय माहप्पमवियप्पं ॥२४५।। गंतु सुबोहनरवइविसए चारित्तधम्मरायस्स। आणं आराहेउं सुइरं वच्चंति सिवनयरिं ॥२४६।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144