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अनेकान्त/१६
चारों प्रकार के स्पर्धक पाए जाते हैं। शेष ६ नोकषायों में द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक व चतुस्थानिक स्पर्धक पाए जाते हैं। इस प्रकार नौ नोकषायों में भी सर्वघाती स्पर्धक भी निर्बाधरूप से पाए जाते हैं।
___ स्वयं पण्डित जी ने अपने द्वारा सम्पादित लब्धिसार क्षपणसार पृ. १५७ व १५६ (राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला) में लिखा है-“चार संज्वलन तथा नौ-नोकषायों के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने से और उन्हीं के देशघाती स्पर्धकों का उदय होने से संयामासंयम क्षायोपशमिक स्वीकार किया है।.............” अतः पण्डित जी ने सर्वार्थसिद्धी में उक्त स्थल पर भूल की है।
५. धर्मरत्नाकर (जीवराज ग्रन्थमाला) में १०/३ पृ. १५० पर उत्कृष्ट तपस्वी जयसेन ने लिखा है
पुद्गलार्द्धपरावर्तादूर्ध्वं मोक्षगती पुमान्। त्रिकोटाकोटीमध्ये हि स्थापितेस्वष्टकर्मसु ।।
अर्थ-अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल के पश्चात् (भीतर) मोक्ष को प्राप्त होने वाला श्रेष्ठ भव्य जीव ८ (आठ) कर्मो की ३ कोड़ी-कोड़ा स्थिति स्थापित करके ............. अधःकरण करता है।
समीक्षा-यह कथन गलत है। ७ (सात) कर्मों की स्थिति ही अंतः कोटा-कोटी के मध्य स्थापित की जाती है। आयु कर्म तो किसी के भी ३३ सागर से अधिक सत्त्व वाला नहीं होता। फिर उसको अन्तः कोटाकोटी प्रमाण करने का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर आयु का इस समय स्थितिकाण्डक घात भी नहीं होता। अतः प्रथमोपशम के अभिमुख जीव आयु बिना शेष सात कर्मो की ही स्थिति प्रायोग्यलब्धि में ही अन्तः कोटाकोटी स्थापित कर देता है। तीन कोटाकोटी जो लिखा है वह भी सभी सिद्धान्त शास्त्रों के विपरीत है। (देखो-धवल ६/२०४ लब्धिसार ७, ८ तथा जयधवल १२ पृष्ठ २०१, २३१)
६. उक्त ग्रन्थ में ही आगे लिखा है-आद्यन्तरान्तराख्येन करणेनापवर्तयेत्।