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विधानकर्ता-प्रतिष्ठाचार्य और साधुवर्ग तक इस आगम विपरीत क्रिया को बढ़ावा दे रहे हों तब आगमोक्त दृष्टि से इसकी समीक्षा की जानी चाहिए कि क्या यह प्रवृत्ति आगम परम्परा सम्मत है ? विधि-विधान और पूजा-पाठ तो मंदिर जी में ही होना श्रेष्ठ है, क्योंकि वहाँ का वातावरण तनावमुक्त शुद्ध और शान्त होता है। दूसरे, वीतरागी जिनबिम्ब के सम्मुख वीतरागभाव बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है । वहाँ आगम विरुद्ध प्रसाद वितरण जैसी भौंडी औपचारिकताओं का निर्वाह भी नहीं करना पड़ता है जबकि घरों में पूजा-पाठ कराने के बाद श्रावकों में प्रसाद वितरण का चलन हो चला है। साधुओं द्वारा भी प्रसाद वितरण में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किये जाने का प्रचार आगम विहित और मुनिचर्या के अनुकूल कैसे है ? प्रसाद वितरण तो तभी होगा जब आराध्य को भोग चढ़ाया जाय और जैन परम्परा में न तो भोग चढ़ाने की प्रथा है और न प्रसाद वितरण की ! अन्यथा दिगम्बर जैन परम्परा और अन्य परम्पराओं में अन्तर ही क्या रह जायेगा ? आडम्बरयुक्त परम्पराओं को विवेक शून्य होकर आत्मसात् करना आत्मघाती कदम होगा । अस्तु, जैनों की स्वस्थ परम्परा तभी जीवन्त रह सकेगी जब स्वाध्याय के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं का बोध जाग्रत हो और प्रबुद्ध श्रावक बनने की दिशा में प्रवृत्त हों ।
'अनेकान्त'
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