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ORORDSIDEOPHOTOHIOMIGRIORLHOTOMOGALROINOGAONOHOROINDOPIOINDOHINOOROOMINGH श्रावण वीर नि० सं०२४६६
वर्ष ३, किरण १०
आवण वीर नि० सं०२४६६
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अनेकान्त
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अगस्त १९४०
वार्षिक मूल्य ३० FRONOGEIGHIOINOPIONOROOOOOOOHINOR@GP(INDVOINOLONOGEITIONOCOGEIO
एकात
निकात
मध्या
अमाव
आत्मा
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विशध
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पियाया
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साधम्य
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इतिहास
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DAFONOROETROOTOONLOOlQINOSFOOROSTIOPIOISEIGIOEIGHOGIOPIOINOOPNO सम्पादक
संचालकजुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर) कनॉट सर्कस पो० बो० नं० ४८ न्यू देहली। CONNOHARDROISONGARITRO ORIGIONNOGENOLONOGINOROFORGERG
मुद्रक और प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ।
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१. देवमन्दि-पूज्यपाद - स्मरण
• हम और हमारा यह सारा संसार - [बा० सूरजभान वकील
३. क्या खियाँ संसारकी क्षुद्र रचनाओं में से हैं ? - (श्रीललिता कुमारी जैन विदुषी, प्रभाकर
४. दीपक के प्रति [ श्रीरामकुमार 'स्नातक'
५. आत्मोद्धार- विचार - [ श्री अमृतलाल चंचल
६. सफेद पत्थर अथवा लाल हृदय - [ दीपक से
नृपतुंग का मतविचार - [ श्री एम. गोविन्द पैं
८. नवयुवकको स्वामी विवेकानन्द के उपदेश -- [ अनु० डा० बी० एल० जैन पी० एच० डी० ९. तामिल भाषा का जैन साहित्य - [ प्रो० ए० चक्रवर्ती एम. ए. आई. ई. एस.
१०. अहिंसा सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण प्रश्नावली -- [विजयसिंह नाहर
११. वीक हिंसाका प्रयोग - [ श्री महात्मा गाँधी
१२. उच्च कुल और उच्च जाति [ श्री. बी. एल. जैन
१२६
संशोधन
गत जून-जुलाई मास की संयुक्त किरण (८-१) में मुद्रित 'परिग्रह-परिमाण व्रत के दासी दास गुलाम थे' • इस लेख के छपने में कुछ अशुद्धियाँ हो गई हैं; जिनमेंसे खटकने वाली चंद खास अशुद्धियोंका संशोधन नीचे दिया • जाता है । पाठकजन उसे अपनी अपनी प्रतिमें बना लेवें:
23
५३० १३१.
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विषय-सूची
५३२
कालम १
पंक्ति
१८
७
१२
४
२०
२६
अशुद्ध
५५७
५५९
५६९
५७२
५७३
५७७
५७८
५९६
५९७
६०५
६०७
टाइटिल ३
पग्रहके
खेल
१५०
दास्याः स्युः
४८-११
१६६४
शुद्ध
परिग्रहके
खेत
१०२
अदासाः स्युः
८-४१५
११६४
-प्रकाशक
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दानवीर रा० ब० सेठ हीरालालजी, इन्दौर
आपने १५० जैनेतर संस्थाओं - - यूनिवर्सिटियों, कालेजों, हाईस्कूलों और लाइब्रेरियों को वर्ष के लिए और १०० जैनमन्दिरों पुस्तकालयोको ६ माहके लिए 'अनेकान्त' अपनी ओर से भिजवानेकी उदारता दिखाई है ।
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि. सहारनपुर । वर्ष ३ प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं० ४८, न्य देहली
किरण १० श्रावण-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं०२४६६, विक्रम सं० १९६७ :
देवनन्दि-पूज्यपाद-स्मरण . यो देवनन्दि-प्रथमाभिधानो बुद्ध था महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयं ॥ -श्रवणवेल्गोल शि०नं० ४०
जिनका प्रथम नाम-गुरुद्वारा दिया हुआ दीक्षानाम-'देवनन्दी' था, जो बादको बुद्धिकी प्रकर्षता के कारण 'जिनेन्द्रबुद्धि' कहलाए , वे प्राचार्यश्री 'पूज्यपाद' नामसे इसलिये प्रसिद्ध हुए हैं कि उनके चरणोंकी देवताओं ने आकर पूजा की थी।
श्रा पूज्य पादोद्धतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपादः । यदीयवैदुष्यगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि ॥ धृतविश्वबुद्धिरयमत्र योगिभिः कृतकृत्यभावमविभ्रदुच्चकैः । जिनवद्वभूव यदनङ्ग चापहृत स जिनेन्द्रबुद्धिरिति साधुवर्णितः ।।- श्रवणबेल्गोल शि० ले०नं० १०८
श्री पज्यपादने धर्मराज्यका उद्धार किया था-लोकमें धर्मकी पुनः प्रतिष्ठा की थी-इसीसे आप देवताअोंके अधिपति-द्वारा पूजे गये और 'पूज्यपाद' कहलाये । अापके विद्याविशिष्ट गुणोंको श्राज भी आपके द्वारा उद्धार पाये हुए-रचे हुए-शास्त्र बतला रहे हैं-उनका खला गान कर रहे हैं। आप जिनेन्द्रकी तरह विश्वबुद्धि के धारक समस्त शास्त्रविषयों के पारंगत थे और कामदेवको जीतने वाले थे, इसीसे आपमें ऊँचे दर्जेके कृतकृत्यभावको धारण करने वाले योगियोंने अापको ठीक ही 'जिनेन्द्रबुद्धि' कहा है।..
श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधर्द्धि जर्जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्रः । यत्पादधीतजल-संस्पशप्रभावात् कालायसं किल तदा कनकीचकार ।। --श्र०शि० नं० १०८ जो अद्वितीय औषध-ऋद्धि के धारक थे, विदेह-स्थित जिनेन्द्र भगवान के दर्शनसे जिनका गात्र पवित्र
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
हो गया था और जिनके चरण धोए जलके स्पर्श से एक समय लोहा भी सोना बन गया था, वे श्रीपज्य मुनि जयवन्त हों - अपने गुणोंसे लोक ह्रदयोंकी वशीभूत करें
1.
कवीनां तीर्थ कृकः कित। तत्र वर्ण्यते ।
विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थे यस्य वचोमयम् ॥ --मादपुर
जिनका वाङ्मय - शब्दशास्त्ररूपी व्याकरण - तीर्थ विद्वानोंके वचनमलको नष्ट करने वाला है, देवनन्दी कवियोंके -- नूतन संदर्भ रचने वालोंके - - तीर्थंकर हैं, उनके विषय में और अधिक क्या कहा जाय !चिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा ।
पार्श्वनाथच रिते, वादिराजः
शब्दाच येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ॥ जिनके द्वारा -- जिनके व्याकरणशास्त्रको लेकर --शब्द भले प्रकार सिद्ध होते हैं, वे देवनन्दी श्र महिमायुक्त देव हैं और अपना हित चाहने वालोंके द्वारा सदा वन्दना किये जाने के योग्य हैं।
पूज्यपादः सदा पूज्यपादः पूज्यः पुनातु माम् ।
व्याकरणार्णवो येन तीर्णो विस्तीर्ण सद्गुणः ॥ - पाण्डवपुराणे, शुभचन्द्रः
जो पूज्योंके द्वारा भी सदा पूज्यपाद हैं, व्याकरण-समुद्रको तिर गये हैं और विस्तृत सद्गुणों के भाव हैं, वे श्री पूज्यपाद आचार्य मुझे सदा पवित्र करो -- नित्य ही हृदयमें स्थित होकर पापोंसे मेरी रक्षा करो। स्पा कुर्वन्ति यद्वाचः काय वाक्-चित्तसंभवम् ।
कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ॥ - ज्ञानार्णवे, श्रीशुभचन्द्रः
• जिनके वचन प्राणियों के काय, वाक्य और मनः सम्बंधी दोषोंको दूर कर देते हैं-- अर्थात् जिनके वैद्यक शास्त्र के सम्यक प्रयोगसे शरीरके, व्याकरणशास्त्रसे वचन के और समाधिशास्त्र से मनके विकार है -- उन श्रीदेवनन्दी श्राचार्यको नमस्कार है ।
दूर ही ज
११८
न्यासं जैनेन्द्र संज्ञं सकलबुधनुतं परिणनीयस्य भूयो -
न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह भात्यसौ पूज्यपाद
स्वामी भूपालवन्द्यः स्वपरहितवचः पूर्ण इग्बोधवृत्तः ॥ - नगरताल्लुक शि० लेख०नं० ४६ जिन्होंने सकल बुधजनोंसे स्तुत 'जैनेन्द्र' नामका न्यास (व्याकरण) बनाया, पुनः पाणिनीय व्याकरण
पर 'शब्दावतार' नामका न्यास लिखा तथा मनुज-समाज के लिये दितरूप वैद्यक शास्त्र की रचना की और इन के बाद तत्वार्थ सूत्र टीका ( सर्वार्थसिद्धि ) का निर्माण किया, वे राजाओंसे वन्दनीय अथवा दुर्विनीत राजासे पूजितत--स्वपर हितकारी वचनों (ग्रन्थों) के प्रणेता और दर्शन • ज्ञान चारित्र से परिपूर्ण श्रीपूज्यपाद स्वाना ( अपने गुणोंसे ) खूब ही प्रकाशमान हैं ।
जैनेन्द्रं निजशब्दभागमतुलं सर्वार्थद्धिः परा सिद्धान्ते निपुणत्वमुद्घ कवितां जैनाभिषेकः स्वकः ।
छन्दः सूक्ष्मधियं समाधिशतकं स्वास्थ्यं यदीयं विदा
माख्यातीस पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणै ॥ - श्रवणबेलगोल शि० लेख नं० ४०
जिनका 'जैनेन्द्र' (व्याकरण) शब्दशास्त्र में अपने श्रतुलित भागको 'सवार्थसिद्धि' ( तत्त्वार्यटीका ) सिद्धान्तमें परम निपुणताको, 'जैनाभिषेक' ऊँचे दर्जेकी कविताको, छन्दःशास्त्र बुद्धि की सूक्ष्मता ( रचनाचातुर्य ) को और 'समाधिशतक' जिनकी स्वात्मस्थिति ( स्थितप्रज्ञता ) को संसार में विद्वानों पर प्रकट करता है वे 'प मुनीन्द्र मुनियोंके गणोंसे पूजनीय हैं।
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हम
और हमारा हमारा यह सारा संसार
[ लेखक -- बा० सूरजभान वकील ]
उत्थानिका
कोई कोई पुरुष भाग्यको ही सब कुछ मानकर, उसके द्वारा ही सब कुछ होना स्थिर करके उसके विरुद्ध कुछ भी न हो सकनेका सिद्धान्त स्थिर कर लेते हैं और हौंसला, हिम्मत, कोशिश और पुरुषार्थ सब ही को व्यर्थ समझ बैठते हैं। जिस देश या जातिमें ऐसी लहर चल जाती है वह नष्ट हो जाते हैं और गुलाम बन जाते हैं । अतः इस लेख के द्वारा इस बातके समझाने की कोशिश की गई है कि भाग्य क्या है वह किस प्रकार बनता है, उसकी शक्ति कितनी है और उसका कार्य क्या है; संसारके जीवों और अजीव पदार्थोंके साथ प्रत्येक जीवका संयोग किस प्रकार होता है और उस संयोगका क्या असर उस जीव पर पड़ता है; वह संयोग किस प्रकार मिलाया जा सकता है, किस प्रकार रोका जा सकता है और किस प्रकार उससे लाभ उठाने "या उसकी हानियोंसे बचने की कोशिश की जा सकती है किस प्रकार आगे के लिये अपना भाग्य उत्तम बनाया जा सकता है और किस प्रकार बने हुए खोटे भाग्यको सुधारा जा सकता है । आशा है पाठक इस लेखको श्राद्योपान्त पढ़कर ही इस पर अपनी मति स्थिर करेंगे और यदि उन्हें यह कथन लाभदायक तथा सबके लिये हितकारी और जरूरी प्रतीत हो तो हर तरह से इसके प्रचारका यत्न करेंगे इसको सब तक पहुँचानेकी पूरी कोशिश करेंगे।
धाकस्मिक घटनायें
हमारा यह सारा संसार अनन्तानन्त प्रकार के जीवों श्रौर अनन्तानन्त प्रकारके अजीव पदार्थोंसे भरा पड़ा है । सब ही जीव और अजीव अपने २ स्वभाव और शक्ति के अनुसार क्रिया करते रहते हैं, जिसका असर उनके आस पासकी चीज़ों पर पड़कर उनमें भी तरह तरहका लंटन - पलटन होता रहता है। सूरज निकलता है और छिपता है, पृथ्वी पर उसकी धूपके पड़ने से पानीकी भाप बनकर हवा में मिल जाती हैं, कोई वस्तु सूखती है कोई सड़ती है । हवा के चलने से सूखे पत्ते, घास फूंस और धूल-मिट्टी उड़कर कहींसे कहीं जा पड़ती हैं। पानी भी बहता हुआ अपने साथ बहुत चीजोंको बहा ले जाता है और गला सड़ा देता है । श्राग भी किसी वस्तु को जलाती है, किसीको पिघलाती है, किसी को पकाती है और किसीको नर्म या कड़ी बना देती है। संसारके इन अजीव पदार्थों में न तो ज्ञान है और न कोई इच्छा या इरादा, न सुख दुख महसूस करनेकी शक्ति ही है; तब इनमें न तो कोई कर्मबंधन ही होता है और न इनका कोई भाग्य ही बनता है । इस कारण दूसरे पदार्थोंकी क्रियाश्रोंसे इनमें जो श्रलटन पलटन हो जाता है, वह आकस्मिक या इत्तफाकिया ही कहा जाता है । जैसाकि कुछ ईंट बाज़ारसे लाकर उनमें से कुछसे तो रोटी बनानेका चूल्हा बना लिया, कुछसे पूजाकी वेदी और कुछ से टट्टी फिरनेका पाखाना । इस
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२६०
भनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६३
ही प्रकार बाज़ारसे कुछ कपड़ा लाकर कुछकी टोपी, है, परन्तु उस बेचारेको तो इसका कुछ भी ध्यान नहीं कुछ की लंगोटी और कुछका जता साफ करनेका है कि क्या हो रहा है। इसे ही तरह एक आदमी गाड़ी झाड़न बना लिसे प्रकार के सबभेद ज़करत या में बैठी रही है, गौड़ाके चलनेसे बेहद मर्दा उड़ता अवसरके अनुसार आकस्मिक या इत्तफाकिसा ही होते, जा रहा है, जिससे उसको भी बहुत दुख हो रहा है रहा करते हैं । पहलेसे तो उनका कोई भाग्य बना हुआ और उस रास्ते पर चलने वाले दूमरोंको भी। गाड़ीके होता ही नहीं, जिसके अनुसार यह सब घटनायें होती हों। पहियोंकी रगढ़ और बेलोके पैरों की टापोंसे रास्ते पड़े __बेजान सोमा शिया मर जैसा कि हुए अनेक छोटे छोटे . मी कुचले जा रहे हैं। अजीब पदार्थों पर होता है वैसा ही जीवों पर भी होता जिनके कुचलनेका इमदा गाड़ी वाले के मन में बिल्कुल है । जेठ-आषाढ़के कड़ाके की घूप में छोटे छोटे कीड़े भी नहीं है, तब यह सब अकस्मात् ही तो होरहा है । मर जाते हैं, तालाबका पानी सूख जाता है, जिससे .
