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अनेकान्त/३३
(इस प्रकार दोनों निकल गए)
क्षपणक को कुछ टीकाकारों ने बौद्ध भिक्षु बतलाया है। किन्तु अरहन्त, श्रावक तथा क्षपणक शब्द जैन परम्परा से सम्बद्ध हैं। बौद्धों के यहाँ श्रावक को उपासक कहा जाता है। बौद्धों के यहाँ कहीं श्रावक शब्द आया भी है तो उसे जैनों से उधार लिया हुआ ही समझना चाहिए। महाभारत में क्षपणक का उल्लेख
महाभारत के आदिपर्व में एक स्थान पर शेषनाग नग्न क्षपणक वेष में उत्तंक के कुण्डल चुरा ले जाता है
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तंकस्तेकुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुद्रश्यमानद्रश्यमानं च। अथोत्तंकस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थ प्रचक्रमे। एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमारणस्य अपसृतय मे कुण्डलेगृहीत्वा प्राद्रवत् ।।
मैं यल से जाऊँगा, ऐसा कहकर उत्तंक उन कुण्डलों को लेकर चल दिया। उसने रास्ते में नग्न क्षपणक को आते देखा। इसके पश्चात् उत्तंक उन कुण्डलों को पृथ्वी पर रखकर पानी पीने के लिए गया। इस अवसर पर वह क्षपणक शीघ्र आकर कुण्डल लेकर भाग गया। कुसुमाञ्जलि का उल्लेख
कुसुमाञ्जलि ग्रन्थ के रचयिता अपने ग्रन्थ के १६वें पृष्ठ पर लिखते हैं"निरावरणा इति दिगम्बराः"
अर्थात् वस्त्र रहित यानी नग्न रूप दिगम्बर होते हैं। जयन्त भट्ट का उल्लेख
न्यायमञ्जरी ग्रन्थ के कर्ता जयन्तभट्ट ग्रन्थ के १६७वें पृष्ठ पर लिखते हैं-"क्रिया तु विचित्रा प्रत्यागमं भवतु नाम भस्मजटा परिग्रहो दंडकमंडलुग्रहणं रक्त पट धारणं वा दिगम्बरता वा ऽवलम्व्यतां कोऽत्र विरोधः।"
अर्थात् क्रिया अनेक प्रकार की होती है। शरीर में भस्म लगाना, शिर पर जटा रखना अथवा दण्ड, कमण्डलु का रखना या लाल कपड़े का पहनना अथवा दिगम्बरपने का (नग्न रूप का) अवलम्ब ग्रहण करो, इसमें क्या विरोध है?