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अनेकान्त/२३
से नहीं देखा जा सकता।
१३. उसी ग्रन्थ में पृष्ठ २६ पर लिखा है कि कषाय प्राभृत जिसका दूसरा नाम महाधवत है..........
समीक्षा-यह भी ठीक नहीं है। कषायपाहुड का दूसरा नाम महाधवल नहीं, जयधवल है। वास्तव में तो कषाय प्राभृत की टीका का नाम जयधवला है। जबकि महाधवल तो महाबन्ध का दूसरा नाम है। यह महाबन्ध या महाधवल षट्खण्डागम का छठा खण्ड हैं
१४. पंचाध्यायी उत्तरार्ध श्लोक १०६१-६२ में लिखा है कि जितने भी असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच हैं उन सभी में भी केवल एक नपुसंक वेद ही होता है। वही द्रव्यवेद होता है तथा वही भाववेद होता है दूसरा वेद (स्त्रीवेद व पुरुषवेद) कभी नहीं होता। मूल इस प्रकार हैं
पंचाक्षासज्ञिनां चापि तिरश्चां स्यान्नपुंसक।
द्रव्यतो भावतोऽपि च वेदा नात्यः कदाचन।। समीक्षा-पं. राजमल जी ने यह गलत लिखा है। सम्पूर्ण दिगम्बर जैन वाङ्मय में करणानयोग के ग्रन्थों में असंज्ञी पंचेन्द्रिय के तीनो वेद कहे हैं। यथा-पंचेन्द्रिय तिर्यचों में गर्भज तथा सम्मूर्च्छन दोनों होते हैं। उनमें सम्मूर्च्छनों के तो एक नपुंसकवेद ही होता है। गर्भज असंज्ञी पंचेन्द्रिय के तीनों वेद होते हैं। इस तरह असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तीनों वेद होते हैं
प्रमाण-१. धवला ७/५५५ से ५५८ का अल्पबहुत्व, षट्खण्डागम परिशीलन पृ. १५३, मूलाचार भाग २ ज्ञानपीठ प्रकाशन पृ. ३२३ गाथा १२०१ टीका, गो. जी. गाथा ६८५, महाधवला २/३०४ धवला २/२६, धवला १/३४६, धवला ४/३६८, स. सि. पृ. ३६३ (ज्ञानपीठ) गो. जी. २८१, गो. जी. ७६ आदि।
१५. बनारसीदास ने अर्द्धकथानक में पद्य ५८३ में शान्तिकुन्थु अरनाथ का वर्णन श्वेताम्बर मतानुसार किया है। अतः वह ठीक नहीं है। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार अरनाथ की माता का नाम मित्रा तथा चिह्न मत्स्य होना चाहिए। वहाँ इससे भिन्न वर्णन है। बनारसी दास जन्मतः श्वेताम्बर थे। खरपत गच्छ के श्रावक थे। इनकी रचनाओं में भी उक्त प्रकार से