सब कुछ भाग्यसे ही होता रहना उसकी सब मछलियाँ और अन्य भी जीव मर जाते हैं। बरसातकी पूर्वी हवा चलनेसे फलों और फलोंमें कीड़े
असंभव है पड़ जाते हैं, पानीके बरसनेसे अनेक प्रकारके कीड़े यदि यह कहा जाय कि यह सब कुछ अचानक पैदा हो जाते है और लाखों करोड़ों मर भी जाते हैं; नहीं हुआ किन्तु उन जीवोंके भाग्य से ही हुआ तो साथ परन्तु जेठ भाषाढमें कड़ी धूपका पड़ना, बरसातमें ही इसके यह भी मानना पड़ेगा कि इन जीवोंके भाग्य पूर्वी हवाका चलना और पानीका बरसना, यह सब तो ही गाडीको खीच कर यहाँ लाये । परन्तु गाड़ी वाले उन वस्तुओंके अपने स्वभावसे ही होता रहता है, किसी पर और गाड़ीके बैलों पर सड़क के इन जीवोंके भाग्य जीवके भाग्यसे नहीं होता । इस वास्ते उनसे जीवों पर की जबरदस्ती क्यों चली ? इसका कोई भी सही जवाब जो असर पड़ता है वह तो अकस्मात् ही होता है। न बन पड़नेसे अकस्मात् ही इनका कुचला जाना ____ हवा, पानी, अग्नि आदि अजीब पदार्थों में तो ज्ञान मानना पड़ता है । कसाईने गायको मारकर उसका नहीं, इच्छा नहीं, इरादा नहीं, इस कारण उनकी तो मांस बेच, अपने बाल बच्चोंका पेट पाला, तो क्या सब क्रियायें उनके स्वभावसे ही होती हैं, किन्तु जीवों गायके खोटे भाग्यने ही कसाईके हाथों गायके गले पर की जो क्रियायें इच्छा और इरादेसे होती हैं उनसे भी छुरा चलाया । डाकूने साहूकारके घर डाका डाल कर दूसरी वस्तुओं पर ऐसे असर पड़ जाते हैं, ऐसे अलटन- उसको और उसके सब घर वालोंको मारकर सब माल पलटन हो जाते हैं जिनकी न उनको इच्छा ही होती है लूट लिया, तो क्या साहूकारका भाग्य ही डाकूको बैंच
और न इरादा ही। जैसे कि जंगलका एक हिरण कर लाया और यह कृत्य कराया ? तब तो न तो शिकारीसे अपनी जान बचानेके वास्ते अंधाधुंध दौड़ा कसाईने ही कुछ पाप किया और न डाकूने हो कोई जा रहा है, परन्तु जहाँ जहाँ उसका पैर पड़ता जाता अपराध किया; बल्कि उल्टा गायके भाग्यने ही कसाई है वहाँ के पौधे घास पात और मिट्टी सब चूर चूर होते को गायके मारनेके वास्ते मजबूर किया और साहूकार चले जा रहे हैं, छोटे छोटे जीव भी सब कुचले जारहे का भाग्य ही बेचारे डाकूको खींचकर लाया । यदि
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वर्ष ३, किरण १०]
हम और हमारा यह सारा संसार
ऐसा ही माना जाये तब तो कोई भी किसी पापका करने पेड़ भी बहुत ही सुहावने लगने लगे; तब मेरे भाग्यने वाला, अथवा अपराधी नहीं ठहरता है । तब तो राज्य ही तो ये सब पेड़ वहाँ उगाकर खड़े कर रखे थे। एक का सारा प्रबन्ध, अदालत और पुलिस', धर्मशास्त्र और पेड़ टुंड मुंड सूखा खड़ा था, वह मुझे अच्छा नहीं उपदेश सब ही व्यर्थ हो जाते हैं और बिल्कुल ही अँधा- लगा; तब मेरा कोई खोटा भाग्य ज़रूर था, जिसने धुंधी फैल जाती है।
_यह सूखा पेड़ खड़ा कर रखा था । फिर जहाँ में टट्ठी यदि कोई यह कहने लगे कि सुख या दुख, जो बैठा वहाँ हज़ारों डाँस मच्छर मुझे दिक्क करने लगे, कुछ भी मुझको होता है, वह सब मेरे ही अपने किये उनको भी मेरा खोटा भाग्य ही खींचकर लाया था । कर्मोका फल या मेरे अपने भाग्यका ही कराया होता लौटते समय रास्तेमें अनेक स्त्री पुरुष आते जाते दीख है, अकस्मात् कुछ नहीं होता । तो यह भी कहना होगा पड़े, जिनसे मन-बह लाव होता रहा; तब वे भी मेरे कि उम्र भर मैंने जो कुछ देखा, सूंघा, चखा, छुआ भाग्यके ही ज़ोरसे वहाँ श्रा जा रहे थे। फिर आबादीमें या सुना, उससे थोड़ा या बहुत दुख-सुख मुझको अाकर तो दोर-डंगरों, स्त्री पुरुषों और बूढ़े बच्चोंकी ज़रूर ही होता रहा है । इस वास्ते वे सब वस्तुएँ मेरे बहुतसी चहल पहल देखनेमें आई; तब यह सब दृश्य ही भाग्यसे संसारमें पैदा होती रही हैं । आज सुबह ही भी मेरे भाग्यने ही तो मेरे देखने के वास्ते जुटा रखे थे। जिस मोटरकी गड़गड़ाहटने मुझे जगा दिया वह मेरे एक कुत्ता भौंक भौंक कर मुझे डराने लगा और मेरा भाग्यसे ही चलकर उस समय यहाँ श्राई । उस समय पीछा भी करने लगा जिसको मैंने लाठीसे भगाया, मैं जाग तो गया परन्तु मुझे संदेह रहा कि सुबह हो उसको भी मेरे खोटे भाग्यने ही मेरे पीछे लगाया था। गई या नहीं । कुछ देर पीछे ही रेलकी सीटी सुनाई इसके बाद सूरज निकला तो मेरे भाग्यसे धूप फैली तो दी वह सदा ६ बजे अाती है, इसलिये उससे मुझे मेरे भाग्यसे, फिर दिन भर जो मेरी आँखोंने देखा और सुबह होनेका यकीन होगया । तब मेरा भाग्य ही मेरा कानोंने सुना, संसारके मनुष्यों और पशु पक्षियोंकी वे संदेह दूर करने के लिये रेलको खींचकर लाया । उस सब क्रियायें भी मेरे ही भाग्यसे हुई; और केवल उस समय ठंडी हवा बड़ा भानन्द दे रही थी तब वह भी ही दिन क्या किन्तु उम्र भर जो कुछ मैंने देखा या मेरे भाग्यकी ही चलाई चल रही थी। मैं उठकर जंगल सुना, वह सब मेरे ही भाग्यसे होता रहा, मेंह बरसा को चल दिया, रास्ते में लोगोंके घरोंसे बोलने चालनेकी तो मेरे भाग्यसे, बादल गर्जा तो मेरे भाग्यसे, बिजली श्रावाज़ आ रही थी। जिससे मेरा दिल बहलता था, चमकी तो मेरे भाग्यसे, पर्वा-पछवा हवा चली तो मेरे तब उनको भी मेरे भाग्यने ही जगाकर बोलचाल करा भाग्यसे, रातको अनन्तानन्त तारे निकले तो मेरे भाग्य रखी थी। रास्ते में पेड़ों पर पक्षी तरह तरहकी बोलियाँ से। बोल रहे थे, जो बहुत प्यारी लगती थीं, तो उनको भी परसों रातको सोते सोते एकदम रोनेकी आवाज़ मेरे भाग्यने ही यह बोलियाँ बोलनेके वास्ते कहीं कहींसे आई जिससे मैं जाग गया, मालूम हुआ कि कोई मर लाकर वहाँ इकट्ठा किया था।
___ गया है, मैं बड़े मज़ेकी नींद सो रहा था, इस रोने के कुछ रोशनी हो जाने पर रास्तेके दोनों तरफ़के शोरसे मेरी नींद टूट गई, तब यह भी मानना पड़ेगा
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अनेकान्त
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
तरह२ की कथा कहानी जो पढ़ने में नाई, वे सब घटनायें मेरे भाग्यने ही तो पुराने ज़मानेंमे कराई होंगी, जिससे वे पुस्तकों में लिखी जावें और मेरे पढ़ने में आवें । अब भी जो जो मामले दुनियाँ में होते हैं और समाचार पत्रों में छपकर मेरे पढ़ने में आते हैं या लोगबागोंसे सुनने में आते हैं वे सब मामले मेरा भाग्य ही तो दुनियाँ भरमें कराता रहता है, जिससे वे छपकर मेरे पढ़ने में आवें या लोगोंकी ज़बानी सुने जावें ।
जो
1
कि मेरे खोटे भाग्य से ही पड़ौसीकी मौत हुई, जिससे रोनेका शोर उठा और मेरी नींद टूटी। मैं फिर सो गया और फिर एक भारी शोरके सबब जागना पड़ा; मालूम हुआ कि किसीके यहाँ चोरी होगई तब यह चोरी भी तो मेरे ही भाग्यने कराई जिससे शोर उठ कर मुझे जागना पड़ा । कई घार मैं देश-विदेश घूमने के लिये गया हूँ । मोटर या रेलमें सफ़र करते हुए भी मुसाफिर मुझे मिलते रहे हैं, उनको मेरा भाग्य ही कहीं कहींसे खींच लाकर सफ़र में मुझे मिलाता रहा कोई उतरता है, कोई चढ़ता है, कोई उठता है, कोई बैठता है, कोई सोता है कोई जागता है, कोई हँसता है, कोई रोता है, कोई लड़ता है कोई झगड़ता है, यह सब कर्तव्य भी मेरा भाग्य ही उनसे मेरे दिखाने के वास्ते कराता रहा है। रेलमें बैठे हुए पहाड़ जंगल नदी-नाले, बाग़ बगीचे, खेत और मकान, उनमें काम करते हुए स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, ढोर-डंगर, जंगलोंमें फिरते हुए तरह तरहके जंगली जानवर और उड़ते हुए पक्षी और भी जो जो दृश्य देखने में श्राये, वे सब मेरे ही भाग्यने मेरें देखने के वास्ते पहले से जुटा रखे थे ।
फिर जिन जिन नगरोंमें मैं घूमता फिरा हूँ, वहाँके महल, मकान और दुकान, श्रौर भी जो जो मनमनभावनी वस्तु वहाँ देखने में श्राई, वे सब मेरे भाग्य नेही तो वहाँ मेरे दिखाने के वास्ते पहले ही बना रखी थीं। ग़रज़ कहाँ तक कहूँ, उम्र भर जो कुछ मेरी
खोंने देखा या कानों ने सुना, वह सब मेरे दिखाने या सुनाने के वास्ते मेरे भाग्यने ही किया और संसार के जीवों और जीव पदार्थोंसे कराया । सच तो यह है कि बीते हुए ज़माने की जो जो बातें पुस्तकों में पढ़ने में
ई राज पलटे, लड़ाइयाँ हुई, रामका बनवास, सीता का हरण, रावण से युद्ध, महाभारतकी लड़ाई और भी
इस प्रकार यदि कोई पुरुष दुनियां भरका सारा काम अपने ही भाग्यसे होता रहना ठहराने लगे, यहाँ तक कि लाखों करोड़ों वर्ष पहले भी दुनियाका जो वृतान्त पुस्तकों में पढ़ने में आता है, उसको भी अपने ही भाग्यसे हुआ बताने लगे, तो क्या उसकी यह बात मानने लायक हो सकती है, या एक मात्र पाग़ल की बरड़ ठहरती है ।
इस तरह तो हर एक शख्स संसारकी समस्त रचनाओं और घटनाओं के साथ अपने भाग्यका सम्बन्ध जोड़ सकता है और उन सबका अपने भाग्यसे ही होना बतला सकता है; तब किसी भी एकके भाग्यसे उन सबके होने का कोई नियम नहीं बन सकता और न जीव जीव पदार्थों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व या व्यक्तित्व ही रह सकता है ।
आकस्मिक संयोग कैसे मिल जाते हैं।
कहावत प्रसिद्ध है कि एक बैलगाड़ी चली जा रही थी । धूपकी गर्मीसे बचने के वास्ते एक कुत्ता भी उस गाड़ीके नीचे २ चलने लगा । चलते २ वह यह भूल गया कि गाड़ी अपनी ताकत से चल रही है. और मैं अपनी ताक़तसे, न गाड़ी मेरी ताक्कतसे चल रही है श्रौर न मैं गाड़ीकी ताकतसे, किन्तु गाड़ीके
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वर्ष
३, किरण १०]
हम और हमारा यह सारा संसार
नीचे नीचे चलने से मेरा उसका संयोग ज़रूर हो गया है । यह सब बातें भूलकर घमंडके मारे उसके दिमाग़ में यही समा गया कि यह गाड़ी भी मेरे ही सहारे चल रही है । इस ही प्रकार संसार में श्रनन्तानन्त जीव और अजीव सब अपनी २ शक्ति और स्वभाव के अनुसार ही कार्य करते हैं परन्तु एक ही संसार में उनके सब कार्य होते रहने से एक दूसरे से उनको मुठभेड़ होते रहना या संयोग मिलना लाज़िमी और ज़रूरी ही है । परन्तु इस तरह यह समझ बैठना कि उन सबके वे कार्य मेरे भाग्य से ही हो रहे हैं, बड़ी भारी भूल है ।
बाज़ार में तरह तरहके ऐसे खिलौने मिलते हैं जो चाची देखेसे संरह तरहके खेल करने लगते हैं । कोई दौड़ता है, कोई उछलता है, कोई कूदता है, कोई घूमता है, कोई नाचता है, कोई कलाबाज़ी करता है । अगर इन सबको चाबी देकर एकदम एक कमरे में छोड़ दिया जावे तो वे सब अपना अपना काम करते हुये एक दूसरेसे टकरा जायेंगे । जिससे कोई उथल जायेगा, कोई कार्य करनेसे रुक जायेगा, कोई उलटा पुलटा काम करने लग जायेगा, किसीकी कूक निकल जायेगी लेकिन यह सब खिलौने तो अपनी २ शक्ति और स्वभाव के अनुसार ही काम कर रहे थे । एक दूसरे से तो इनका कोई भी संबंध नहीं था । केवल एक ही कमरे में काम करते रहने से, आपस में उनकी मुठभेड़ होगई और उनका खेल बखेल होकर ऐसी उथलपुथल हो गई जो उनके स्वभाव के बिल्कुल ही विरुद्ध थी. इस ही प्रकार संसारके सब ही जीव अजीव अपनी २ शक्ति और स्वभाव के अनुसार इस दुनिया में काम करते हैं, जिनकी आपस में मुठभेड़ होजाना और उस मुठभेड़की वजहसे ही उनमें उथल-पुथल और खेलबखेल होते रहना भी लाजिमी और जरूरी ही है ।
·
५६३
ऐसी ही सब घटनायें आकस्मिक या इत्तफ़ाकिया कहलाती हैं। जो किसीके भाग्यकी कराई नहीं होती हैं ।
पानीसे भरे तालाब में ढेला मारनेसे एक गोल चक्करसा होजाता है और वह चक्कर अपने आस पास के पानीको टक्कर देकर दूसरा बड़ा चक्कर बना देता है । इसी तरह और भी बड़े बड़े चक्कर बनते बनते किनारे तक पहुँच जाते हैं। यदि इस ही बीच में कोई दूसरा ढेला भी फेंक दिया जाय तो उसके भी चक्कर बनने लगेंगे और पहले चक्करसे टकराकर उन पहले चक्करों को भी तोड़ने फौड़ने लगेंगे और खुद भी टूटने फूट लगेंगे। इस ही प्रकार यदि सैंकड़ों ढेले एक दम उस तालाब में फैंके जायें तो वे अलग अलग सैंकड़ों चक्कर बनाकर एक दूसरेंसे टकरावेंगे और सब चक्कर टूट फूट कर पानी में तहलकासा मचने लग जावेगा । यही हाल संसार के अनन्तानन्त जीवों और जीवों की क्रियाओंका है, जिनके सब काम इस एकही संसारमें होते रहने के कारण आपस में टकराते हैं और गड़बड़ पैदा होती है ।
यह सब मुठभेड़ या संयोग श्राकस्मिक या. इत्तफ़ाकियां ही होता है, किसीके भाग्यका बाँधा हुआ नहीं होता है । तब ही तो सब ही जीव हानिकारक संयोगों से बचने की और लाभदायक संयोगोंको मिलानेकी कोशिश करते रहते हैं, यह ही सब जीवोंका जीवन है, इस ही में उनका सारा जीवन व्यतीत होता रहता है, इसीको हिम्मत या पुरुषार्थ कहते हैं, यही एक मात्र जीव और अजीव में भेद है । जीव पदार्थों में न हिम्मत... है न इरादा, जो कुछ होता है वह उनके स्वभावसे ही होता रहता है । परन्तु जीवोंमें हिम्मत भी है और इरादा भी है। इस ही कारण वे भाग्य होनहार वा प्रकृतिके भरोसे नहीं बैठते हैं । जंगलके जीव भी खाना : पानीके लिये ढूंढ भाल करते हैं, इधर उधर फिरते हैं, ;
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१०. अनेकान्त ...
