Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 163
________________ अनेकान्त/४२ हुए हैं। अकबर उन्हें गुरुवत् मानता था। संस्कृत और गुजराती में उनके विषय में बीसों ग्रन्थ लिखे गए हैं। इन ग्रन्थों में लिखा है कि हीरविजय ने मथुरा से लौटते हुए गोपाचल की बावनगजी भव्याकृति मूर्ति के दर्शन किए। यह मूर्ति दिगम्बर सम्प्रदाय की है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इससे मालूम होता है कि बादशाह अकबर के समय तक भी दोनों सम्प्रदायों में मूर्ति सम्बन्धी विरोध तीव्र नहीं था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य तक नग्नमूर्तियों के दर्शन किया करते थे। तपागच्छ के मुनि शीलविजय ने वि. सं. 1731-32 में दक्षिण के तमाम जैनतीर्थो की वन्दना की थी, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी तीर्थमाला (गुजराती) में किया है। उससे मालूम होता है कि उन्होंने जैनबद्री, मूडबिद्री कारकल, हूमच पद्मवती आदि तमाम दिगम्बर तीर्थों और दूसरे मन्दिरों की भक्तिभाव से वन्दना की थी। बड़े उत्साह से वे प्रत्येक स्थान की ओर मूर्तियों की प्रशंसा करते देखे जाते हैं। इससे भी मालूम होता है कि उस समय भी श्वेताम्बर साधु नग्नमूर्तियों को हेय दृष्टि से नहीं देखते थे और उनका अपने सम्प्रदाय की मूर्तियों के ही समान आदर करते थे। ऐसा मालूम होता है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर प्रतिमाओं में भेद हो जाने के बाद भी बहुत समय तक दिगम्बर और श्वेताम्बरों में भाईचारा बना रहा। बहुत समय तक इस ख्याल के लोग भी दोनों सम्प्रदायों में बने रहे कि एक दूसरे के धर्मकार्यो में बाधा नहीं डालनी चाहिए और दोनों को अपने-अपने विश्वास के अनुसार पूजा, अर्चना करने देना ही सज्जनता है। शत्रुजय और आबू पर्वतों पर श्वेताम्बर मन्दिरों के बीचों-बीच और बगल में दिगम्बर मन्दिरों का अस्तित्व अब भी इस बात की साक्षी दे रहा है कि उस समय के वैभवसम्पन्न और समर्थ श्वेताम्बर भी यह नहीं चाहते थे कि इन तीर्थो पर हम ही रहें, दिगम्बर नहीं आने पावें। गन्धार (भरोंच) एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। वहाँ एक पुराना दिगम्बर मन्दिर था। जब वह गिर गया और उसकी जगह नया श्वेताम्बर मन्दिर बनवाया गया तब वहाँ के श्वेताम्बर भाईयों ने दिगम्बर प्रतिमाओं को एक जुदी देवकुलिका (देवली) में स्थापित कर दिया। यह देवकुलिका अब भी विद्यमान है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170