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(पेज २७ का शेष)
ये सब उदय स्थान तीर्थंकर प्रकृति के उदय सहित ही बन सकते हैं (देखो नक्शा पृ. ५८३) सारतः तीर्थंकर सत्त्वी आत्मा को केवलज्ञान होने पर तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अभाव असम्भव है और उदय में समवसरणादिक विभूति होती ही है। (धवल १३/३६६) के अनुसार जस्स कम्मस्स उदएण. ..... तित्थं दुवालसंगं कुणदि तं तित्थयरंणाम। अर्थ- जिस कर्म के उदय से १२ अंगों की रचना करता है वह तीर्थंकर नाम है। वह रचना गणधर बिना नहीं बनती। गणधर के साथ गण या १२ सभा होती ही है। अरे! तीर्थंकर प्रकृति का उदय तो अचिन्त्य विभूति का कारण है। यथा-यस्योदयात् आर्हन्त्यम् अचिन्त्यविशेष युक्तम् उपजायते तत्तीर्थंकरत्वं नाम प्रतिपत्तव्यम् (रा. वा. ८/११/४०) अतः सुदृष्टितरंगिणी का यह वाक्य ठीक नहीं है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति के उदय वाले संयोगी केवली का विहार कम से कम भी वर्ष पृथक्त्व तक पाया जाता है। अतः कम से कम इतने वर्षों तक तीर्थंकर प्रकृति का उदय नियम से रहता है। फलस्वरूप आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारम्भ नहीं होता। प्रमाण- १. परमपूज्य धवला जी १२/४६४, धवला १५/६७, षटखं. परि. पृष्ठ ५०४, पंचसंग्रह पृ. ३७३-७४, संस्कृत पंचसंग्रह पृ. १७६ टीका, धवला ७/५७ आदि।
२०. पद्मनन्दि पंचविंशति (जीवराज ग्रन्थमाला) पृ. १६६-६७ में संस्कृत टीकाकार ने संस्कृत भी कहीं-कहीं अशुद्ध लिखी, बीच-बीच में हिन्दी का भी उन्होंने सहारा लिया तथा सैद्धान्तिक अशुद्धि भी उनकी टीका में है। एक नमूना देखिए-सम्यक्त्व में करण लब्धि के स्वरूप को लिखते हुए संस्कृत टीकाकार लिखते हैं-“अधःकरणं किम् ? सम्यक्त्व के परिणाम मिथ्यात्व के परिणाम समान करै (सो अधःकरण)। द्वितीय गणस्थाने। अपूर्णकरणं किम्? सम्यक्त्व के परिणामनिकी निवृत्ति नाहीं। दिन दिन चढ़ते जाहीं। यह अपूर्वकरण है।" इस प्रकार यह संस्कृत टीका अशुद्ध
है।
२१. नियमसार की ५३वीं गाथा की टीका में पद्मप्रभमलधारीदेव ने जिनसूत्र के ज्ञाता पुरुषों को सम्यक्त्व का अन्तरंग हेतु कहकर महान्