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धूप और बारिशस बचनेकी कोशिश करते हैं और मारे कर ईट पत्थर के समान निर्जीव बन जाती है । जानेका भय होने पर दौड़-भाग कर या लड़ भिड़कर भाग्य क्या है और वह किस तरह अपने बचावका भी उपाय करते हैं । मनुष्य तो बिल्कुल ही उद्यम और पुरुषार्थका पुतला है, इस ही कारण बनता बिगड़ता है । अन्य जीवोंसे ऊँचा समझा जाता है । वह पशु-पक्षियों यह हम हर्गिज़ नहीं कहते कि अबसे पहला कोई के समान अपना खाना-पीना ढढता नहीं फिरता है, जन्म ही नहीं है या जीवोंके पहले कोई कर्म ही नहीं हैं, कुदरतसे आप ही श्राप जो पैदा हो जाय उस ही को जिनका फल इस जन्ममें न हो रहा हो या जीवोंका काफ़ी नहीं समझता है; किन्तु स्वयं सहस्रों प्रकारकी कोई भाग्य ही नहीं है । यह सब कुछ है; किन्तु खानेकी वस्तुएँ पैदा करता है, अनेक प्रकारके संयोग जितना उनका फल है, जितनी उनकी शक्ति है, उतनी मिलाकर और पका कर उनको सुस्वादु और अपनी ही मानते हैं, उनको सर्व शक्तिमान नहीं मानते, न प्रकृति के अनुकूल बनाता है, क्या खाना लाभदायक है यह मानते हैं कि सब कुछ उन ही के द्वारा होता है।
और क्या हानिकारक, क्या वस्तु किस अवस्था में खानी जीवके कर्म क्या हैं, उनका बंधन जीवके साथ किस चाहिये और क्या नहीं, इन सब बातोंकी जाँच पड़ताल प्रकार होता है, उन कर्मोंकी शक्ति क्या है और उनका करता है, धूप हवा और पानीसे बचने के वास्ते कपड़े काम क्या है और भाग्य क्या है, किस तरह बनता है । बनाता है, मकान चिनता है, आग जलाता है, पंखा इन सब बातोंकी जांच करनेसे ही काम चलता है, तब हिलाता है, रातको रोशनी करता है, पानीके लिये ही कुछ पुरुषार्थ किया जा सकता है और पुरुष बना कुश्रा खोदता है या नल लगाता है, धरती खोदकर जा सकता है । हज़ारों वस्तु निकाल लाता है और उनको अपने काम अाजकलकी सायंसने यह बात तो भले प्रकार की बनाता है, अनेक पशु-पक्षियोंको पालकर उनसे भी सिद्ध कर दी है कि संसारमें जीव या अजीव रूप जो भी अपना कार्य सिद्ध करता है, और इस तरह अनेक पदार्थ हैं उनके उपादानका कभी नाश नहीं होता है प्रकारके उद्यम करते रहने में ही सारा जीवन बिताता और न नवीन उपादान पैदा ही होता है, किन्तु उनकी है । जितना जितना यह इस विषयमें उन्नति करता है पर्याय, अवस्था रूप अवश्य बदलता रहता है । लकड़ी जितना जितना यह संसारकी वस्तुओं पर काबू पाता जल कर राख, कोयला या धुंाँ बन जाती है, उसमें जाता है उतना उतना ही बड़ा गिना जाता है । जो से नाश एक परमाणुका भी नहीं होता है । पानी गर्मी भाग्य या होमहारके भरोसे बैठा रहता है वह दुख पाकर भाप बन जाता है और सर्दी पानेसे जमकर बर्फ उठाता है जिस देश या जिस जातिमें यह हवा चल बन जाता है । एक ही खेतमें तरह तरह के फलों-फलों, जाती है जो भाग्यको सर्वशक्तिमान मानकर सब कुछ तरकारियों और अनाजोंके पेड़-पौदे और बेलें लगी उस ही के द्वारा होना मान बैठते हैं वह देश या जाति हुई हैं, जंगली झाड़ियाँ और घास फूस भी तरह २ के मनष्यत्वसे गिरकर पशु समान हो जाती है दूसरोंकी उगे हुए हैं। यह सब एक ही प्रकारकी मिट्ठी-पानीसे गुलम बनकर खूटेसे बाँधी जाती है या जीवमहीन हो परवरिश पा रहे हैं और बढ़ रहे हैं । उस ही मिट्टी
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हम और हमारा यह सारा संसार
पानीसे नीमका पेड़ बढ़ रहा है और उस ही से नींबू पलटन होता रहता है । नारंगी और श्राम-इमली का । भावार्थ यह है कि उस जीवोंका शरीर तो मिट्टी-पानी आदि अजीव ही मिट्टी पानीके परमाणु नीमके पेड़ के अन्दर जाकर पदार्थोका ही बना होता है, उसके अन्दर जो जीवात्मा नीमके पत्ते, फल और फल बन जाते हैं. और वे नारंगी होती है, उस ही में शान और राग-द्वेष, मान-माया, के पेड़ में जाकर नारंगीके फूल फल और पत्ते बन जाते लोभ-क्रोध श्रादि भड़क, इच्छा, विषय-वासना हिम्मत हैं । फिर इन सहस्रों प्रकारकी बनस्पतिको गाय, बकरी, हौंसला, इरादा और सुख-दुखका अनुभव अादिक भैंस, खाती हैं तो उन जैसा अलग २ प्रकारका शरीर होता है । परन्तु यह सब बातें प्रत्येक जीवमें एक समान बनता रहता है और मनुष्य खाता है तो मनुष्यकी देह नहीं होती है । किसीका कैसा स्वभाव होता है और बन जाती है और फिर अन्तमें यह सब वनसति, पशु किसीका कैसा; जैसाकि कोई गाय मरखनी होती है और
और मनुष्य मिट्टीमें मिलकर मिट्टी ही हो जाते हैं, कोई असील । मनुष्य भी जन्मसे ही कोई किसी स्वभाव इस प्रकार यह श्राश्चर्यजनक परिवर्तन अजीब पदार्थों का होता है और कोई किसी स्वभावका । इससे यही का होता रहता है। यह चक्कर सदासे चला आता है सिद्ध होता है कि पहिले जन्ममें जैसा दाँचा किसी और सदा तक चलता रहेगा।
जीवके स्वभावका बन जाता है, वही स्वभाव वह मरने __हम यह पहले ही कह चुके हैं कि संसारमें दो पर अपने साथ लाता है । प्रकार के पदार्थ हैं एक जीव और दूसरे अजीव । जीवों जीव और अजीव दोनों ही पदार्थों में, किसी काम का शरीर भी अजीव पदार्थोंका ही बना होता है, इस को करते रहने से, उस कामको करते रहनेकी आदत ही कारण जीव निकल जाने पर मृतक शरीर यहीं पड़ जाती है । कुम्हार चाकको डंडेसे घुमाकर छोड़ देता पड़ा रहता है । जब संसारकी कोई वस्तु नवीन पैदा है, तब भी वह चाक कुछ देर तक घूमता ही रहता है । नहीं होती है और न नष्ट ही होती है केवल अवस्था ही लड़के डोरा लपेटकर लट्ट को घमाते हैं, परन्तु डोरा बदलती रहती है, ऐसा सायंसने अटल रूप सिद्ध कर अलग हो जाने पर भी वह लट्ट बहुत देर तक घूमा ही दिया है तब जीवोंकी बाबत भी यह ही मानना पड़ता करता है, पानीको हिलाने या उंगलीसे घुमा देने पर है कि वे भी सदासे हैं और सदा तक रहेंगे । बेशक वह स्वयमेव भी हिलता या घूमता रहता है । साल भर पर्यायका पलटना उनमें भी ज़रूर होता रहेगा। जीवकी तक जो सन् संवत हम लिखते रहते हैं, नया साल भी एक पर्याय छूटने पर कोई दूसरी पर्याय ज़रूर हो लगने पर भी कुछ दिन तक वह ही सन् संवत लिखा जाती है और पहले भी उसकी कोई पर्याय ज़रूर थी जाता है । भाँग तम्बाकू आदि नशेकी चीज़ या मिर्च, जिसके छूट जाने पर उसकी यह वर्तमान पर्याय हुई मिठाई, खटाई श्रादि खाते रहनेसे उनकी आदत पड़ है । अजीव पदार्थोकी तरह जीवोंकी भी यह अलटन जाती है । ताश, चौपड़, शतरंज श्रादि खेलोंको बराबर पलटन सदासे ही होता चला आ रहा है और सदा तक खेलते रहने से उनकी ऐसी आदत पड़ जाती है कि होता रहेगा । जीवोंकी जितनी जातियाँ संसारमें हैं ज़रूरी काम छोड़ कर भी खेलनेको ही जी चाहने लगता जितने उनके भेद हैं उन ही में उनका यह अलटन है। जिन बच्चोंके साथ ज्यादा लाड़ होता है उनका
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अनेकान्त
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स्वभाव ऐसा खराब हो जाता है कि उम्रभर सुधरना स्वभावोंका पुतला बन जाता है उनही अपने स्वभावोंको मुश्किल हो जाता है । खोटी संगत का भी बड़ा असर साथ लेकर वह मरता है और उनही को साथ लेकर वह होता है । जिस स्त्री को वेश्या बनकर कुशील जीवन दूसरा जन्म लेता है । यही उसका कर्मवंधन, स्वभावका बिताना पड़ता है, निर्लज्जता और मायाचार उसका ढाँचा या भाग्य है. जो वह अपने आन्तरिक भावों या स्वभाव हो जाता है । कसाई और डाकू निर्दय हो जाते नीयतोंके अनुसार सदा ही बनता रहता है । हैं। पुलिस और फौजके सिपाही भी कठोर हृदय बन आज जो कपड़ा हमने पहना है, वह पाँच चार जाते हैं । जिनकी झठी प्रशंसा होती रहती है उसको दिनके बाद मैला दिखाई देने लगता है । परन्तु क्या अपने दोष भी गुण ही दिखाई देने लगते हैं, नसीहतसे वह उसी दिन मैला हुआ है जिस दिन मैला दिखाई उसको चिड़ हो जाती है, यहाँ तक कि उसके दोष देता है. ? नहीं, मैला तो वह उस दिन ही समयसे होना बताने वालों को वह अपना बैरी समझने लग जाता है। शुरू हो गया था जबसे उसको पहनने लगे थे, परन्तु ऐसा ही और भी सब बातोंकी बाबत समझ लेना शुरू २ में उसका मैलापन इतना कमती था कि दिखाई चाहिये।
नहीं देता था, होते २ जब वह मैलापन बढ़ गया, तब इस प्रकार इस जन्ममें बने हुए हमारे स्वभावसे इस दखाई भी देने लग गया । ऐसे ही प्रत्येक समय जैसे २ जन्म में भी हमको सुख दुख मिलता है और अगले भाव जीवात्माके होते हैं; बुरी या भली जैसी नीयत जन्ममें भी । मरने पर दुनियाकी कोई चीज़, जीव या उसकी होती रहती है, वैसा ही रंग उस जीवात्मा पर अजीव, हमारे साथ नहीं जाती है । इस जन्मके हमारे चढ़ता रहता है । उसकी आदत या स्वभाव बनता सुख-दुख के सब सामान यहीं रह जाते हैं, अपनी जानमें रहता है। भी ज्यादा प्यारे स्त्री, पुत्र, इष्टमित्र और धन-सम्पत्ति सब यहीं रह जाती है, यहां तक कि हमारा शरीर भी नापाका अपारसुवारा जा सकता है
भाग्य किस प्रकार सुधारा जा सकता है जिससे कि हमारा जीव बिल्कुलही एकमेक हो रहा था अपने ही हाथों डाली इन आदतों या संस्कारों का यहीं रह जाता है । इसी कारण हमारे इस शरीर में जो बिल्कुल ही ऐसा हाल होता है जैसा कि नशा पीकर
आदतें पड़ गई थीं, जिनको हम अपनी ही आदतें माना पागल हुए मनुष्यका हो जाता है, वह सर्व प्रकारकी करते थे, वे आदतें भी शरीरके साथ यहीं रह जाती हैं। उलटी-पुलटी. क्रिया करता है, बेहूदा बकता है और यही नहीं बल्कि जो जो याददास्त हमारे दिमाग़में हानि लाभ का खयाल भूल जाता है । परन्तु चाहे इकट्ठी होती रहती थीं, वे भी दिमाग़के साथ यहीं कितना ही तेज़ नशा किया हो तो भी कुछ न कुछ ज्ञान समाप्त हो जाती हैं । परन्तु मान माया, लोभ-क्रोधादिक उसमें बाकी-जरूर रहता है तब ही तो कोई भारी खौफ तरंगे जो हमारी अन्तरात्मामें उठती रहती हैं, हमारी सामने आने पर सारा नशा उतर जाता है और भयभीत अन्तरात्मामें उनका संस्कार या आदत पड़कर, हमारी होकर अपने बचाव का उपाय करने लगता है । किसी अन्तरात्मामें उनका बंधन होकर मरने पर भी वे हमारे बड़े हाकिम आदिके सामने आ जाने पर भी नशा दूर साथ जाती हैं । यह हमारा जीवात्मा जिस प्रकारके हो जाता है । और होशकी बातें करने लग जाता है।
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इस ही प्रकार बहुत कर्म बंधन में फंसा हुआ जीव भी कुछ न कुछ दोश जरूर रखता है और अपनेको सुधार सकता है ।
हम और हमारा यह सारा संसार
बाह्य कारण मनुष्य के स्वभाव पर बड़ा असर डालते हैं, इस ही से उसके सोये हुए संस्कार जागते हैं । अश्लील तस्वीरें देखकर, अश्लील मजमून पढ़कर, अश्लील स्त्रियोंकी संगतीमें बैठकर कामवासना जागृत हो जाती है । गुस्सा दिलाने वाली बातें सुनकर क्रोध उठता है । शेरकी आवाज़ सुनकर ही भय होजाता है । बहादुरीकी बातें सुनकर स्वयं अपने मन में भी जोश श्राने लगता है । सुन्दर सुन्दर वस्तुओं को देखकर जी ललचाने लग जाता है । इस कारण हमको अपने भावों को ठीक रखने के वास्ते इस बात की बहुत ज्यादा ज़रूरत है कि हम ऐसे ही जीवों और अजीव पदार्थोंसे संयोग मिलावें जिसमें हमारे भाव उत्तम रहें, बिगड़ने न पावें और यदि किसी कारण से हम अपनेको बुरी संगति से नहीं बचा सकते हैं तो उस समय अपने मन पर ऐसा कड़ा पहन रखें कि हमारा मन उधर लगने ही न पावे ।
