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अनेकान्त/32
प्रायः कोई तैयार न था । इतने विशाल समाज में एक सिर उभरकर उठा, एक कदम आगे बढ़ा और एक वाणी सबके कानों में प्रतिध्वनित हुई
“सारा समाज सो जाये, कोई साथ न दे, तब भी मैं लडूंगा। यह दिगम्बर समाज के जीवन-मरण का प्रश्न है। मैं इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता !"
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यह सहारनपुर के प्रख्यात रईस ला. जम्बूप्रसादजी की वाणी थी, जिसने सारे समाज में एक नवचेतना की फुहार बरसा दी। मीठे बोल बोलना भले ही मुश्किल हो, ऊंचे बोल बोलना बहुत सरल है। इस सरलता में कठिनता की सृष्टि तब होती है, जब उनके अनुसार काम करने का समय आता है। लालाजी ने ऊंचे बोल बोले और उन्हें निबाहा, 50 हजार चांदी के सिक्के अपने घर से निकालकर उन्होंने खर्च किये और श्री ला देवीसहायजी फीरोजपुर निवासी एवं श्री तीर्थक्षेत्र कमेटी बम्बई के कन्धे से कन्धा मिलाकर पूरे ढाई वर्ष तक रात-दिन अपने को भूले, वे उसमें जुटे रहे और तब चैन से बैठे, जब समाज के गले में विजय की माला पड़ चुकी ।
मुकद्दमे के दिनों में ही उनकी पत्नी का भयंकर आपरेशन हुआ । मृत्यु सामने खड़ी थी, जीवन दूर दिखाई देता था, सबने चाहा कि वे पास रहें, पर उन्हें अवकाश न था, वे न आये । यह उनकी धुन, उनकी लगन की एक तस्वीर है, बहुत चमकदार और पूजा के लायक, पर यह अधूरी है, यदि हम यह न जान लें कि तब लाला जम्बूप्रसाद किस स्थिति में थे, जब समाज के अपमान का यह चैलेंज उन्होंने स्वीकार किया था ।
सन् 1877 में जन्मे और 1900 में इस स्टेट में दत्तक पुत्र के रूप में आये। तब वे मेरठ कालिज के एक होनहार विद्यार्थी थे। 1893 में उनका विवाह हो गया था, पर विवाह का बन्धन और इतनी बड़ी स्टेट की प्राप्ति उनके विद्या- प्रेम को न जीत सकी और वे पढ़ते गये, पर कुटुम्ब के दूसरे सदस्य स्टेट के अधिकारी बनकर आये और मुकद्दमेबाजी शुरू हुई। यह जीवन-मरण का प्रश्न था, कॉलेज को नमस्कार कर वे इस संघर्ष में आ कूदे और 1907 में विजयी हुए । पण्डित मोतीलाल नेहरू प्रिवीकौंसिल में आपके वकील थे और अपनी विजय, किसी विवाहित युवा के दत्तक होने की पहली नज़ीर थी । यह विजय बहुत बड़ी थी, पर बहुत महंगी भी। स्टेट की आर्थिक स्थिति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा था और आप उसे संभाल ही रहे थे कि शिखरजी का आह्वान आपने स्वीकार कर लिया ।
तीर्थ-रक्षक - अजितप्रसाद जैन
लखनऊ के श्री अजितप्रसाद जैन एडवोकेट ने दिगम्बरों के अधिकारों की