Book Title: Anusandhan 1999 00 SrNo 14
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 81
________________ 76 जो वि तुह मीसनामो तणूरुहो सो वि मिच्छसम्माण । अणुयत्तिं कुव्वंतो पडिहाइ न मज्झ सुद्धप्पा ॥४१॥ मज्झत्थयाए जइ वि हु न दंसए एस किंचि वि वियारं। : तह वि निय-पक्ख-पुद्धिं न कुणइ जो तंमि का आसा ॥४२।। किं पुण एसो उदयस्स थेवकालो त्ति तारिसं न भयं । तह वि हु इमस्स तुमए स-पुर-पवेसो न दायव्वो ॥४३॥ चारित्तमोहनामो सहोयरो जो उ वल्लहो तुज्झ । का वन्निज्जइ तस्स वि समत्थिमा पत्थुयत्थंमि ।।४४।। जं से अविरइनामा पिया सुया तेसिं तिन्नि चउवयणा । जलण-गिरिथंभ-सागर नामाणो बहुलिया धूया ॥४५॥ एयाणि सहावेण वि अम्हं कुलवुड्डिकारयाणि सया। निय पिउणा तुमए वि हु पुरक्खडाई विसेसेण ॥४६।। जं जलण-तविय-चित्तो न गणइ जणयं न मन्नए जणणिं । लंघइ सहोयरं गुरुयणं च अवगणइ निरवक्खो ॥४७|| विरमेइ न पावाओ धम्ममि मणं मणं पि न करेइ । अहव परायत्ताणं एत्तियमेत्तंमि किं चोज्जं ॥४८॥ गुरुथंभेणं थड्डीकओ अप्पाणमेव मन्नंतो। तिणमिव गणेइ जयमवि कुणइ अवण्णं गुरूणं पि ॥४९।। भणइ य अहमेव गुरू भुवणस्स वि न उण मह गुरू को वि । जाइकुलाईण वि गुण-रयणाण महं चिय निहाणं ॥५०॥ अच्चंतायासकरं दुरंत दुग्गय-निवाय-संजणयं । सागरओ सागरमिव दुप्पूरं जणइ जयआसं ॥५१॥ एएसिं पुणो भइणी बहुतरं कूडकवडमाईणि । सिक्खावेंती भुवणे गुरुत्तणं पयडइ जणस्स ॥५२॥ इय तीए वसवत्ती जीवो अन्नं धरेसि हिययंमि । भासइ पुण अन्नयरं अन्नतमं किंचि वि करेइ ।।५३।। ता जणणि-जणय-बंधव-सामिप्पमुहं पि सयलमवि लोगं । निरवेक्खं वंचंतो कुगइ दुहाण वि न बीहे इ ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144