मनुष्यको हर वक्त ही दो ज़बरदस्त ताकतोंका सामना करना पड़ता है। एकतो संसार भरके अनन्तानन्त जीव और अजीव जो अपने २ स्वभाव के अनुसार कार्य करते रहते हैं, एक ही संसारमें हमारा और इन सबका कार्य होते रहने से हमसे उनकी मुठभेड़का होते रहना जरूरी ही है । उनमें से किसी समय किसीका संयोग हमको लाभदायक होता है और किसीका हानिकारक | इस वास्ते एकतो हमको हर वक्त ही इस कोशिश में लगे रहने की ज़रूरत है कि संसारके जीव और अजीवोंके हानिकर संयोगोंसे अपनेको बचाते रहें और लाभदायक संयोगोंको मिलाते रहें। दूसरे, बुरा या
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भला जो स्वभाव हमने अपना बना लिया है, जैसा कुछ भी अपने किये कर्मोंका बंधन हमने अपने साथ बाँध लिया है, उस स्वभाव के ही अनुसार न नाचते रहें, किंतु उसको ही अपने क़ाबू में रखें और अपने ही अनुसार चलावें ।
भाग्यके ही भरोसे अपनेको छोड़ देने का खोटा परिणाम
जो लोग यह कहने लगते हैं कि हमारे भाग्यने जैसा हमारा स्वभाव बना दिया है उसको हम बदल नहीं सकते । हमको तो अपने भाग्य के ही अनुसार चलना होगा, इस ही प्रकार संसारके जिन जीवों और जीव पदार्थोंसे हमारा वास्ता पड़ता है, जो कुछ हानि लाभ होना है, जो कुछ भाग्य में बदा है; वह तो होकर ही रहेगा, उसमें तो बाल बराबर भी फरक नहीं आ सकता है, ऐसे लोग भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर तो नहीं बैठते हैं । उनके स्वभावका ढाँचा, उनके शरीरकी प्रकृति, उनकी इन्द्रियों के विषय मान-माया, लोभ क्रोधादिक भड़क, राग और द्वेष, उनको चुपचाप तो नहीं बैठने देता है इस कारण कामतो वे कुछ न कुछ करते ही रहते है, किन्तु ऐसे नशिया लेकी तरह जो नशा पीकर अपनेको सम्हालने की कोशिश नहीं करता है, बल्कि नशे की तरंग के मुवाफिक ही नाच नचानेके लिये अनेको ढीला छोड़ देता है । ऐसे भाग्यको ही सब कुछ मानने वाले भी अपने मनकी तरंगों के अनुसार नाच नाचते रहते हैं और कहते रहते है कि क्या करें हमारा स्वभाव ही ऐसा बना है । इस प्रकार यह लोग अपनी खोटी २ कामनाओं, खोटी २ विषय वासनाओं में ही फसे रहते हैं। क्रोध मान-माया लोभ आदि जो भी जोश उठे या
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अनेकान्त
भड़क पैदा हो उस ही के अनुसार करने लग जाते हैं, आगे पीछेकी कुछ सोच नहीं करते, नतीजेका कुछ भी खयाल नहीं करते । बेधड़क सब कुछ पाप करते हुए उसकी सब ज़िम्मेदारी दैव या भाग्य के ही सिर धरते रहते हैं । अपनेको तो निर्दोष मानते रहते हैं परन्तु दूसरे लोग छोटेसे छोटा भी जो दोष करै उसका दोषी उन ही को ठहराते हैं । दूसरोंके दोषोंका जिक्र कर करके उनकी बुराई खूब करते हैं श्रौर बनते रहते हैं । जिस प्रकार नशेकी तरंगमें नशेबाज या पागल अपने पागलपन में अपनेको सारी दुनियाका राजा समझ बैठता है, हानि-लाभ समझाने वालेको मारने दौड़ता है, इस ही प्रकार ये भाग्यको सब कुछ मानने वाले भी अपनेको सबसे बड़ा समझने लगते हैं और दूसरोंको अपने से घटिया मानकर अपनी बड़ाई गाने और दूसरों को घटिया बतानेमें ही असीम आनन्द मानने लग जाते हैं । यह ही एक मात्र उनके जीवनका आधार हो जाता । इस कारण जिस प्रकार नशेबाज़ नशेकी तरंगमें श्रापसमें एक दूसरे पर हकूमत जताते हुए, आपस में खूब लड़ते हैं और जूतमपैजार होते हैं, इस ही प्रकार ये भाग्य पर ही निर्भर रहने वाले भीश्रापसमें एक दूसरे पर हकूमत जताकर और आपस में लड़ भिड़कर ही अपना जी खुशकर लेते हैं । किन्तु जिस प्रकार नशियाला या पागल किसी होश वालेको देखकर अव्बलतो गीदड़ भभकी दिखाता है, किन्तु होश वालेकी तरफ से जरा भी सख्ती होने पर तुरन्त ही उसके श्राधीन हो जाता है और गुलाम बन जाता है, इस ही प्रकार भाग्य पर निर्भर रहने वाले भी बड़े बननेका दावा कर करके आपसमें तो खूब लड़ते हैं, किन्तु ग़ैरकी शकल देखते
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ही डरकर अपना खोटा भाग्य श्रीया समझकर चुपकेसे उसके गुलाम बन जाते हैं।
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हमारा ज़रूरो कर्तव्य
हमको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और बुद्धि लड़ाकर जांच लेना चाहिये कि हमारे संबंध में तीन शक्तियां काम कर रही हैं, एक तो हमारे पहले कर्म या हमारी आत्मा के पहले भाव, जिनसे अब तक बुरा भला हमारी श्रादतें या स्वभाव बनता रहा है; जो मरने पर भी हमारे साथ जाता है और कर्मबन्धन या हमारे स्वभावका ढाँचा, या भाग्य कहलाता है । दूसरे हमारी श्रात्माकी असली ताक़त जो हमारे इन कर्मों या स्वभाव या भाग्य के द्वारा नष्ट होने से बच रही है । तीसरे संसार भरके सब ही जीव और जीव जो अपने २ स्वभावके अनुसार इस ही संसार में काम करते हैं, इस कारण उनसे हमारी मुठभेड़ होना लाज़मी और जरूरी ही है । इस कारण हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने उस श्रात्मिक ज्ञानके द्वारा जो हमारे कर्मोंने नष्ट नहीं कर दिया है हम अपने संचित कर्मों पर या स्वभावके ढाँचे वा भाग्य पर भी काबू रखें, उसको अपनी बुद्धि के अनुसार ही चलाते रहें और संसार के जीव जीव पदार्थोंसे तो मुठभेड़ होती रहती है या हो सकती है उन पर भी पूरी २ दृष्टि रखें । उनमें अपने प्रतिकूलको मिलाते रहने की और प्रतिकूल से बचते रहने की कोशिश करते रहें । यही पुरुषार्थं है जिसकी मनुष्यको हर वक्त जरूरत है । इस ज़रूरी पुरुषार्थ के बिना तो मनुष्य मनुष्य ही नहीं है किन्तु, एक निर्जीव घासका तिनका है जो बेइख्तियार नदीमें बहा चला जाता है ।
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क्या स्त्रियाँ संसारकी क्षुद्र रचनाओंमें से हैं ?
[लेखिका-श्री ललिताकुमारी जैन विदुषी प्रभाकर जयपुर]
MENatm~
क बार मैंने किसी पुस्तकमें 'स्त्रियाँ ही अपने तौरसे बतला देना चाहती हूँ कि वे बहुत बड़ी गलती .आपको अयोग्य समझती हैं। इस शीर्पक अथवा पर हैं । उनको अपने ये कायर और गन्दे विचार इससे कुछ मिलता-जुलता प्रबंध पढ़ा था । उसका बिलकुल निकाल देना चाहिएँ । सारांश यही था कि सदियोंकी दासतासे स्त्रियोंका स्त्री आदि शक्ति है । स्त्री शक्तिके बिना दुनियाका श्रात्मबल और स्वाभिमान इस कदर कुचल दिया कोई भी काम सफल नहीं हो सकता । स्त्री सीता है, गया है कि अव वे स्वयं अपने आपको तुच्छ, शुद्र स्त्री पार्वती है, स्त्री दुर्गा है, स्त्री लक्ष्मी है, स्त्री सर
और अयोग्य समझने लगी हैं । वे अपने जीवनसे स्वती है । संसारका हरएक कार्य शक्तिसे सम्पन्न होता घृणा करती हैं और उत्थानके मार्गमें बढ़ने के लिए है और वह शक्ति स्त्री ही का स्वरूप है ! अपने आपको असमर्थ समझती हैं । उनके दिलोंमें विश्वमें जो सुन्दर और सुखकर है वह स्त्री ही यह अन्धविश्वास, कूट कूट कर भरा हुआ है कि स्त्री- का प्रकारान्तर है। जहां पुरुष जाति अपने, वीरता, जाति तिरस्कार और अपमानके लिए पैदा हुई है। धीरता, गम्भीरता, काठिन्य, शौर्य श्रादि गुणोंसे सम्पन्न उसका अलग अपना कोई अस्तित्व नहीं है । वह सच- है, वहां स्त्री-जाति अपने सौंदर्य, कोमलता, लावण्य, मुच पुरुषोंके पैरकी जती है और इसीलिए स्त्री. होना सेवा विनम्रता श्रादि गुणोंसे सुशोभित है । दोनों अपने या तो ईश्वरका अभिशाप है या प्रोपार्जित पापोंकी अपने विशिष्ट स्वरूपों में समान हैं। कोई किसीसे कम या किसी बड़ी राशिका परिणाम है।
ज्यादा नहीं हैं । संसारकी रचनामें और इसकी हर एक हमारे समाजमें अधिकाँश स्त्रियाँ, अशिक्षित और स्थितिमें स्त्री और पुरुष का हाथ बिल्कुल बराबर है । बे पढ़ी हैं और उनके खयालात भी ऐसे ही बने हुए समुद्रकी विशालता नदियोंके बल पर है फूल की सौरभक हैं 1.हमारे ऐसे ही विचारोंने अाज हमको पददलित बना आधार कली है । सूर्य में ज्योति छिपी है । चांदकी शोभा रखा है । जो महिलाएँ स्त्री-पर्यायको पाप कृत्योंका चन्द्रिकासे है । मेघकी शोभा बिजलीसे है । ऊंचे ऊंचे फल, या जघन्य और क्षुद्र समझती हैं उनको मैं स्पष्ट पहाड़ चोटीके बिना खण्डहर सरीखे हैं । श्रद्धा बिना
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अनेकान्त
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ज्ञान भार स्वरूप है।
चाँदको प्रकाशका कारण मानकर चाँदनीको अंधकार जमीन और आसमान, कलम और कागज, पेड़ का स्वरूप मानता है और सूर्यको प्रभाका अवतार और शाखा, उद्यान और वाटिका, फूल और पत्ती मानकर उसकी किरणोंको ज्योतिविहीन समझता है । कहां तक कहें सृष्टिका कोई स्थल ऐसा नहीं है जहां स्त्री यह तो हुई स्त्री पर्याय और पुरुष पर्यायकी
और पुरुष शक्तियां समान रूपसे काम न करती हों। समानताकी बात । अगर मैं स्पष्ट और साफ कहूँ तो और सब जाने दीजिये अात्माका चरम और उत्कृष्ट किसी किसी जगह स्त्री पर्यायकी उत्कृष्टता और लक्ष्य कर्मोंका नाश करना है वह भी मुक्ति के रूपमें आदर्श के श्रागे पुरुष पर्याय भी कुछ नहीं है और उस स्त्री ही के विशिष्ट स्वरूपमें स्थित है।
समय पुरुष पर्याय स्त्री पर्यायके साथ कभी बराबरीका __ऐसी अवस्थामें भी अगर महिलाएँ अपनी जाति दावा पेश नहीं कर सकती। वह आदर्श है 'मातृत्वका को पाप कृत्योंका फल या दैवका अभिशाप समझती हैं श्रादर्श' जो पुरुष पर्यायमें ढंढने पर भी नहीं मिल तो यह उनकी भूल है । अगर स्त्री पर्यायमें पैदा होना सकता और स्त्री पर्याय मिलने पर ही प्राप्त किया जा पाप कृत्योंका फल और अभिशाप है तो पुरुष पर्यायमें सकता है । बड़े बड़े श्राचार्य, ऋषि, मुनि, महात्माओं पैदा होना कभी पुण्य कर्मों का फल और आशीर्वाद नहीं ने मातृत्वके श्रादर्शको महान् बतलाया है । यह मातृहो सकता;क्योंकि दोनों शक्तियों एक होकर काम करती त्वका ही आदर्श है जिसने तीर्थंकरों जैसे महान् हैं और दोनों शक्तियाँ एक-दूसरी-शक्तिमें दूध और आत्माओंको जन्म दिया, बड़े बड़े अवतारोंको पृथ्वीतल पानीकी तरह मिली हुई हैं । एकका बुरा होना दूसरी पर पैदा किया, बड़े बड़े ऋषि-मुनियों के लिये अपना का बुरा होना है और एकका अच्छा होना दूसरीका सुख त्याग किया । पं० कृष्णकान्त मालवीय लिखते हैं-- अच्छा होना है । महात्मा जी लिखते हैं--"अगर स्त्रियाँ ईश्वरकी क्षुद्र-हलके हर्जेकी रचनाओंमें से हैं तो "स्त्री का सर्व श्रेष्ठ रूप माता है और सच मानो
आप जो उनके गर्भसे पैदा हुए हैं अवश्य ही क्षुद्र इससे मधुर, इससे सुखकर शब्द, इससे सुन्दररूप हैं ।" मेरा खयाल है पुरुष जातिकी श्रेष्ठता, उत्तमता सृष्टि और संसार में कोई दूसरा नहीं। संसारका
और आदर्शता पर मेरी बहिनोंको पूर्ण विश्वास है और समस्त त्याग, संसारका समस्त प्रेम, संसारकी सर्व उनको स्त्री पर्यायकी हीनता और अनुत्तमतासे पुरुष श्रेष्ट सेवा, संसारकी सर्व श्रेष्ट उदारता एक माता जातिका भी अनुत्तम होना कभी यांछित नहीं हो शब्दमें छिपी पड़ी है।" सकेगा । मैं उनसे प्रार्थना पूर्वक अनुरोध करूँगी कि पुरुष-पर्यायके प्रति उनका जैसा विश्वास है वे उसे एक अज्ञात महापुरुष लिखते हैं
और भी मज़बूत और पक्का बनाले परन्तु साथ ही "हे माता ! तुम स्वर्गकी देवी हो, तुम मृत्यु अपनी जातिका सम्मान और इजत करना कभी न लोकमें मनुष्योंका कल्याण करनेके हेतु माताके रूपमें भूलें । वरना उनकी यह धारणा बालू पर भीत खड़ी अवतीर्ण हुई हो । सव लोग तुम्हारे अनन्त उपकारों करने के बराबर उस मनुष्यकी धारणाके समान है जो के ऋणी हैं । तुम्हारे ऋणाको कौन चुका सकता है ?
