Book Title: Anekant 1999 Book 52 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 48
________________ अनेकान्त/७ और समाज का क्या हश्र होगा, इस कल्पना मात्र से हृदय सिहर उठता है। तीर्थाधिराज सम्मेदशिखर की तीस चौबीसी प्रतिष्ठा के समय का जो खाका मिला है। यदि सच है, तो जिनधर्मानुयायियों के लिए शर्म की बात है कि एक ओर अग्निकाण्ड में दम तोड़ते-झुलसते व कराहते साधर्मी दर्शक और दूसरी ओर आयोजनों की पूर्णता की ललक। अच्छा होता कि रवीन्द्र जैन जैसे प्रतिष्ठित संगीतज्ञ ऐसे समय में राग मेघ-मल्हार छेड़ते और उपस्थित साधु-परमेष्ठी अपनी तप साधना का प्रभाव दिखाते तो शायद यह अनिष्टकारी घटना टल जाती और लगे हाथ उनकी प्रभावना में चार चाँद लग जाते। आखिर, इन योजनाबद्ध आयोजनों की क्या इतनी ही सार्थकता रह गई है कि श्रेष्ठिवर्ग अपने धन वैभव का प्रदर्शन कर अपनी और दिगम्बर साधुओं की प्रच्छन्न लोकैषणा को पूरा करने के लिए आयोजन करें? भले ही धर्म-संस्कृति की मर्यादा रहे या न रहे। इतने बड़े आयोजन में यह खोजा जाना चाहिए कि कितने तीर्थयात्रियों ने श्रावकोचित व्रतादि ग्रहण किये। कोरी प्रतिष्ठा शून्य में शून्य के जोड़ने का निरर्थक प्रयास है। वैसे भी दिगम्बर जिनधर्म की प्रभावना आडम्बरयुक्त प्रदर्शन की मोहताज नहीं है। जिनधर्म की प्रभावना का आधार हमेशा से ही आचरण रहा है। आज भी जिनधर्म यदि कुछ जीवन्त है तो कुछ लोगों के आचरण के कारण । अतीत भी इसी कारण गौरवान्वित रहा है और आगे भी आचरण के आधार से ही जिनधर्म की प्रभावना हो सकेगी। आज सभी अपने-अपने आचरण से स्खलित हो रहे हैं इसीलिए आडम्बरों एवं वैभव प्रदर्शन का आश्रय लिया जा रहा है ताकि अपनी-अपनी कमियों को छिपाया जा सके। अस्तु, अब समय आ गया है कि 'अहिंसा परमोधर्मः' के स्थान पर 'आचारो परमो धर्मः' को प्रतिष्ठापित किया जाये। वैसे भी हमारी संस्कृति त्याग प्रधान है उसमें राग-रंग आडम्बर और भौंडे अनावश्यक प्रदर्शन को स्थान न था और न है। हमारा मूल अपरिग्रह पर आधारित है-तीर्थंकर भी दिगम्बर (अपरिग्रही) हुए। फिर दिगम्बरत्त्व और अपरिग्रहत्व से विपरीत-संग्रहीवृत्ति इस धर्म को क्यों कर बचा सकेगी। कहीं यह विषवेल दिगम्बरत्त्व को ही न ले डूबे? यह प्रसंग शोचनीय है।

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