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अब तो चेतो! पंचकल्याणक महोत्सव : एक पुनर्मूल्यांकन
- श्री नरेन्द्र प्रकाश जैन
अपने दिगम्बर जैन समाज में उत्सव प्रियता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अब पहले से कई गुने अधिक पंचकल्याणक महोत्सव होने लगे हैं। जहाँ नई मूर्तियाँ या मन्दिरों की आवश्यकता है, वहाँ भी और जहाँ नहीं है, वहाँ भी। यों कहने के लिए तो ये धार्मिक अनुष्ठान हैं किन्तु धार्मिक संस्कारों को जीवन्त बनाये रखने की प्रेरणा इनसे अब शायद ही किसी को मिलती हो। आडम्बर और प्रदर्शन बहुत बढ़ गये हैं। एक ओर तो पंखों और टी०वी० सैटों से सज्जित बढ़िया और विशाल पंडाल तथा बिजली की भारी जगमगाहट दर्शकों के चित्त को आकर्षित करती है तो दूसरी ओर रवीन्द्र जैन, राजेन्द्र जैन, अनुराधा पोडवाल, अनूप जलोटा आदि के भजन-संगीत एवं कौशिक-नाइट या कवि सम्मेलन आदि के कार्यक्रम भी भारी भीड़ें खींचते हैं। अधिक से अधिक भीड़ें जुटाना ही आज किसी भी आयोजन की सफलता का मापदण्ड मान लिया गया है। एक-एक महोत्सव पर बीस-तीस लाख से लेकर दो-ढाई करोड़ रुपयों तक के व्यय का कीर्तिमान अब तक स्थापित किया जा चुका है।
___ यह सब देख-सुनकर हमें खुशी भी होती है और रंज भी। खुशी तो इसलिए कि इससे जैन समाज की बढ़ती हुई समृद्धि का परिचय मिलता है और. रंज इसलिए कि पैसा पानी की तरह बहाकर भी परिणाम कुछ अच्छा नहीं दिख रहा है। इन समारोहों में धन की चमक और धमाके तो सुनाई देते हैं किन्तु धर्म का ह्रास होता हुआ नजर आता है। अब समय आ गया है कि हम महोत्सवों की आवश्यकता, महत्ता, रूप और स्वरूप के बारे में तटस्थ भाव से पुनर्मूल्यांकन करें।