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वर्ष ३, किरण १० ]
हे माता ! भगवानसे हमारी यही याचना है कि वे हमें ऐसी शक्ति दें कि जिससे हम तुम्हारी सेवामें अपने इस जीवनको अर्पण कर सकें और भक्तिके सुके जलसे तुम्हारे चरणोंका चिरकाल तक प्रक्षालन करते रहें ।”
क्या स्त्रियाँ संसारकी सुद्र रचनाओंमें से हैं ?
'जननी जीवनसे'
एक संस्कृत कवि लिखते हैं
-:
"जननी परमाराध्या जननी परमागतिः । जननी देवता साक्षात् जननी परमोगुरुः ॥ या कर्त्ती परयात्री च जननी जीवनस्य नः । नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ॥ 'जननी जीवनसे'
मातृत्व के आदर्श की प्रशंसा में ग्रंथ भरे पड़े हैं । सदियां चली जायें और उसका वर्णन समाप्त नहीं हो । क्या कोई ऐसा ज्ञानी, ध्यानी, महात्मा, नारायण, चक्रवर्ती, बलभद्र, राजसू क अमीर, गरीब, बड़े से बड़ा और छोटेसे छोटा व्यक्ति है जो माताके उपकारके भार से नदया जा रहा हो और क्या वह उसके किये हुए उपकारका बदला वापस देनेका सैंकड़ो जन्मोंमें भी साहस कर सकता है ? ऐसी अवस्था में अगर कोई व्यक्ति चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, शिक्षित हो या प्रशिक्षित उस स्त्रीपर्यायकोनीच और जघन्य समझता है जिस में मातृत्व जैसा सर्वोत्कृष्ट आदर्श विद्यमान है तो यह उसकी क्षुद्रता है और कृतघ्नता है और स्वयं स्त्रियों का तो यह समझना बहुत ही अपमान, लज्जा श्रौर कायरताका विषय है ।
लोगोंकी इस धारणाने कि स्त्री जाति पुरुष जाति के लिये पैदा की गई है और वह उसके भोगनेकी एक. चीज़ है मनुष्य जातिका बहुत बड़ा श्रनिष्ट किया है । कारण, इस तरह पुरुषोंने स्त्रियोंको अपनी एक जायदाद
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और दूध देने वाली गाय-भैंसोंके समान समझा और इसीके अनुसार उनको एकने दूसरेसे छीनने की कोशिश की । इस कोशिशमें बड़ी बड़ी लड़ाइयां हुई, मारकाटें हुई, खून के तालाब बहे और संसार सुखका स्थल न रह कर दुःख दारिद्र्य, क्लेश, अशान्ति, व्याकुलता और हज़ारों ही विपदाओंका केन्द्र बन गया ! खेद है कि यह अवस्था अब तक भी वैसी ही चली रही है । पुरुषोंने स्त्रियोंको जन्म दिया या स्त्रियोंने पुरुषों को जन्म दिया ? यदि इस प्रश्न पर जरा भी विचार किया जाय तो यही निर्णीत होना चाहिये कि स्त्रियोंने पुरुषों को जन्म दिया और भारीसे भारी विपदाएं झेलकर उनका पालन किया । ऐसी हालत में भी यह मानना कि स्त्रियाँ पुरुषोंके लिये पैदाकी गई हैं कितना बेढंगा और हास्यास्पद खयाल है । इसलिये जैसे हम यह बड़ी आसानीसें मान लेते है कि स्त्रियाँ पुरुषोंके लिये पैदा की गई हैं वैसे यह भी क्यों नहीं मानलें कि पुरुष स्त्रियों के लिये पैदा किये गये हैं । यद्यपि अनुभव और बुद्धिसे ठहरेगा तो यही कि दोनों को दोनोंने पैदा किया और दोनों दोनों के लिये पैदा हुये हैं । जैसे पुरुषों को अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये स्त्रियोंकी आवश्यकता है वैसे स्त्रियों को अपने उद्देश्यकी सिद्धि के लिये पुरुषों की आवश्यकता है। दोनों अपने जीवनकी उत्कृष्टता प्राप्त कर सकें दोनों, अपने जीवनको सार्थक और सफल बना सकें, दोनों अपने जीवनमें महान् श्रादर्श उपस्थित कर सकें, इसीलिये एक दूसरेका जन्म हुआ। ऐसी हालत में यह
मना भयंकर भूल है कि स्त्रियाँ पुरुषोंकी गुलाम दासी हैं, सेविका हैं और उनके ऐशो-आराम और सांसारिक क्षुद्र सुखोपभोग के लिये पैदा हुई हैं ।
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दीपक के प्रति
ANIMELarta तुम अन्धकार को हरने,
तुम धीर तपस्वी बनकर, जीवन-घट भरने आये।
चुपचाप जले जाते हो। या इस निराश जीवन में,
या मूल्य मूक सेवा का, आशा के झरने लाये ॥.
सचमुच तुम प्रगटाते हो ॥ प्रेमी पर बलि हो जाना,
किस्मत में तेरी दीपक, परवानों को सिखलाया।
क्या जलना ही जलना है। सच्चा गुरू घन कर पहले
या पर हित जलने में हीसन अपना अहो जलाया ।
सुख का अनुभव करना है। सूरज को तुमसे ज्यादह,
परहित सर्वस्व लुटाते, तेजस्वी कैसे माने ।
जग कहता तुम्हें दिवाना। वह अन्त तेज़ का, तुमको,
पर तुमने ही रातों कोप्रारम्भ तेज का जानें ॥
है दिवस बनाना जाना ॥ यदि मौत खड़ी हो आगे,
दीपक की नहीं शिखा यह, क्या बात भला है ग़म की।
है बीज क्रांति का प्यारा । देखो, इस दीप-शिखा को,
जो बढ़कर जला सकेगा, जलकर सोने सी चमकी ॥
जुल्मों का जङ्गल सारा॥ प्याले का मधु पी करके,
है तेल जहाँ तक बाक़ी, तुम हँसते अजब हँसी हो।
तब तक तुम जले चलोगे। कैसे हँसना है भाता?
तनमें ताकत है जब तक, जब देह कहीं झुलसी हो॥
परहित में बढ़े चलोगे ॥ "बिघ्नों की आँधी में भी,
आँधी का झोका भाकर, हँसना सीखो तुम प्राणी।"
चाहे तो तुम्हें बुकादे। यह शिक्षा देते सब को, ___ पर जीते हुए तुम्हारे, दीपक ! तुम परे ज्ञानी ॥
प्रण को कैसे तुड़वादे ॥ MEUMPAMIMI
२०-श्री रामकुमार 'स्नातक WW swomai हे दीपदेव ! भारत के प्रोगन में खुलकर चमको । जीने, मरने का सचा कुछ भेद बतादो हमको । हम अपने लघु जीवन का कुछ मूल्य आँकना सीखें। सीकर मरने में जीवन-झाँकी का दृश्य झाँकना सीखें ॥
HFOOMANSAOFOROFIOFODAFOOTERTRONORFOOTOHIROEOFOOTEOFOFOFONTROOTBETNOLO
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ग्रात्मोद्धार-विचार
[ ले० - श्री० अमृतलाल चंचल ]
शिष्य
ध्यने कहा "गुरुदेव ! लाखों करोड़ों वर्ष होगये मुझे इस संसार सागर में अवरत भटकते और गोते खाते हुए ! अब तो पाकर कोई ऐसा मार्ग बताइये, जिसका अवलम्बन कर मैं इस जन्म-मरण के विकराल बंधन से मुक्ति पा सकूँ—छुटकारा पा सकूँ !” परमदयालु जगत हितकारी श्री गुरु कहते हैं
सद्गुरु कहे स्वस्वरूपण जाय, एठजे तारुं जन्म टलशे ए प्रमाण । तारा जन्म-मरण नो कागल फाटे, सद्गुरु वचने विश्वास सखे ए माटे ।
अर्थात हे मुमुक्षु ! तू अपना स्वतः का रूप जान, अर्थात् मैं स्वयं सच्चिदानन्द रूप हूँ, देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि इन सबका साक्षी ऐसा प्रत्यगात्मा हूँ; देहान्द्रियादिक जितनी ये बाह्य वस्तुएँ हैं, उनसे मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है; देहका वर्णाश्रमादिक धर्म व इन्द्रियोंका अध्यबधिर तादिक धर्म ये दोनों ही मेरे स्वरूपसे पूर्ण अस म्बन्धित बातें हैं; केवल शुद्ध चैतन्य रूप हूँ, ऐसा ज्ञान जिस समय भी तुझमें पूर्णरूपेण दृढ़ हो जायगा, तू उसी वक्त जन्म-मरण के पाशसे छुटकारा पाकर स्वयं ज्योतिर्मय रूप परम ब्रह्म परमात्मा हो जायगा । मनुष्य को भव भव में भटकाने वाले हेतु उसके द्वारा उपार्जित उसके अशुभ
कर्म ही हैं। जिस समय तू सद्गुण के वचनों पर विश्वास करके 'अहं ब्रह्मास्मि' या 'मैं स्वयं ब्रह्मरूप हूँ' ऐसा ध्यान करेगा, तेरे श्रात्मासे अशुभ कर्मोंकी बेड़ी कट जायगी; तेरी जन्म-मरणको देने वाली ललाट-पत्रिकाके चिन्दे चिन्दे हो जायेंगे और तू उसी समय संसार सिन्धुसे पार होकर जीवन-मरण से मुक्त हो जायगा ।
वास्तव में आत्म-चिन्तवन या श्रात्म-श्रद्धान ही एक ऐसी वस्तु है, जिसका आश्रय लेकर मनुष्य इस अगाध-संसार-सागर से पार हो सकता है । क्यों ? इसीलिये कि जिसे हम परमात्मा कहते हैं, वह हमारे आत्माही का एक दूसरा रूप है । हमने अपने स्वरूपको न जाना, इससे हम 'हम' बने रहे और परमात्मा जान गया इससे वह 'परमात्मा' हो गया । परमात्मा बैठे थे, एक अल्हड़ पूछ बैठा - आखिर हममें और तुममें भेद किस बात का है जो हम तो साधारण मनुष्य बने रहे और आप परमात्मा बन बैठे ? परमेश्वर ने कहा
तुम्हारे और मेरे में न कुछ भी भेद है बाबा ! 'न' जाना भेद बस तुमने यही इंक खेद है बाबा |
यही बात है ! हम संसार के माया मोह और विषय कषायों में इस तरह फँसे हुए है कि हम अपने शरीर को ही अपना आत्मा मान बैठे हैं
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
और दिन रात उसीकी सेवा-शुश्रुषा किया करते मुझे कैसे गृहोंमें उत्पन्न किया है ! मैं स्वगके हैं। इससे हमारे आत्माको मिथ्यात्वका बंध होता उद्यानका पक्षी हूँ ! मैं अपने वियोगका हाल क्या है और यही मिथ्यात्व उसे अपना स्वरूप जानने बताऊँ कि मैं इस मृत्युलोकके जालमें कैसे आ देनेमें प्रतिपल बाधक होता रहता है । एक तो हुई. . फँसा !!) यह बात, दूसरे हमारा आत्मा, जो स्फटिक मणि जैसे ही हमारा यह आत्मा अपनी आत्मके समान शुभ और स्वर्गकी नदीके जलके समान निधिकी सुध पाकर, धातुभेदीके सदृश प्रशस्त पवित्र है, अनादि कर्म मलसे मलिन और उसके ध्यानाग्निके बलसे"मैं ही ब्रह्म हूँ मैं ही शुद्ध बुद्ध मोटे पटलसे इस तरह आच्छादित हो रहा है कि मुक्तस्वभाव, प्रकृत, अदृश्य, सर्वान्तवर्ती, अद्वितीय उसके दर्पणमें हमें अपना स्वरूप बिल्कुल भी आनन्दसागर, निराकार और निर्विकल्प परमात्मा नहीं दिखाई देता है, वरना, जो परमात्मा है वही हूँ," इस तरह के ध्यानमें आरूढ़ हो जायेगा, हम हैं और जो हम हैं, वही परमात्मा है । परमा- हमारे समस्त कर्म मल क्षय हो जायेंगे, हमारी स्मा ज्ञानका भंडार है; हम भी अतुल ज्ञानके सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित समुद्र हैं, परमात्मा शक्तिका खजाना है, हम भी हो जायेंगी और तैसे ही हम स्वच्छ तथा निर्मल असीम वीर्यके निधान हैं, अजर, अमर, अवि- स्थितिको प्राप्तकर परमानन्द परमात्मा हो जायेंगे। नाशी है, हम भी जरा, जन्म और मरण रहित शुद्ध बुद्ध परमात्मा हैं, पर इतना होने पर भी हम ध्यानाजिनेश- भवतो भविनः षणेन, कुछ नहीं हैं और अगर हैं भी तो एक जघन्यतम देहं विहाय परमात्मदशी व्रजन्ति । श्रेणी के बहिरात्मा । ख्वाजा हाफ़िज़ कहते हैं- तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, फाश भी गोयमो अज़ गुफ़्त-ए-खुद दिन शादम ।
__ चामीकरस्व मचिरादिव धातुभेदाः । बंदा-ए-इश्क मो आज हर को जहां आज़ादम ॥
-श्रीमद्कुमुदचन्द्राचार्य कौकबे-बस्त मरा हेच मुनज्जिम न शिनाख्त । आत्माके स्वरूपका चिन्तवन ही परमात्माका या रब ! अज़ मादरे-गेती बचेः ताला जादम ॥ एकमात्र जगतप्रसिद्ध आराधन है । श्रीपज्यपाद तापरे-गुलशने-कुसुम चे दिहम शहें फिराक । स्वामी 'समाधितंत्रमें कहते हैंकिं दरी दामे-गहे-हादसा यूँ उफ्तादम ॥ सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्ति मितेनान्तरात्मना ।
(मैं खुल्लमखुल्ला कहता हूँ और अपने इस यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्वं परमात्मनः । कथनसे प्रसन्न हूँ कि मैं इश्क का बन्दा हूँ और - "सर्व इन्द्रियोंको अपने अपने विषयोंमें जाते साथ ही लोक और परलोक दोनोंके बंधनोंसे हुए रोक कर स्थिरीभत मनसे क्षणमात्र भी अनुमुक्त हूँ। मेरी जन्मपत्रीके ग्रहोंका फल कोई भी भव करने वाले के जो स्वरूप झलकता है, सो ही ज्योतिषी न बता सका । हे ईश्वर ! सृष्टि माताने परमात्माका स्वरूप है।" इससे पता चलता है
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वर्ष ३, किरण १०] .
