Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 144
________________ अनेकान्त/२३ पश्चिमी विश्वधर्म की अनेक पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी धारणायें इन पुस्तकों में प्राप्त विविध धारणाओं को अनेक कोटियों में वगीकृत पर निरूपित किया जा सकता है : अ. जैन धर्म सम्बन्धी सामान्य धारणायें : 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. कुछ पुस्तकों को छोड़कर अधिकांश पुस्तकों में अब भी जैनधर्म (और बुद्ध धर्म की भी ) को हिन्दूधर्म का सुधारवारी रूप माना गया है। इसकी उत्पत्ति परम्परागत वैदिक धर्म की प्रवृत्तियों के प्रति असंतोष से हुई है। (थ्रावर, मुनरो, फ्रेडमेन, कॉफमेन, होफ आदि) । यह हिन्दूधर्म का अल्पसंख्यक समुदाय है । जैन सम्प्रदाय एक विचित्र एवं कठिनता से ही समझा जा सकता है। जैन धर्म बुद्ध धर्म के समान आकर्षक प्रतीत नहीं होता क्योंकि जैन ग्रंथ कठिन और रूक्ष है । वे सबकी समझ में भी नहीं आते। टायनबी के अनुसार, जैनधर्म भयंकर आत्म- केन्द्री है | यह आत्म- केन्द्र एक बौद्धिक एवं नैतिक त्रुटि है और अस्मिता की जनक है। इसी कारण वह प्रसारित नहीं हो सका । I वाशम और श्वाइजर के अनुसार, जैनधर्म मूलतः स्वार्थी और नकारात्मक है । उसकी अर्हत् और तीर्थकर की धारणायें स्वार्थ पर ही आधारित हैं । ये बोधिसत्व के समान सर्व- हितार्थी नहीं हैं । (फिर भी, वे और थ्रावर यह मानते हैं कि नकारात्मक वृत्ति के दो सकारात्मक लाभ हुए हैं (1) सूक्ष्म ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा की शांति और (2) अन्तर्जगत् एवं बहिर्जगत के रहस्यों का ज्ञान । ये भी महतवपूर्ण उपलब्धियां हैं ) । जैन आचार और विचार अतिवादी हैं । इनके अनीश्वरवाद, भक्तिवाद, तपस्यायें एवं अहिंसावाद अतिवाद की सीमाओं के रूप हैं । वस्तुतः पश्चिमी समाज के लिये अनीश्वरवादी धर्म की धारणा इतनी अटपटी है कि वह उसे धर्म के अंग होने पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है । यह जीवन की उन्नति एवं विश्वासों का एक कठिनतम मार्ग है । प्रो. मुनरो का कथन है कि पश्चिमी धर्म संस्थायें पूर्वी धर्मो की तुलना —

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