Book Title: Anekant 1940 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ ग्रात्मोद्धार-विचार [ ले० - श्री० अमृतलाल चंचल ] शिष्य ध्यने कहा "गुरुदेव ! लाखों करोड़ों वर्ष होगये मुझे इस संसार सागर में अवरत भटकते और गोते खाते हुए ! अब तो पाकर कोई ऐसा मार्ग बताइये, जिसका अवलम्बन कर मैं इस जन्म-मरण के विकराल बंधन से मुक्ति पा सकूँ—छुटकारा पा सकूँ !” परमदयालु जगत हितकारी श्री गुरु कहते हैं सद्गुरु कहे स्वस्वरूपण जाय, एठजे तारुं जन्म टलशे ए प्रमाण । तारा जन्म-मरण नो कागल फाटे, सद्गुरु वचने विश्वास सखे ए माटे । अर्थात हे मुमुक्षु ! तू अपना स्वतः का रूप जान, अर्थात् मैं स्वयं सच्चिदानन्द रूप हूँ, देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि इन सबका साक्षी ऐसा प्रत्यगात्मा हूँ; देहान्द्रियादिक जितनी ये बाह्य वस्तुएँ हैं, उनसे मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; देहका वर्णाश्रमादिक धर्म व इन्द्रियोंका अध्यबधिर तादिक धर्म ये दोनों ही मेरे स्वरूपसे पूर्ण अस म्बन्धित बातें हैं; केवल शुद्ध चैतन्य रूप हूँ, ऐसा ज्ञान जिस समय भी तुझमें पूर्णरूपेण दृढ़ हो जायगा, तू उसी वक्त जन्म-मरण के पाशसे छुटकारा पाकर स्वयं ज्योतिर्मय रूप परम ब्रह्म परमात्मा हो जायगा । मनुष्य को भव भव में भटकाने वाले हेतु उसके द्वारा उपार्जित उसके अशुभ कर्म ही हैं। जिस समय तू सद्गुण के वचनों पर विश्वास करके 'अहं ब्रह्मास्मि' या 'मैं स्वयं ब्रह्मरूप हूँ' ऐसा ध्यान करेगा, तेरे श्रात्मासे अशुभ कर्मोंकी बेड़ी कट जायगी; तेरी जन्म-मरणको देने वाली ललाट-पत्रिकाके चिन्दे चिन्दे हो जायेंगे और तू उसी समय संसार सिन्धुसे पार होकर जीवन-मरण से मुक्त हो जायगा । वास्तव में आत्म-चिन्तवन या श्रात्म-श्रद्धान ही एक ऐसी वस्तु है, जिसका आश्रय लेकर मनुष्य इस अगाध-संसार-सागर से पार हो सकता है । क्यों ? इसीलिये कि जिसे हम परमात्मा कहते हैं, वह हमारे आत्माही का एक दूसरा रूप है । हमने अपने स्वरूपको न जाना, इससे हम 'हम' बने रहे और परमात्मा जान गया इससे वह 'परमात्मा' हो गया । परमात्मा बैठे थे, एक अल्हड़ पूछ बैठा - आखिर हममें और तुममें भेद किस बात का है जो हम तो साधारण मनुष्य बने रहे और आप परमात्मा बन बैठे ? परमेश्वर ने कहा तुम्हारे और मेरे में न कुछ भी भेद है बाबा ! 'न' जाना भेद बस तुमने यही इंक खेद है बाबा | यही बात है ! हम संसार के माया मोह और विषय कषायों में इस तरह फँसे हुए है कि हम अपने शरीर को ही अपना आत्मा मान बैठे हैं

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