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प्रारमोदार-विचार
कि परमात्मा और आत्मा में सिर्फ नाम मात्रका- चौदह जीवसमाम हैं; न कोंके क्षयोपशमसे दृष्टि मात्रका फर्क है । बकौल नाथ सा०-. . . होने वाले लब्धिस्थान हैं, न कर्मोके बंधस्थान हैं; इक नज़र का है बदलना, और इस जा कुछ नहीं। न कोई उदयस्थान है; न जिसके कोई स्पर्श, रस दरमियाने-मौजो क़तरा गैरे-दरिया कुछ नहीं । गंध, वर्ण शब्द आदि हैं, परन्तु जो चैतन्य
• स्वरूप है सो ही निरंजन मैं हूँ । २० । २१ । . 'यहा और कुछ नही, कवल एक हाष्ट-मात्रका कर्मादि मलसे रहित ज्ञानमयी सिद्ध भगवान बदलना है। बंद और लहरमें कोई भेद नहीं, जैसे सिद्ध क्षेत्र में निवास करते हैं, वैसे ही मेरी दोनों नदीसे भिन्न और कोई वर नहीं।"
... देह में स्थत परमब्रह्मको समझना चाहिए । २६ । प्रातः स्मर्णीय आचार्य देवसेनजी 'तत्वसार' 'जो नो कर्म और कर्मसे रहित, किवलज्ञानादि में अपने शुद्धस्वरूपका वर्णन करते हुए कहते हैं-
ए कहा है- गुणोंसे पूर्ण शुद्ध, अविनाशी, एक, आलम्बन
, जस्स णकोहो माणो माया खोहो ग सल्ल लेस्सायो। रहित, स्वाधीन, सिद्ध भगवान हैं, सो ही मैं हूँ ।२७ जाई जरा मरणं वि य णिरंजणो सो अहं भणियोn मैं ही सिद्ध हूँ, शुद्ध हूं, अनन्त ज्ञानादि गुणों णस्थि कलासंठाणं मग्गणगुणठाणजीवठाणाणि । से पूर्ण हूँ, अमूर्तीक हूँ, नित्य हूँ, असख्यातप्रदेशी णय बद्विबंधठाणा योदयठाणाइया केई ॥२०॥ हूँ और देहप्रमाण हूँ, इस तरह अपनी आत्माको फास-रस-रव-गंधा सहादीया य जस्स णस्थि पुणो। सिद्धके समान वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा जानना मुद्धो चेयण भावो णिरंबणो सो अहं भणिभो ॥२१॥ चाहिये । २८ ।. .. मसरहिमो णाणममो णिवसइ सिद्धीए बारिसो सिद्धो। अब जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल तारिसमो देहत्यो परमोवंभो मुणेयब्बो ॥ २६ ॥ अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्था णोकम्म कम्म रहिओ केवलणाणाइगुणसमिद्धो जो । को प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनेना ही सब सोहं सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को णिरालंबोक ॥ २७ ॥ आत्माओंका अभीष्ट है तब आत्मस्वरूपका ही सिद्धोहं सुखोहं अणन्तणाणाइगुणसमिद्धोहं । चिन्तवन करना हमारा एक मात्र कर्तव्य है । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य ॥ २८ ॥ पज्यपाद स्वामीजी कहते हैंजिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है,
पः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, न जन्म है,
अहमेव मयो पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः ॥ न जरा है, न मरण है, वही निरंजन कहा गया है, सोही मैं हूँ । १६ ।
___ अर्थात जो कोई प्रसिद्ध उत्कृष्ट आत्मा या - न जिसके औदारिकादि पांच शरीर है; न परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो कोई स्वसंवेदनसमचतुरसादि ६ संस्थान हैं; न गति, इन्द्रिय गोचर मैं आत्मा हूँ सो ही परमात्मा है, इसलिये
आदि चौदह मार्गणा हैं; न मिथ्यात्वादि चौदह जब कि परमात्मा और मैं एक ही हूँ, तब मेरे गुणस्थान हैं; न जीवस्थान अर्थात एकेन्द्रियादि द्वारा मैं ही आराधन योग्य हूँ, कोई दूसरा नहीं।
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अनेकान्त
हैदराबाद निवासी ब्रह्मनिष्ठ श्रीराम गुरु कहते हैं
तु कहे छे देव, ते तुं चैतन्य स्वयमेव । बीजो देव माने ने कोई, एज बन्धन तेने होई ॥
[श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६५
भजन और निदिध्यास करने योग्य है, जिसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करने से सब कुछ जाना जाता है ।
अब प्रश्न होता है कि हम अपने आत्माका चिन्तवन किस तरहसे करें, क्योंकि न तो हमें
आत्मा दिखाई ही देता है और कहते हैं कि न उसका कुछ रूप ही है ? यदि हम इस तरहसे चिन्तवन करते हैं कि 'अहं ब्रह्मास्मि' 'सोऽहम्' या 'एकोऽहं निर्मलः शुद्धो' तो हममें अहंकारका-सा समावेश होता है और श्रात्म-साधना की जगह श्रीमद्गुरु तारण तरण स्वामीजी महाराज भी अहंकारका आना ठीक "मांजर काढून टाकलें अपने 'पण्डित पूजा' नामक ग्रंथ में कहते हैं- तेथें ऊंट येऊन पड़ला" वाली मराठी कहावत होती है
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अर्थात जिसको तू देव, चैतन्य, स्वयंप्रकाश आदि नाना नामों से पुकारता है, वह चैतन्यरूप देव तू स्वयं ही है। चैतन्य रूप देव तो मेरे आत्मा के सिवा कोई दूसरा ही है, ऐसा जो कोई मानता है, वह अज्ञानका बंदी होता है, ऐसा समझना चाहिये।
आतम ही है देव निरंजन, भातम ही सद्गुण भाई । मातम तीर्थ धर्म प्रतम ही तीर्थ आत्म ही सुखदाई | श्रातमके पवित्र जलसे ही, करना अवगाहन सुखधाम
यही एक गुरु, देव, धर्म, श्रुत और तीर्थको सतत प्रणाम ।
श्रीमद् परमहंस परिव्राजकाचार्य ब्रह्मनिष्ठ श्री जयेन्द्र पुरीजी महाराज मंडलेश्वर इस विषय पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं
"साधको ! भावना करो मैं देह नहीं हूँ, एवं इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि भी नहीं हूँ; अल्प परिच्छिन्न नहीं हूं, किन्तु सर्वान्तर्यामी साक्षी ब्रह्म ही मैं हूँ । 'अहं ब्रह्मास्मि' 'सोऽहं’'७' इस गुरु मंत्र को हर वक्त अपने सामने रखो । इस मंत्र को एक बार समझकर अलंबुद्धिमत करो। बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो। यही भगवान की असली पूजा है ।
“झात्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तब्यो निदि ध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्याविज्ञाने नेद सर्व विदितम् ।
जैसा कि स्वामीजी बताते हैं "बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो" इस वाक्यांश से हमें पूर्णरूपेण प्रकट होजाता है कि 'अहं ब्रह्मास्मि या ऐसे ही दूसरे पद अहंताद्योतक नहीं है, वरन उनमें कुछ महत्वपूर्ण रहस्य छिपा हुआ है ।
े
अर्थात हे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने, सुनने, अपना आत्मचिन्तवन करते समय प्रत्येक मनुष्य
- हिन्दी टीका 'तारन त्रिवेणी' ग्रंथश्रेष्ठ श्री बृहदारण्यकोपनिषद्, आत्मा क्या है और उसका क्या महत्व है, इस विषय पर बड़ी सूक्ष्मता से विवेचन करता है। एक स्थल पर वह कहता है—
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वर्ष ३, किरण १० ]
का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सिर्फ लिये हुए पदके शब्दों के अर्थको जानने तक ही सीमित नहीं रहे, वरन् उसमें क्या रहस्य भरा हुआ है, इसका सबसे प्रथम मनन करनेका प्रयत्न करे । जैसे जैसे वह उस रहस्यकी तली में पहुँचता जावेगा, उसे ज्ञात होगा कि तैसे २ मैं प्रतिक्षण एक उत्तरोत्तर और अपूर्व आनन्दका अनुभव कर रहा हूँ | वास्तवमें आत्म-मनन वस्तु ही ऐसी है ! एक महात्मा कहते हैं
परम ब्रह्म में जब रत होता
मन मधुकर
मतवाला,
सफेद पत्थर अथवा लाल हृदय
सत्, चित् आनन्दसे भर उठता,
अन्तरतमका प्याला !
ज्ञानी चेतन ज्ञान- कुण्ड में,
खाता फिर फिर गोते;
मलिन भाव और अशुभ कर्मबत पन पक्षमें क्षय होते ।
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लोग सांसारिक श्रमजाल और मिथ्यान्धकारमें फँसकर पागल हो रहे हैं, वरना मुक्तिका एक • मात्र अमोघ और सरलसे सरल साधन प्रत्येक
पुरुषका आत्मा तो उसके घटसे बाहिर सिर निकाल निकालकर अपने हाथों के इशारेसे उसको उच्च स्वरमें बुला बुला कर कह रहा है -
बयाँ ऐ शेख ! दर खुमखानए मा । शराबे खुर कि दर कौसर न बाशद !
ख्वाज़ा हाफ़िज़
( ऐ शेन ! यहाँ मेरे शराबखाने में आ और उस मदिराका पान कर जो कि स्वर्ग में भी दुर्लभ है ! )
सफ़ेद पत्थर अथवा लाल हृदय
एक प्रसिद्ध कालेज में एक प्रख्यात प्रोफेसर रहते थे । उनके पास के नगर के मुख्य व्यक्तियोंका
एक डेपुटेशन आया, किसी धर्मस्थानके आँगन में सङ्ग-मरमर लगानेके लिए चन्दा लेने ! प्रोफेसर साहेबने
पूछाः
"पहले भी काम चलता ही जा रहा है सङ्ग-मरमरकी क्या ज़रूरत है ?"
डेपूटेशनने ' उत्तर दिया कि एक तो साधरण चबूतरेका फर्श सुन्दर मालूम नहीं होता, दूसरे जनताके पाँव खराब हो जाते हैं ।
"आप पहले जनताको तो सुन्दर बना लें" प्रोफेसर साहेबने अहसास भरे शब्दों में कहा--"जिस जनताको धूप और वर्षामें नंगे पाँव चलना फिरना पड़ता है, जिस जनताके अनेक सदस्यों को पेट भर कर रोटी नहीं मिलती, उसकी रूखी सूखी रोटी छीन कर, हृदयोंका रक्त निचोड़ कर, आप उन्हें सफेद पत्थर सा बना रहे हैं; यदि आप मुझसे पूछते जहाँ जहाँ संगमरमर लगा हुआ है, उसे बेचकर उसका अनाज लेकर मखी जनताका पेट आपको भरना चाहिए ।" ( दीपकसे
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नृपतुंगका मतविचार
[ लेखक - श्री एम. गोविन्द पै ]
[ इस लेख के लेखक श्री एम. गोविन्द पै मद्रास प्रान्तीय दक्षिणकनाड़ा जिलान्तर्गत मंजेश्वर नगरके एक प्रसिद्ध विद्वान् हैं। आप कनड़ी, संस्कृत तथा अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओंके पंडित हैं और पुरातत्त्व विषयके प्रेमी होनेके साथ-साथ अच्छे रिसर्च स्कॉलर हैं । जैनग्रन्थोंका भी आपने fait अध्ययन किया है । 'अनेकान्त' पत्रके आप बड़े ही प्रेमी पाठक रहे हैं। एक बार इसके विषय में आपने अपने महत्वके हृदयोद्गार संस्कृत पद्योंमें लिखकर भेजे थे, जिन्हें प्रथम वर्ष के अनेकान्तकी पूर्वी किरण में प्रकट किया गया था। आपके गवेषणापूर्ण लेख अक्सर अंग्रेजी तथा कनड़ी जैसी भाषाओंके पत्रों में निकला करते हैं। यह लेख भी मूलतः कनड़ी भाषामें ही लिखा गया है और आजसे कोई बारह वर्ष पहले वेंगलरकी 'कर्णाटक-साहित्य परिषत्पत्रिका' में प्रकाशित हुआ था । लेखक महाशयने उक्त पत्रिका में मुद्रित लेखकी एक कापी मुझे भेट की थी और मैंने मा० वर्द्धमान हेगडेसे उसका हिन्दी अनुवाद कराया था । अनुवाद में कुछ त्रुटियां रहनेके कारण बादको प्रोफेसर ए. एन. उपाध्याय एम. ए. सहयोगसे उनका संशोधन किया गया । इस तरह पर यह अनुवाद प्रस्तुत हुआ, जिसे 'अनेकान्त' के दूसरे वर्ष में ही पाठकों के सामने रख देनेका मेरा विचार था; परन्तु अबतक इसके लिये अवसर न मिल सका । अतः आज इसे अनेकान्तके पाठकोंकी सेवामें उपस्थित किया जाता है । इस लेख में विद्वानों के लिये कितनी ही विचारकी सामग्री भरी हुई है और अनेक विवादापन विषय उपस्थित किये गये हैं; जैसे कि नृपतुंग नामक प्रथम अमोघवर्ष राजाका मत क्या था ? वह जिनसेनादिके द्वारा जैनी हुआ या कि नहीं ? राज्य छोड़ कर उसने जिनदीक्षा ली या कि नहीं ? और प्रश्नोतररत्नमाला जैसे ग्रंथ उसीके रचे हुए हैं या किसी अन्यके ? विचारके लिये विषय भी अच्छे तथा रोचक हैं। आशा है इतिहासके प्रेमी सभी विद्वान् इस लेख पर विचार करनेका कष्ट उठाएँगे और अपने विचारको - चाहे वह अनुकूल हो या प्रतिकूल —युक्ति के साथ प्रकट करनेकी ज़रूर कृपा करेंगे, जिससे लेखके मूल विषय पर अधिक प्रकाश पड़ सके और वस्तु स्थितिका ठीक निर्णय हो सके । जैन विद्वानोंको इस ओर और भी अधिकता के साथ ध्यान देना चाहिये । - सम्पादक ]
पतुंग, अमोघवर्ष, इत्यादि अनेक उपाधियों अथवा प्रकार बहुत से विद्वानोंकी राय है । परन्तु इस
विचारसे निर्बल मालूम पड़ते हैं। मैं अपने आक्षेपोंको सबके सामने रखता हूँ और इस
वंशज नरेश दिगम्बर जैनाचार्य श्री जिनसेनसूरि से जैन धर्मका उपदेश पाकर जैनी होगया, इस
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वर्ष ३, किरण १० ]
विषय में विशेष जानने वालोंमे मेरी प्रार्थना है कि वे इस संबन्धमें विशेष तर्क-वितर्क करके यथार्थ बातका निश्चय करें ।
नृपतु का मतविचार
सबसे पहिले राष्ट्रकूट वंशका संक्षिप्त परिचय दिये बिना तथा श्री जिनसेनाचार्य और उनका समय निर्णय के संबन्ध में थोड़ा-बहुत कहे बिना आगे चलने पर समझने में दिक्कत पड़ेगी । श्रतः इन दोनों विषयोंको पहिले कह कर पश्चात् इस लेखक मुख्यांश पर विचार किया जाना चाहिये ।
राष्ट्रकूटवंश
इस वंश के बहुत से राजाओं के शामनोंसे सबसे पहिले 'गोविन्द' नामक नरेश हुआ यह बात मालूम पड़ने पर भी, 'एलूर-गुफा ( Caves दन्तिवर्म
३ इन्द्र [1
४ दन्तिदुर्ग ( दन्तिवर्म, दन्तिग खङ्गावलोक, वैरमेघ)
of Ellora ) के 'दशावतार देवालय' के एक शिलालेख में गोविन्द के पूर्वज 'दन्तिवर्म तथा 'इन्द्रराज' इन दोनों का नाम रहने से * तथा प्राचीन लेखमालाके लेख नं० ६, ९, १३३, और १५६ में कही हुई वंशावली में भी उनके नाम रहने से उस दन्तिवर्म से ही वंशावलीका दिखाना योग्य समझकर वैसा किया गया है। चूंकि इनमें से तीसरे 'गोविन्द' नामक नरेशने ( ई० सन्. ७९४-८१४ ) 'मही' और 'तापी' ( तापती ) के मध्यवर्ती 'लाट' ( या 'लाल' अर्थात् गुजरात ) देशको वहाँके राजासे जीतकर उसे अपने छोटे भाई (तृतीय) ‘इन्द्र' को दे दिया और उसे वहाँका राजा नियुक्त कर दिया। इससे यह विभक्त होकर इसकी प्रधान शाखा 'दक्षिण- राष्ट्रकूटवंश' नामसे और गौण शाखा 'गुजरात-राष्ट्रकूट' नाम से प्रसिद्ध हुई ।
( प्रा० ले० मा० नं० २ )
