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वर्ष ३, किरण १० ]
इस ही प्रकार बहुत कर्म बंधन में फंसा हुआ जीव भी कुछ न कुछ दोश जरूर रखता है और अपनेको सुधार सकता है ।
हम और हमारा यह सारा संसार
बाह्य कारण मनुष्य के स्वभाव पर बड़ा असर डालते हैं, इस ही से उसके सोये हुए संस्कार जागते हैं । अश्लील तस्वीरें देखकर, अश्लील मजमून पढ़कर, अश्लील स्त्रियोंकी संगतीमें बैठकर कामवासना जागृत हो जाती है । गुस्सा दिलाने वाली बातें सुनकर क्रोध उठता है । शेरकी आवाज़ सुनकर ही भय होजाता है । बहादुरीकी बातें सुनकर स्वयं अपने मन में भी जोश श्राने लगता है । सुन्दर सुन्दर वस्तुओं को देखकर जी ललचाने लग जाता है । इस कारण हमको अपने भावों को ठीक रखने के वास्ते इस बात की बहुत ज्यादा ज़रूरत है कि हम ऐसे ही जीवों और अजीव पदार्थोंसे संयोग मिलावें जिसमें हमारे भाव उत्तम रहें, बिगड़ने न पावें और यदि किसी कारण से हम अपनेको बुरी संगति से नहीं बचा सकते हैं तो उस समय अपने मन पर ऐसा कड़ा पहन रखें कि हमारा मन उधर लगने ही न पावे ।
मनुष्यको हर वक्त ही दो ज़बरदस्त ताकतोंका सामना करना पड़ता है। एकतो संसार भरके अनन्तानन्त जीव और अजीव जो अपने २ स्वभाव के अनुसार कार्य करते रहते हैं, एक ही संसारमें हमारा और इन सबका कार्य होते रहने से हमसे उनकी मुठभेड़का होते रहना जरूरी ही है । उनमें से किसी समय किसीका संयोग हमको लाभदायक होता है और किसीका हानिकारक | इस वास्ते एकतो हमको हर वक्त ही इस कोशिश में लगे रहने की ज़रूरत है कि संसारके जीव और अजीवोंके हानिकर संयोगोंसे अपनेको बचाते रहें और लाभदायक संयोगोंको मिलाते रहें। दूसरे, बुरा या
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भला जो स्वभाव हमने अपना बना लिया है, जैसा कुछ भी अपने किये कर्मोंका बंधन हमने अपने साथ बाँध लिया है, उस स्वभाव के ही अनुसार न नाचते रहें, किंतु उसको ही अपने क़ाबू में रखें और अपने ही अनुसार चलावें ।
भाग्यके ही भरोसे अपनेको छोड़ देने का खोटा परिणाम
जो लोग यह कहने लगते हैं कि हमारे भाग्यने जैसा हमारा स्वभाव बना दिया है उसको हम बदल नहीं सकते । हमको तो अपने भाग्य के ही अनुसार चलना होगा, इस ही प्रकार संसारके जिन जीवों और जीव पदार्थोंसे हमारा वास्ता पड़ता है, जो कुछ हानि लाभ होना है, जो कुछ भाग्य में बदा है; वह तो होकर ही रहेगा, उसमें तो बाल बराबर भी फरक नहीं आ सकता है, ऐसे लोग भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर तो नहीं बैठते हैं । उनके स्वभावका ढाँचा, उनके शरीरकी प्रकृति, उनकी इन्द्रियों के विषय मान-माया, लोभ क्रोधादिक भड़क, राग और द्वेष, उनको चुपचाप तो नहीं बैठने देता है इस कारण कामतो वे कुछ न कुछ करते ही रहते है, किन्तु ऐसे नशिया लेकी तरह जो नशा पीकर अपनेको सम्हालने की कोशिश नहीं करता है, बल्कि नशे की तरंग के मुवाफिक ही नाच नचानेके लिये अनेको ढीला छोड़ देता है । ऐसे भाग्यको ही सब कुछ मानने वाले भी अपने मनकी तरंगों के अनुसार नाच नाचते रहते हैं और कहते रहते है कि क्या करें हमारा स्वभाव ही ऐसा बना है । इस प्रकार यह लोग अपनी खोटी २ कामनाओं, खोटी २ विषय वासनाओं में ही फसे रहते हैं। क्रोध मान-माया लोभ आदि जो भी जोश उठे या