Book Title: Anekant 1940 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 39
________________ वर्ष ३. कर १०] २. नृपतुंगने ई० सन् ७९५-७९७ के अन्दर जन्म लिया होगा, वैसे ही जिनसेनने ई० सन् ७५३ से पहिले ही जन्म लिया होगा, इससे जिनसेन नृपतुंगसे उमर में करीब ४२-४४ वर्ष बड़ा होगा । 'उत्तरपुराण' के श्लोक के अनुसार नृपतुंग -अमोघवर्षंने जिनसेनको वंदन किया यह बात जिनसेनकं अवसान के पहिले ही होनी चाहिये और वह ई० सन् ८४८ के पीछे होनी चाहिये। जिनसेनने अपनी 'जयधवला' टीका को ई० सन् ८३७ में पूर्ण किया उसके पहिले ही उसे अमोघवर्ष-नृपतुंगने अपना गुरू बनाया होगा, तब उस कीर्तिदायि विषयको जिनसेन अपने पवित्र ग्रन्थ - उस टीका में व्यक्त किये बिना 'अमोघवर्ष राजेन्द्र प्राज्यराज्यगुणोदया' इतना ही कह सकता था क्या? अथवा अपने शिष्य अमोघवर्षकी राजधानी में या उसके राज्यके अन्य स्थान पर उसे नहीं लिखकर ' गुर्जराय से पालित' ग्राम में उसे लिखता क्या ? नृपतुं का मत विचार ३. जिनसेन के अन्तिम ग्रन्थ 'आदिपुराण' में नृपतुंग-श्रमोघवर्षका नाम नहीं है। यदि वैसा नरेश उसका शिष्य हुआ होता तो उसका नाम जिनसेनने क्यों नहीं कहा सो समझ में नहीं आता । ४. गुणभद्रके 'उत्तरपुराण' में जिनसेनकी 'जयधवला' टीकामें तथा 'पाश्वभ्युदय' में ‘अमोघवर्ष' ऐसा नाम देखा जाता हैं; राष्ट्रकूट वंशके नरेश 'शर्व' का 'शर्व' नाम तथा मुख्यतः 'अमोघवर्ष' नाम से विशेष प्रख्यात् 'नृपतुंग' ऐसे नामका बिलकुल अभाव क्यों ? २६१ 'पाश्वभ्युदय' काव्य इस काव्य के अन्त में (४, ७० ) -- 'भुवनमवतु देवस्सर्वदा मोघवर्षः ॥' इस प्रकार सिर्फ आशीर्वाद वचन ही है । इससे यह काव्य पूर्ण करते वक्त अमोघवर्ष नामका कोई नरेश था उसे जिनसेनने अपने काव्यमें उल्लेखित किया, इतना ही मालूम पड़ता है; इससे वह अमोघवर्ष इस जिनसेन-द्वारा जैनधर्मी हुआ था -- उसका शिष्य हुआ ऐसा अर्थ होता हो तो मैं नहीं जानता । परन्तु इस काव्यकी छपी हुई प्रति (Nirnayasagara Press, Bombay: विक्रम सं० १९६६ ) के प्रत्येक सके अन्त में यह एक गद्य है : " इत्य मोघवर्ष परमेश्वर - परमगुरु श्री जिनसेनाचार्यविरचित-मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पाश्वभ्युदये भगवत् कैवल्यवर्णनं नाम ( प्रथम, द्वितीयः; तृतीयः, चतुर्थः) सर्गः॥” इससे जिनसेन अमोघवर्ष का गुरु था यह बात मालूम पड़ती है, पर यह रचना स्वयं जिनसेन की नहीं, बहुतसे समय के पश्चात् प्रक्षिप्त हुई होगी, यह बात निम्न लिखित कारणोंसे मालूम पड़ती है: १. यह काव्य कालिदास के 'मेघदूत' के ऊपर समस्या-पूर्ति के रूपमें रचा गया है । 'मेघदूत' 'पूर्वमेघ', 'उत्तरमेघ' इस प्रकार दो भाग हैं उनके अनुसार इसमें भी दो भाग होने चाहियें थे, पर इसमें वैसे न होकर केवल ४ सर्ग रक्खे गये हैं, जो न्यूनाधिक रूपमें विभाजित दिखाई देते हैं, * प्रथम सर्गमें ११८ पद्य, दूसरे में ११८, तीसरे में ५७, चौथेमें ०१, कुल पद्यसंख्या ३६४ ।

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