इन्द्र I
१ गोविन्द 1
२ कर्क (कक्क) 1
E. H. D. Pg. 47.
+ वाढीयं मंडलं यस्पतन इव निजस्वामि (निजभ्रात्रा ) दत्तं ररस में ( प्रा० ले० मा० नं० ४ )
भ्राता तु तस्य (गोविन्दस्य ) ....."इन्दराजः ।
शास्ता बभूवाद्भुतकीर्तिसूतिस्तद्दत्तला टेश्वरमंडलस्य ॥
५ कृष्ण I (कन्नर ) अकालवर्ष, शुभतुंग
३७३
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*50
अनेकान्त
६ गोविन्द II प्रभूतवर्ष
दक्षिण- शाखा गोविन्द III (गोविन्द) प्रभूतवर्ष, जगत्तुंग, श्रीवल्लभ, पृथ्वीवल्लभ (इ०स० ७९४ ८१४) ९ शर्व अमोघवर्ष 1
नृपतुंग ( ई० सन् ८१४-८५७) अतिशयधवल (वीरनारायण) १० कृष्ण II (कन्नर) अकालवर्ष, शुभतुंग (८७७-९१३)
जगतुंग●
११ इन्द्र III (नित्यवर्ष )
T १२ अमोघवर्ष १३ गोविन्द (गभीन्दर )
प्रभूतवर्ष
* यह 'अलब्ध राज्यः सदिवं विनिन्ये "धात्रा' (प्रा०ले०मा० नं० १३३ और १५६) इस वाक्यके अनुसार पट्टाभिषेक के पहिले ही मर गया मालूम पड़ता है।
+ बडेग (डिग ) - यह बहुश: कर्नाटक भाषाका नाम ही मालूम पड़ता है । "बर्देन्दु प्रौढी" । (शब्दमणिदर्पण ) से बने हुए 'बदेंग, ( = प्रौढ ) का रूपा
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
७ ध्रुव I (घोर) निरूपम, धारावर्ष, कलिवल्लभ
गुजरात - शाखा'
१ इन्द्र III
२ कर्क ( क्क्क) II (अमोघवर्ष) ३ ध्रुव II (निरुपम ) ४ अकालवर्ष (शुभ तुंग) ५ ध्रुव III
अतितुंग, निरुपम, धारावर्षं
६ (कृष्ण अकालवर्ष )
१५ कृष्ण III (कन्नर, इसिवकन्नर ) १६ खोटिंग अकालवर्ष
नित्यवर्ष
१८ इन्द्र IV (ई० सन् ९८२ में मर गया )
१४ बडेग (वड्डिग) अमोघवर्ष III
निरुपम
१७ कक्क II (कक्कल) अमोघवर्ष, नृपतुंग, वीरनारायण
न्तर होगा ? 'पंप-भारत' में (१-२३ इत्यादि ) 'बहेग' यह नाम है ।
+ खोडिग (कोदिग) संभवत: कन्नड शब्द होगा । यह बहुशः 'कोहु' ( = किरीट ) से शायद 'कोहिग' ( = किरीट ) अर्थात् 'नरेश' ( अथवा 'अर्जुन') इस प्रकारका अर्थ हुआ होगा ।
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वर्ष ३, किरण १० ]
ये
राष्ट्रकूट चन्द्रवंश के यदुकुल वाले हैं, ऐसा उनके निम्न लेखोंसे मालूम पड़ता है (१) ई० सन ९३३ के शासन मेंवंशः सोमादयं
-:
नृपतु कामतविचार
वंशो बभूव भुवि सिन्धुनिभो यदूनाम् ।
( प्रा० ले० मा० नं० १ )
२) ई० सन ९३७ के चित्रदुर्गं नं० ७६ के शासन में-
'यादवरातनन्वजर ू ॥
यादवकुलदोलपलरूं ।
मेदिनियं सुखदिनालदरवरिं बल्लियं ॥
ही हैं,
श्रीदप्तन्दन्तिगन्.........(E. C. Vol XI ) - उस यदुवंश के सात्यकी वर्ग के लोग यह बात उनके कुछ शासनों में पाई जाती है । ई० सं० ९४० केउद्वृत्तदैत्य कुलकंदलशान्तिहेतुस्तत्रावतारमकरोत् पुरुषः पुराणः ॥ तद्वंशजा नगति सात्यकिवर्गभाजस्तुरंगा इति चितिभुजः प्रथिता बभूवुः ॥ ( प्रा० ले० मा० नं० १५६ ) इसी श्लोकका उत्तरार्ध इनके ई० सं० ९५९ के शासन में एक और रीति से इस प्रकार है
तद्वंशजाः जगति तुंगयशः प्रभावास्तुगा इति चितिभुजः प्रथिता बभूवुः (प्रा० ले० मा० नं० १३३ ) इससे इन नरेशों के नामों में ( अर्थात इनके गौण नामों में ) 'तुंग' इस पर पदके रहनेका क्या कारण है सो मालूम पड़ता है । इसी तरहसे इनमें से ज्यादा कम सबको 'वर्ष' इस परपदका व्यपदेश है इस पर ध्यान देना चाहिये ।
५८ १
इन नरेशों में प्रत्येक नरेशके नामधेयों में तथा गौण नामों में एक तरहका परंपरा और क्रमबद्ध संबन्ध है यह तो भूलना नहीं चाहिये जैसे कि इनके'गोविन्द' नामवालेको 'जगतुंग' और 'प्रभूतवर्ष' इस प्रकारका गौण नाम है, 'कृष्ण' (कन्नर ) नाम वालेको 'शुभतुंग' और 'अकालवर्ष' इस प्रकारका विशेष नाम है; 'ध्रुव' ( घोर ) नाम वालोंको 'निरुपम' और धारावर्ष ऐसा व्यपदेश है, 'कर्क' (कक्क) नामके व्यक्तियोंको 'नृपतुंग' और 'अमोघवर्ष' ऐसी उपाधि है ।
इस कारण से यह एक साकूत (सार्थक ) अनुमान होता है कि इस वंशावलीके, 'ध्रुव' नामक नरेशों में 'तुंग' यह परपदयुक्त गौण नाम नहीं देखा जाने से अब तक मिले हुए उनके शासनादि कोंमें वह न मिला इतना ही कह सकते हैं, परन्तु उनको 'तुंग' यह परपदान्वित नाम भी होगा, इस प्रकार कह सकते हैं । वैसे ही हमारे इस लेख के नायक नृपतुंग के 'नृपतुंग' 'अमोघवर्ष' इस • प्रकार के गौण नामोंका परिशीलन करने पर मालूम पड़ता है कि उसका नामधेय 'शर्व' इतना
* इस राष्ट्रकूटवंशके गुजरात शाखाके दूसरे 'ध्रुव' को 'अतितुंग' ऐसा नाम भी था ( 'शुभतु गजोतितुं ग... प्रा० ले० मा० नं० ४ ) । उस नामके और नरेशों को भी वहीं नाम रहा होगा ।
+ श्रवणबेलगुलके नं० ६७ के शासन ( E.C. Vol. II) में 'राजन् साहसतुंग सन्ति बहवः श्वेतात - पत्रा नृपाः ।' ऐसा लेख है। इस 'साहसतुरंग' नामका नरेश राष्ट्रकूट वंशीय 'दन्तिदुर्ग' होना चाहिये, ऐसा उन शासनों के उपोद्घात ( ०४८ ) कहा है ।
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१८२
अनेकान्त
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
उपाधि मालूम पड़ती है । ( शब्दमणिदर्पण Mangalore १८९९ पृ० १७१ )
इन नामों के सिवाय इसे 'नरलोकचन्द्र' (क० म० । २३) 'नीतिनिरन्तर ' ( 11 ९१ ) ( कृतकृत्य मल्ल ) वल्लभ' ( 1६१ ) 'विजयप्रभूत' ( I. १४९, II १५३, III २३६, 'सरस्वतीतीर्थावतार' III २२५ ) और 'प्रन्थान्त्य गद्य ऐसी उपाधियाँ थी, ऐसा मालम पड़ता है ।
ही नहीं किन्तु इसी उपाधियुक्त इस वंश के उभय शाखाओं के अन्य नरेशोंके सदृश इसको भी 'कर्क' (कक्क) ऐसा नाम होगा । (कर्क) यानी श्वेताश्व ( 'कर्क: श्वेताश्वे " -- ) या 'श्वेत ' ऐसा अर्थ है । उसका उपाधि अन्तर्गत 'अतिशय धवल' यह नाम भले प्रकार दिखाई देनेसे हमारा यह ऊहापोह निराधार नहीं है ।
इस नृपतुंग (अमोघवर्ष) के और भी अनेक नाम या उपाधियाँ थीं, यह बात कर्नाटक 'कविराजमार्ग' से तथा इसके शासन से भी मालूम पड़ती है :
:--
(१) शर्व - - ई० सन् ६७ के शासन में . ( प्रा०ले० मा० नं० ४ )
श्रीमहाराजशर्वाख्यः ख्यातो राजाभवद्गुणैः । अर्थिषु यथार्थतां यः समभीष्टफलातिलब्ध तोषेषु ॥ वृद्धिं निवाय परमाम मोघवर्षाभिधानस्य ॥ (२) नृपतुंग --- कविराजमार्ग I ४४, १४६; II. ४२, ९८, १०५; III ९८, १०७, २०७, २१९, २३० और प्राचीन लेखमाला लेख नं० १३३ और १५६ आदि ।
* प्रा० ले० मा० नं० ४, ५, ७८ और I. A Vol XII. pp. 158, 181, 218.
(३) अमोघवर्ष - - कविराज मार्ग III १, २१७ आदि ।
दूसरी पंक्ति में 'कम् + अलंकृतम्' इस प्रकार सन्धि कर लेना चाहिये । ('कं + शीर्षे' हेमचन्द्र का 'अनेकाथ(४) अतिशयधवल -- क० मा० I. ५, २४, संग्रह' ५ कम् = तले' ) इस प्रकार के अनेक पद्य संस्कृत १४७ II. २७, ५३, १५१; III ११, १०६ ।
में हैं। माघ कविके 'शिशुपालवध' काव्य के १६ समें बहुत से हैं । उदाहरणार्थ
तस्यावदानैः समरे सहसा रोमहर्षिभिः । सुरैरशंसि ग्योमस्यैः सह सारो महर्षिभिः ॥ ११ ॥ + प्रा० ले०मा० नं०६ और IA Vol. XII P. 249
प्रा० ले० मा० नं०8 और I. A., P. 264.
