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प्रस्तावना
. १३ तीसरा परिशिष्ट-इस परिशिष्ट में अङ्गविज्जाशास्त्र में प्रयुक्त कियारूपोंका संग्रह है। जो संग्रह प्राकृत भाषाविदोंके लिये बहुमूल्य खजानारूप है। प्राकृत वाङ्मयके दूसरे किसी भी ग्रन्थमें इतने क्रियापदों का संग्रह मिलना सम्भावित नहीं है।
चौथा परिशिष्ट-इस परिशिष्ट में मनुष्य के अङ्गों के नामों का संग्रह है, जिसको मैंने औचित्यानुसार तीन विभागों में विभक्त किया है। पहले विभाग में स्थाननिर्देशपूर्वक अकारादिक्रम से अङ्गविज्जा शास्त्र में प्रयुक्त अङ्गोंके संग्रह हैं । दूसरे विभागमें अङ्गविज्जाशास्त्रप्रणेताने मनुष्यके अङ्गोंके आकार-प्रकारादि को लक्ष्य में रखकर जिन २७० द्वारों में प्रकारों में उनको विभक्त किया है उन द्वारोंके नामोंका अकारादिक्रम से संग्रह है। तीसरे विभाग में ग्रन्थकर्ताने जिन अङ्गोंका समावेश किया है, उनका यथाद्वारविभाग संग्रह किया है । यथाद्वारविभाग यह अङ्गनामोंका संग्रह अकारादिक्रमसे नहीं दिया गया है, किन्तु ग्रन्थकारने जिस क्रमसे अङ्गनामोंका निर्देश किया है उसी क्रमसे दिया है । इसका कारण यह है कि इस शास्त्रमें अङ्गोंके कितने ही नाम ऐसे हैं जिनका वास्तविक रूपसे पता नहीं चलता है कि इस नाम से शरीरका कौनसा अंग अभिप्रेत है। इस दशामें ग्रन्थकारका दिया हुआ कम ही तद्विदोंके लिये कल्पना एवं निर्णयका साधन बन सकता है।
पाँचवाँ परिशिष्ट-इस परिशिष्टमें अङ्गविज्जा शास्त्र में आनेवाले सांस्कृतिक नामोंका संग्रह है। यह संग्रह मनुष्य, तिर्यंच, वनस्पति व देव-देवी विभागमें विभक्त है। ये विभाग भी अनेकानेक विभाग, उपविभाग प्रविभागोंमें विभक्तरूपसे दिये गये हैं। सांस्कृतिक दृष्टिसे यह परिशिष्ट सब परिशिष्टोंसे बड़े महत्त्वका है। इस परिशिष्टको देखनेसे विद्वानोंको अनेक बातें लक्ष्यमें आ जायँगी ।।
इस परिशिष्टको देखनेसे यह पता चलता है कि प्राचीन काल में अपने भारतमें वर्ण-जाति-गोत्र-सगपणसम्बन्ध-अटक वगैरह किस प्रकारके होते थे, लोगोंकी नामकरण विषयमें क्या पद्धति थी, नगर-गाँव-प्र(प्रा)कारादि की रचना किस ढंगकी होती थी, लोगोंके मकान शाला और उनमें अवान्तर विभाग कैसे होते थे, कौनसे रंगवर्णमृत्तिका आदिका उपयोग होता था, लोगोंकी आजीविका किस-किस व्यापारसे चलती थी, प्रजामें कैसे-कैसे अधिकार और आधिपत्यका व्यवहार था, उनके स्थान-शयन-आसन-तकिया-यान-वाहन-बरतन-गृहोपस्कर कैसे थे, लोगोंके वेष-विभूषा अलंकार-इन-तैलादिविषयक शौक किस प्रकार का था, लोगोंका व्यापार किस किस प्रकारके सिक्कोंके आदान-प्रदान से चलता था, लोगोंके खाद्य पेय पदार्थ क्या क्या थे, लोकसमूह में कौन से उत्सव प्रवर्त्तमान थे, लोगोंको कौनसे रोग होते थे? ये और इनके अतिरिक्त दूसरी बहुतसी बातों का पृथक्करण विद्वद्गण अपने आप ही कर सकता है ।
अंगविज्जा ग्रन्थ का अध्ययन और अनुवाद कुछ विद्वानों का कहना है कि इस ग्रन्थ का अनुवाद किया जाय तो अच्छा हो । इस विषय में मेरा मन्तव्य इस प्रकार है -
फलादेशविषयक यह ग्रन्थ एक पारिभाषिक ग्रन्थ है। जबतक इसकी परिभाषाका पता न लगाया जाय तबतक इस ग्रन्थके शाब्दिक मात्र अनुवाद का कोई महत्त्व नहीं है। इसलिये इस ग्रन्थके अनुवादक को प्रथम तो इसकी परिभाषाका पता लगाना होगा और एतद्विषयक अन्यान्य ग्रन्थ देखने होंगे । जैसे कि इस ग्रन्थ के अंतमें प्रथम परिशिष्ट रूपसे छपे हुए ग्रन्थ और उसकी व्याख्यामें निर्दिष्ट पराशरी संहिता जैसे ग्रन्थोंका गहराईसे अवलोकन करना होगा । इतना करने पर भी ग्रन्थकी परिभाषाका ज्ञान यह महत्त्वकी बात है । अगर इसकी परिभाषाका पता न लगा तो सब अवलोकन व्यर्थप्राय है और तात्त्विक अनुवाद करना अशक्य-सी बात है । दूसरी बात यह भी है कि यह ग्रन्थ यथासाधन यद्यपि काफी प्रमाण में शुद्ध हो चुका है, फिर भी फलादेश करने की अपेक्षा इसका संशोधन अपूर्ण ही है । चिरकालसे इसका अध्ययन-अध्यापन न होने के कारण इस
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