Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 155
________________ अनेकान्त/३४ साधक मानता है। कर्म प्रकृति को छोड़ने को यह अनुयोग उपदेश देता है। स्त्री को संयत गुणस्थान होता है वह करणानुयोग की अपेक्षा से माना जाता है, परन्तु चरणानुयोग की अपेक्षा से स्त्री का पंचम ही गुणस्थान मानना चाहिए। और पंचम गुणस्थान रूप उसका आदर सत्कार करना चाहिए। करणानुयोग की अपेक्षा से बाह्य परिग्रह होते हुए जीव मिथ्यात्व में से सीधा चतुर्थ गुणस्थान रूप भाव, पंचम गुणस्थान रूप भाव एवं सप्तम गुणस्थान रूप भाव कर सकता है। बाह्य पदार्थ करणानुयोग बाधक मानता नहीं। श्री पांडव युधिष्ठिरादिक नग्न दिगम्बर अवस्था में शत्रुजय पहाड़ पर ध्यानावस्था में थे तब अपने ही भाई ने पूर्व वैर के कारण लौह का गहना जेसे मुकुट, हार, कुण्डल, वाजूबंध इत्यादि तप्तायमान कर उनको पहना दिया। इस अवस्था में मुनि महाराज श्रेणी मांडकर तीन बड़े भाईयों ने सिद्ध पद्वी प्राप्त कर ली और दो लघु भ्राता ने सर्वार्थसिद्धि पद की प्राप्ति कर ली। देखिए, बाह्य गहनों का संयोग होते हुए भी उन महात्माओं ने अपना निर्मल परिणाम कर सिद्धगति प्राप्त कर ली। इससे सिद्ध होता है कि करणानुयोग बाह्य पदार्थो को बाधक नहीं मानता। करणानयोग में प्रधानपना निमित्त का ही है। जिस प्रकार कर्म का उदय होगा उसी प्रकार ही नैमित्तक आत्मा की अवस्था होगी। मनुष्यगति का उदय हुआ तब आत्मा को नियम से मनुष्य गति में आना ही पड़ा। मिथ्यात्व का उदय आने से आत्मा की परिणति नियम से मिथ्यात्व की होनी ही चाहिए करणानुयोग में ही संयोग संबंध होता है। जो जीव निमित्त को नहीं स्वीकार करता उस जीव ने करणानुयोग माना नहीं। करणानुयोग को न मानने वाला एकांत मिथ्यादृष्टि है। करणानुयोग और द्रव्यानुयोग में भी परस्पर विरोध है, यदि दोनों अनुयोग समान कथन करते तो दो अनुयोग मिलकर एक अनुयोग बन पाता। परन्तु वस्तु का स्वरूप ऐसा नही है। सम्यग्दृष्टि आत्मा को भी स्वीकार करना पड़ता है कि अपनी इच्छा राग करने को नही है तो भी मोहनीय कर्म के उदय में कर्म की वरजोरी से आत्मा में रागादिक हो ही जाता है। यह किसकी प्रधानता है। निमित्त की या उपादान की। अनंतवीर्य के धनी तीर्थकर देव को भी अपने आत्मा के प्रदेश तीन लोक की बराबर कर्म के

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