Book Title: Anekant 1940 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 41
________________ वर्ष ३, किरण १० ] कहने से मूल काव्यका सर्गान्तिम गद्य भाग भी इसके द्वारा जोड़ा हुआ मालूम पड़ता है। इस बात को और दृढ़ करने वाला एक और प्रबल आधार है । वह यह है : नृपतुगका मतविचार इस पंडिताचाचार्य ने अपनी व्याख्या में अपने से करीब ५५८-६०० वर्षोंके पीछे इस 'पाश्वभ्युदय' की उत्पत्ति-संबंध में इस प्रकार कहा है कि कालीदास नामका 'कश्चित्कवि' 'मेघदूत' नामक काव्यकी रचना करके, 'मदोद्धुर' होता हुआ। 'जिनेन्द्रािं सरोजेदिन्दिरोपम' * अमोघवर्ष के राज्य 'बंकापुर' में आया था, और उस अमोघवर्षको— 'सस्वस्य जिनसेनर्षि विधाय परमं गुरुम् । सद्ध द्योतयंस्तस्थौ पितृवत्पालयन् प्रजाः ॥ इस प्रकार वर्णित किया है। साथ ही, वहाँके रहने वाले विद्वानों की निंदा करते हुये ( 'विदुषोवगणयैष') कालीदास के इस काव्यको अमोघवर्ष के सामने पढ़ने पर, उसकी विद्याहंकृति निर्धारण करने के उद्देश्य से और उसे 'सन्मार्गोद्दीप्ति' पैदा कराने की इच्छा से अपने 'सतीर्थ्य' विनयसेन से प्रेरित एक-पाठी जिनसेनने उस काव्य के प्रत्येक चरणको क्रमशः प्रतिवृत्तमें वेष्टित करके इस 'पाश्वभ्युदय' की रचना की, और फिर उसे आस्थान में पढ़कर अपने काव्यसे ही कालिदासने प्रत्येक श्लोकसे चरण चुराकर ('स्तेयात' ) 'मेघदूत' की रचना की है, ऐसा कहा बतलाया !! * इस व्याख्या के अन्तिम गद्योंमें तथा अनुबन्धों में अथवा काव्य के प्रतिसर्गके अन्तिम स्थान पर जोड़े हुए गद्य में, इस काव्य में ( ४,७० ) दिखाई देने वाले 'अमोघवर्ष' नामके सिवाय उसका और कोई नामान्तर नहीं है। १६३ परन्तु इसके बराबर असंबद्ध दन्तकथा और कोई नहीं । कारण, कालिदास से जिनसेन कमसे कम २०० वर्षोंके करीब + पीछे हुआ, अथवा 'मेघदूत' से 'पार्श्ववाभ्युदय' श्रेष्टकाव्य कहला नहीं सकता, उसे श्रेष्ट बनाने के उद्देश्य से यह असंबुद्ध जनश्रुति अपने अनुबंध में घुसेड़कर पंडिताचार्य जिनसेनको अनृतवादी बना दिया। इसके सिवा इतिहास प्रमाण कोई मिलता नहीं; वैसे ही बकापुर अमोघवर्षकी राजधानी नहीं थी, यह बात पहिले ही कही जा चुकी है । इन सब कारणोंसे यह मालूम पड़ता है कि पंडिताचार्यने लोगों से कही हुई दन्तकथा पर विश्वास रखकर उसे दृढ करने के उद्देश्य से अपने अनुबन्धमें घुसेड़कर उसके आधार से जिनसेन अमोघवर्षका गुरु था यह बात 'पार्श्ववाभ्युदय' के प्रतिसर्ग के अन्तिम गद्य में लिखकर और उसके सिवाय अपनी व्याख्याके प्रत्येक सर्गके अन्तिम गद्य में पुनः पुनः जोरसे कही होगी। अतएव यह मूलकाव्यकी सर्गान्तिम गद्यरचना जिनसेनकी स्वतः रचना नहीं है; वह इस व्याख्याता पंडिताचार्य द्वारा या और किसीके द्वारा जोड़ी गई होगी। इतिहासको दृष्टि से उसकी बातें जिनसेन के सेंमथ से बहुत ही आधुनिक होने के कारण उसे निराधार समझ कर छोड़ना पड़ता हैं। + ई० सन् ६३४ के 'ऐहोले' के शासन में कालिदासका नाम है "सविजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदास भारविकीर्तिः || ” ( प्रा० ले०मा० नं०१६ )

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