Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 129
________________ अनेकान्त/८ होंगे, जैन-शासन को जानने वाले नहीं होंगे। जो जैन-शासन को जानते हैं उन्हें चाहिये कि वे इस कदम को वापस ले लें। यदि ऐसा नहीं होता है, और कदम पीछे नहीं लिया जाता है तो भयानक स्थिति होगी। यहाँ पर केवल एक बार भोजन करने मात्र से श्रमण परंपरा निश्चित नहीं की जा सकती। ध्यान रखो, जो व्यक्ति परिग्रह का समर्थन करेगा और परिग्रह, आरंभ का समर्थन करेगा, जैन-शासन में उसे श्रमण कहने कहलाने का अधिकार नहीं है। जो मठाधीश होकर के बैठ रहे हैं, वे कभी भी जैन शासन के प्रभावक नहीं माने जावेंगे। __ भट्टारक परंपरा ने प्राचीन समय में बहुत काम किया हो, तो मैं मानता हूँ, वह कार्य उस समय रक्षा के लिये ठीक था। पर वह एक परम्परा, पंथ, मार्ग नहीं बन सकता। उसे एक आदर्श नहीं माना जा सकता। 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा था। उस समय मैं अजमेर में था। तब एक व्यक्ति ने आकर कहा-'महाराज ! विदेश में भी कुछ लोगों को, श्रमणों को जाना चाहिये। ताकि वहाँ के लोग भी श्रमण-परंपरा से अवगत हों।' मैंने कहा हमारे पीछे एक चर्या है। इस चर्या को आदर्श मानकर हम यत्र-तत्र विचरण करते हैं। आगम में कहा है-जहाँ पर श्रावक नहीं हैं। जहाँ पर उपसर्ग होते हों, कषाय उद्भूत होती हो-वहाँ पर न जायें। वीतरागता की उपासना करने में जहाँ पर श्रावक तल्लीन हो, वहाँ पर जायें। उस समय कई भट्टारक विदेश यात्रा करके आये। वहाँ उनसे पूछा गया था कि 'जैन साधु तो दिगंबर होते हैं और आप तो वस्त्र में हैं।' प्रश्न का उत्तर दिया गया-'हम श्रमण-परंपरा, के अंतिम साधु हैं।' अंतिम साधु के उत्तर पर मैंने कहा, अंतिम साधु कौन होता है ? इसका भी कोई हल होना चाहिये। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार तीन ही लिंग हैं-पहला श्रमण- दिगम्बर मुनि रूप, दूसरा श्रावक रूप ऐलक-क्षुल्लक, जिन्हें श्रावक शिरोमणी भी कह सकते हैं और तीसरा स्त्री समाज में आर्यिका का, उसी में श्राविका रूप क्षुल्लिका को भी रख सकते हैं। दिगंबर जैन साहित्य में ये ही तीन लिंग हैं। क्षुल्लक-पद और वर्तमान में भट्टारक का पद एक समान (इक्कवल) माना जा रहा है, ये गलत है। क्षुल्लक एक स्थान पर रुक नहीं सकता है। वह मुनि के पास रहा करता है। मुनि महाराज, आचार्य महाराज जैसा कहते हैं उसके अनुसार वह अपनी वृत्ति रखता है। काल मान की अपेक्षा से कहीं एकादि रह गया हो, तो यह बात अलग

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170