Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 110
________________ अनेकान्त/29 कोई अपनी ही नज़रों से तो हमें दे देखेगा एक कतरे को समुन्दर नज़र आये कैसे? जैनदर्शन के महानवेत्ता क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी जी ने इतनी व्यापक दृष्टि रखते हुए भी 'नयदर्पण' के प्रथम अध्याय में ही अत्यंत विनम्रतापूर्वक अपनी अनेकान्त दृष्टि की समीक्षा करने को कहा है – “अब तुझे यह देखना है कि कहीं मेरे अन्दर तो इस प्रकार का कोई कदाग्रह नहीं पड़ा है। यह बात शब्दों पर से निर्धारित नहीं की जा सकती। शब्दों में पूछने पर तो मैं अनेकान्तवादी हूं ही, अनेकान्तवादियों का शिष्य जो हूं। जैन मत अनेकान्तमत है और मैं भी जैनी हूं, इसलिये मेरी सब बातें सत्य हैं। ऊपर नियम जो बना दिया है कि जैनियों की बात सच्ची और अन्य की बात झूठी। प्रभो! ऐसा अर्थ करने का प्रयत्न न कर। यहां साम्प्रदायिकता को अवकाश नहीं। जैन सम्प्रदाय जैनमत नहीं है। अनेकान्तिक धारणाओं का नाम जैनमत है। मत अनेकान्त अवश्य है, पर मैं अनेकान्तिक हूं या नहीं, विचार तो इस बात का करना है।" हम भूल यह करते हैं कि अनेकान्त को अनेकान्त की दृष्टि से न देखकर अपनी स्वयं की एकांत दृष्टि से ही देखते हैं। जो वस्तु जैसी है उसका जो स्वरूप है। क्या उससे भिन्न दृष्टि अनेकान्त को मंजूर होगी? अनेकान्त जैसा है हमें वैसा ही मंजूर क्यों नहीं? हम उसे अपने चिन्तन जैसा क्यों बनाना चाहते हैं? इस विषय पर गहराई से विचार की आवश्यकता है कि हमें अपने चिन्तन को अनेकान्त के अनुरूप बनाना है या अनेकान्त को अपने चिंतन के अनुरूप । अनेकान्त का उपयोग हो, दुरुपयोग नहीं। अपने आपको अनेकान्त के फ्रेम में फिट करें न कि अनेकान्त को अपने फ्रेम में। जब ऐसा होगा तभी हम सच्चे अनेकान्त को पा सकेंगे, उसके सच्चे स्वरूप को विश्व के समक्ष रख सकेंगे और अनेकान्त स्वरूपी भगवान आत्मा की अखण्ड अनुभूति कर सकेंगे। “अनेकान्तानुभूतिजयवन्तवर्ते" शोध छात्र जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्मदर्शन विभाग जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय, लाडनूं-341306

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