Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 146
________________ अनेकान्त / २५ समय भी 599-527 ई.पू. के बदले 540-468 ई.पू. को अधिक ऐतिहासिक मानते हैं। इस आधार पर उन्हें गौतम बुद्ध, कनफ्यूशियस, लाओत्से, जेरामिया ( बीउ ) आदि की सम-सामयिकता देते हैं । इसी प्रकार उनके समय में भारत में सात अन्य दार्शनिकों का उल्लेख भी करते हैं । अनेक पुस्तकों में उनके जन्मस्थल (पटना), दीक्षा- वय (28 वर्ष), पिछीमात्र धारण, महावीर निर्वाणकाल के बाद 70 वर्ष तक चतुर्थकाल का अस्तित्व आदि के सम्बन्ध में त्रुटिपूर्ण सूचनायें भी हैं । सभी लेखकों ने महावीर द्वारा उपदिष्ट तपोसाधना को अत्यंत कठोर और अतिवादी तथा उनके दार्शनिक विचारों को अतिसाहसिक एवं मौलिक बताया है । वे अध्यात्म के पहलवान थे और भौतिकता से पलायनवादी थे। उनके उपदेश मुख्यतः अल्पसंख्यक अनुयायिओं (साधुओं या श्रमणों) के लिये ही थे । स. जैनधर्म के सिद्धांत (1) नीति और आचार जैनसम्प्रदाय को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - बहुसंख्यक या श्रावक वर्ग और अल्पसंख्यक या साधुवर्ग । साधुओं का आचार प्रायः आदर्श माना जाता है। गृहस्थों का आचार व्यावहारिक होता है । आजकल एक तीसरी श्रेणी भी सामने आई है जो इन दोनों की मध्यवर्ती है । इसका आचार प्रायः साधु - समान होता है ( पर इसे विदेश गमन जैसी कुछ सुविधायें प्राप्त हैं) । श्रावकों के छह दैनिक कर्त्तव्य होते हैं । इनमें देवपूजा मुख्य है। यह सकारात्मक मानसिक अवस्था उत्पन करती हैं । फाइन्स, हॉफ एवं फ्रेडमान आदि ने पूजन पद्धति के निरूपण में श्वेताम्बर विधि का आधार लिया है, दिगम्बर पद्धति का नाम भी नहीं है जिसे पी. एस. जैनी ने अपनी पुस्तक में भी दिया है (1979)। पाश्चात्य विद्वान् प्रायः जैन सिद्धान्तों को तपोसाधना एवं मुक्ति के सिद्धान्त के रूप में देखते हैं । अतः 1995 तक के अनेक लेखकों ने उन्हें निवृत्तिमार्गी माना है जिसमें जीवन और जगत की अस्वीकृति तथा दोनों से पलायन की धारणा है । यह जगत और जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण अपनाता है और प्रत्येक प्रकार की प्रवृत्ति को निरूत्साहित करता है । इसका नीति और आचार शास्त्र इसी धारणा पर आधारित है। जैन क्वेकर - सम्प्रदाय

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