(५) वीरनारायण - क० मा० I १०२, III १८० | इसके नीचे दिये जाने वाले इसके समय के एक शासन में इसे 'कीर्तिनारायण' ऐसा कहा है ।
शब्दमणिदर्पण में उद्धृत कन्द पद्य में कहा गया नृपतुंग यही होगा तो उसे वहां 'केय्दु वोत्तरदेव' ऐसा कहा जानेसे वह एक उसकी
इस वंशके नरेशोंके शासनों में देवतास्तुति सम्बन्धी अत्रतारिकापद्य इस प्रकार हैं-(१) सवोव्याद्वेधसा धाम बन्नाभिकमलं कृतम् । हरश्च यस्थ कान्तेदुकलया कमलंकृतम् #11 यह हरिहर - स्तुति-सम्बन्धी श्लोक है; यह श्लोक ही इनके बहुतसे शासनों में मिलता है( २ ) जयन्ति ब्राह्मणः सर्गनिष्पत्तिमुदितात्मनः ।
सरस्वती कृतानन्दा मधुराः सामगीतयः ॥ ( ३ ) श्री सरस्वत्युमा भारवल्ली संश्लेषभूषितम् । भूतये भवतां भूयादजकल्पतरुत्रत्रम् ॥
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वर्ष ३ किरण १० ]
(४) सजयति जगदुत्सव प्रवेश प्रथनपरः करपल्लो मुरारेः । लसदस्मृतपयः कणाकं लक्ष्मीस्तन कलशानन लब्धसनिवेशः । जयति च गिरिजाकपोल बिम्बा
नृपतु का मत विचार
दधिगतपक्षविचित्रिता स भित्तिः । त्रिपुरविजयिनः प्रियोपरोधादुद्धृतमदनाभयदान शासनेव ॐ ॥ (५) नमस्तुंगशिरश्चुंबिचन्द्रचामरचारने । त्रैलोक्य नगरारम्भमूलस्तम्भाय शंभवे ॥ इत्यादि इनके अनेक शासनोंमें किसी प्रकारके देवता स्तुति सम्बन्धी अथवा अन्य शिरोलेख के बिना 'स्वस्ति' ऐसा वचन ही आरम्भ में रहकर † उसके पीछे ही लेख लिखा गया है, परन्तु इनका कोई भी लेख तथा शासन जिन स्तुति-सम्बन्धी शिरो लेखसे युक्त नहीं है । इसके पश्चात् दिया जाने वाला नृपतुंगका शासन भी 'मवोव्यान' ऐसी हरिहर स्तुति से ही प्रारम्भ होता है ।
इनके शासनों में तथा ताम्र पत्रों में भी बनाए हुए चिन्ह इस प्रकार हैं - ( १ ) शिव की मूर्ति (I. A. p. 156); पद्मासन से युक्तमपको पकड़े हुए शिव (1. A. pp. 179,263) ; शिवलिंग और नन्दि(I. A.pp. 22, 224, 255, 270 ); इत्यादि । इनमें पद्म मनसे युक्त और हाथसे सर्पोंको उठाए हुए शिवमूर्ति राष्ट्रकूट शासनों में रूढिगत लांछन है, इस प्रकार विद्वानोंका अभिप्राय है ( I. A. P. 179 ) ।
* प्रा० ले० मा० नं० १३३, १५६ + चित्रदुर्ग नं० ७१ (E.C. XI). 1 ऐसा Epigraphia Carnatica लेखमाला इत्यादिके अनेक भागों में है और I. A. pp. 221, 222, 223, 224 इत्यादि ।
इनमें से बहुत से नरेशोंने जिनालयोंको दान भी दिया है, पर इससे इतना ही जाहिर होता है कि वे सब धर्मोंको समान दृष्टिसे देखते थे । इससे वे जैनधर्मी थे, यह बात कही नहीं जा सकती । क्योंकि इनमें तीसरे गोविन्दने 'अशेष गंगमंडलाधिराज श्रीचाकिराज' की विज्ञापनाके अनुसार ई० सन् ८१३ में एक जिनेन्द्र भवनको दान दिया है, यह बात एक शासन परसे दिखाई देती है । ( I . A. pp. 13-16 ) उसी नरेशने ई०. सन् ८०९ में वेदवेदांगनिष्णात ब्राह्मणको एक ग्राम दान दिया है, यह बात उसके एक ताम्रपत्र में है । (Mythic Society's Journal, Vol. XIv. No. 2, P. 88 ); और इसी ताम्रपत्रका शिरोलेख हरिहर - स्तुति सम्बन्धी ('सवोव्यात्' ऐसा ) श्लोक तथा इसीकी मुद्राका चित्र शिवकी मूर्ति मालूम
पड़ता 1
१८३
अब नृपतुंग के समय के एक शिलालेख (I.A Opp. 218 219) का परिशीलन कीजिये-
स्वस्ति ॥ सवोन्याद्वेधसा धाम यन्नाभिकमलंकृतम् । हरश्च यस्य कांतेदुकलया कमलंकृतम् 11
********************
लब्धप्रतिष्टमचिराय कलि सुदूर
मुत्सार्य शुद्धचरितैर्धरणीतलस्य ॥
कृत्वा पुनः कृतयुगक्रियमप्यशेषं । चित्रं कथं निरुपमः कलिवस्लमो भूत् ॥
* यह 'निरुपम कलिवल्लभ' याने नृपतुरंगका पितामह पहिला ध्रुव ( धोर ) नामका 1
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२८४
भनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
प्रभूतवर्ष गोविन्दराज शौर्येषु विक्रम "जगत्तुंग सूर्यग्रहण दिन समाप्त होजानेको कहनेसे वह इति श्रुतः । अथ स कीर्तिनारायणो जगति ॥ तिथि ई० सन् ८६६ के जून ता० १६ के दिन होती अरिनृपतिमुकुटपट्टितचरणस्सकल भुवनवलयविदितशीयः। है। वह साल नृपतुगंका राज्य भारकालका ५२ वंगांगमगधमालववेंगीशैरचितोतिशयधवलः ॥ वाँ वर्ष कहा जानसं वह ई० स० ८१५ में गद्दी पर
स्वस्ति समधिगतपंचमहाशब्द-महाराजाधिराज. बैठा होगा । बैसे ही उनके अन्य शासनोंसे उसने परमेश्वरभट्टारक चतुरुदधिवलयवालयुतसकलधरातल-प्रा
ई० स० ८७७ तक यानी करीब ६२-६३ साल तक तिराज्यानेकमंडलिकर्कलाकटककटिसूत्र-कुण्डलकेयर-हा- प्रजा-परिपालन किया, ऐसा मालम पड़ता है । राभरणालंकृत...."अमोघरामं परचक्रपंचानन......
अतः इसके नामका ई० स० ८७० का शासन "बहे : मनोहरं अभिमानमंदिरं रहवंशोद्भवं
सोरब नं ८५ वा । इसके अन्तिम साल में लिखा गरुड़लांछनं तिविलियपरे घोषणं लहलूरपुरपरमेश्वरं
गया होगा । इतना ही नहीं उस वक्त वह सिंहाश्रीनृपतुंगनामांकित-लक्ष्मीवल्लभेन्द्रना चन्द्रादित्यर
सनासीन होगा, ऐसा उससे निष्पन्न होता है । कालं वरेग महाविष्णुवराज्यंबोल् उत्तरोत्तर राज्याभि
इसे गद्दी पर बैठते वक्त कमसे कम यानी १८ वृद्धिसलुत्तिरे शवनपकाला-तीतसंवत्सरंगल एलनूर'..
... या २० सालका तो अवश्य होना चाहिये, इस तोंबत्तेएटनेय व्ययमेव संवत्सरं प्रवर्तिसे श्रीमदमोघवर्ष- प्रकार मानने पर इसका शासन समय समाप्तहोते नपतुंग-नामांकितना विजयराज्यप्रवर्द्धमानसंवत्सरंगल वक्त इसे ८१ या ८३ वर्षसे ऊपरका होना चाहिये। अप्वत्तेरडं उत्तरोत्तर राज्याभिवृद्धिसलत्तिरे अतिशय- इससे भी ज्यादा ही होना चाहिये न कि कम धवक्षनरेन्द्रप्रसाददिदममोघ वर्षदेव-पदपंकजभ्रमरं ...
... इतना कह सकते हैं । अतः इसके समयके ५२ वें ज्येष्ठ मासदमास्यु प्रादित्यवारमाशिसूर्यग्रहणदन्दु......
वर्षके शासनमें 'सवोव्यात्' इस प्रकारका हरिनागार्जुननं बेसगे सिरिगाउंडनएल्लु पुदिदुदु ॥
हर-स्तुति-सम्बन्धी शिरोलेख रहनेसे तब तक
उसने जैनधर्मको ग्रहण नहीं किया ऐसा कहनेमें ___ यह शालिवाहन शक के ७८७ वर्ष व्यतीत .
कोई आक्षेप नहीं दीखता । हमारे अनुमानके अनुहोकर ७८८ के व्यय संवत्सरके ज्येष्ठ ब० ३०
सार तब उसकी करीब ७०-७२ तक अवस्था होनी यह 'प्रभूतवर्ष' (जगत्तुंग) ऐसा गोविन्दराज
चाहिये । यह शा० श० ७९७ में (ई० सन नृपतुङ्गका पिता है।
८७५ ) गद्दी अपने पुत्रको छोड़कर राज्यकारसे
निवृत हुआ, इस प्रकार श्रीमान्. के. बी. पाठक में यह 'बई' ऐसा शब्द 'बर्दु' (बर्देन्दु प्रौडि)
____tE.C., Vol. VIII., Pt. II (स्वस्त्यमोघउसीका रूपान्तर होगा?
बर्षवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरभट्टारका पृथवीराज्यं * एल्लुबरह, यह 'एल्लु' शब्द आधुनिक गेये......... शकवर्षमेलनूरतोंभतोंभतनेय संवत्सरंकनडीमें नहीं, परन्तु तामिल, मलैयाल भाषामें सर्व- प्रवर्तिसे.........|| इस लेख में देवता-स्तुति शिरोलेख सामान्य है।
नहीं है।
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वर्ष
३, किरण १० ]
नृप का विचार
महाशय की राय है 1 वह कौनसे आधारसे है, यह मालूम नहीं होता। इतना ही नहीं सोरब शिला लेख नं० ८५ ( ई० स० ८७७ ) के शासन में इस अमोघवर्षको 'पृथिवी राज्यं गेये' ऐसा कहा जाने से वही उस समय गद्दो पर रहा होगा इस प्रकार दृढताके साथ मालूम पड़नेसे पाठक महाशयका कहना ठीक मालूम नहीं पड़ता है ।
अतः ई० सन् ८७७ वें तक तो यह राज्यकार से निवृत नहीं हुआ ऐसा कहना चाहिये ।
+ कविराजं मार्ग - उपोद्घात पृ० ३ ।
* E.A.D.P. 49-50 (Mythic Socie - ty's Journal Vol. XIV, No. 2, P. 84)
हुआ अथवा जैनधर्मी होनेसे ही उसने ऐसा किया, यह माननेका कोई कारण नहीं है ।
इसके पिता गोविंदके कुछ शासनोंसे ऐसा मालूम होता है कि गोविन्द के पिता ध्रुव अथवा घोरनरेश ( निरुपम, धारा वर्ष, कलिवल्लभ ) ने अपने पुत्र के पराक्रम पर मोहित होकर अपने जीवनकाल में ही उसे गद्दी पर बैठाकर आप राज्यकारसे निवृत होना चाहा और यह बात उसे सुनाने पर उसने उसे स्वीकार नहीं किया। आपके अधीन मैं युवराज्य ही होकर रहूँगा ऐसा कहा, इस प्रकार लिखा हुआ है । अतः राष्ट्रकूटवंशीय नरेशों में अपने बुढ़ापे के कारण, या पराक्रमी पुत्र की दिग्विजय आदि साहसकार्य से खुश होकर या अपनी स्वच्छन्दतासे गद्दी छोड़नेका यह एक उदाहरण मिलता है। अतः नृपतुंग ई० सन् ८७७ के अनन्तर अपनी उम्र ८० के ऊपर समझ कर राज्यकारसे निवृत हुआ' होगा तो उसने अपने विनयसेन विवेकसे ही ऐसा किया होगा यह कहना चाहिये । ऐसा न कहकर अपना धर्म छोड़ कर जैनधर्मी
इस वंशके लोगों की राजधानी 'मान्यखेट' (Malkhed) नगर है । उसे इस नृपतुंगने ही प्रथमतः अपनी राजधानी कर लिया था, इस प्रकार कीर्तिशेष डा. रा. गो. भंडारकर का कहना है (E. H. D. पृ० ५१ ) । 'कविराजमार्ग' के उपोद्घात में श्रीमान् पाठक महाशय के कथनानुसार ( पृ० १० ) यह मान्यखेट नृपतुंग के प्रपितामह प्रथमकृष्ण के काल से ही इस वंशके लोगों की राजधानी था ऐसा मालूम पड़ता है । उसके पहिले उनकी राजधानी 'मयूर खंडि ' ( वर्तमान बंबई आधिपत्य के नासिक जिलाके 'मोरखंड') थी ऐसा जान पड़ता है । कुछ भी हो, (वर्तमान धारवाड़ जिला के अन्तर्गत ) 'बँकापुर' उनकी राजधानी नहीं थी, यह बात दृढताके साथ कही जा सकती है
१८५
जिनसेनाचार्यकी परंपरा इस प्रकार पाई जाती है:
एलाचार्य
/
वीरसेनाचार्य
जिनसेन
दशरथ
गुणभद्र
इस परंपरा के संबन्ध में इन्द्रनंदिके 'श्रुतावतार' में निम्न प्रकार कहा है * :
० वि० २० मा० पृ० १०,
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१८६
अनेकान्त
कालेगते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेला चार्थो बभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः ॥ १७६ ॥ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारनष्टं लिलेख ॥ १७७ ॥
वीरसेनका शिष्य जिनसेन था और वीरसेन का विनयसेन नामक बड़ा शिष्य भी था, यह बात जिनसेनके ग्रन्थोंसे पाई जाती है
श्रीवीरसेन मुनिपादपयोजभृगः ।
श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् ॥ तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण ।
काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ पार्श्वभ्युदय ४,७१
इस
:
गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' की प्रशस्ति में परंपरा के सम्बन्धमें इस प्रकार कथन है। वीरसेनाग्रणी वीरसेनभट्टारको बभौ ॥ ४ मुनिरनुजिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ॥ ६ ॥ दशरथगुरूराक्षी तस्य धीमान् सधर्मा ॥ १३ ॥ शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयो † रासीज्जगद्विश्रुतः ॥ १५॥ देवसेनाचार्य ने अपने 'दर्शनसार' ( ई० स० ९३४ ) में इस प्रकार कहा है:
सिरिवीरले सिस्सो जिण सेणो सयलसत्थविराणी ॥३० तस्य सिस्सो गुणवं गुणमहो दिव्वणाणपरिपुरणो ॥ ३१ ये वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र दिगम्बर जैन
+ जै० सि० भा० १ पृ० २७ 'अनयोः '
'इन दोनोंका अर्थात् जिनसेन और दशरथ दोनोंका शिष्य ।
* संस्कृत छाया
श्री वीरसेनशिष्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी ॥३०॥
तस्य च शिष्यो गुरवान् गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः ॥३१
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
धर्म के मूल संघ के + 'सेन' संघ वाले थे, इतना ही मालूम पड़ता है; पर कौनसे 'गण' के और कौन से 'गच्छ' वाले थे सो मालूम नहीं पड़ता । ये बहुशः 'देशीगरण' के होने चाहियें । ये 'पुन्नाट' गण वाले नहीं हैं, इस सम्बन्ध में जैन विद्वानों में अभिन्न विश्वास है !
'पुन्नाट' इस नामका गरण भी 'सेन' संघकी एक शाखा है। इसी सेन संघ के पुन्नाटराण के दूसरे 'जिनसेन' ने संस्कृत में करीब ११००० श्लोक परिमित जैन 'हरिवंश' की रचना की है । उसे उसने शक सं० ७०५ ( ई० सन ७८३) में लिख नरेश श्रीकृष्णराजका पुत्र श्रीवल्लभ नामका कर पूर्ण किया है । उस समय राष्ट्रकूटवंशका दूसरा गोविन्द गद्दी पर था, यह बात उसकी प्रशस्तिके निम्न पद्य से पाई जाती है
शाकेयब्दशतेषु सप्तसुदिशां पंचोत्तरे षूत्तराम् । पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्रींवा भेदक्षिणाम् ॥१३॥ .
इस हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेनने अपने ग्रन्थके मंगलाचरण + में वीरसेन, जिनसेना - चाकी इस प्रकार प्रशंसा की है :
+ इस मूलसंघकी शाखा इत्पादिके संबन्ध में श्रवणबेलगुलके बहुत से शासन में उल्लेख हैं । (E. C. Vol. II)
+ वि० २० मा० पृ० ८
* जै. सि. भा. १, २ - ३ पृ. ७३
( 'पवित्र पुंनाटगणाग्रणी गुणी' )
जै. सि. भा. १, २ ३. पृ० ७४
+ जै. सि. भा. १, २-३ ० ६०
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नृपतु का मत विचार
वर्ष ३. किरण १० ]
जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेन गुरोः कीर्तिरकलं कावभासते ॥ ४० ॥ यामिताभ्युदये तस्य जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिः संकीर्तयत्यसौ ॥ ४१ ॥ वर्द्धमान पुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः । प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु ॥ ४२ ॥
अनेक
ये श्लोक 'हरिवंश' के आदि-भाग में हैं, जिस के ११००० श्लोक लिखने में कमसे कम ५ साल तो लगे होंगे । अतः जिनसेनने उसे शक सं० ७०० ( ई० सन् ७७८ ) में लिखना प्रारंभ किया होगा ऐसा मालूम पड़ता है । तब वीरसेन कविचक्रत्रर्ती कहलाते थे, उसके पहिले उन्होंने काव्यों की रचना की होगी; वैसे ही उनके शिष्य जिनसेनने भी उसके पहिले संस्कृत में 'वर्धमानपुराण' तथा 'जिनेन्द्र गुणसंस्तुति' # नामका काव्य लिखकर पूरा किया होगा । इस हरिवंशमें गुरु वीरसेनको 'स्वामी' कहे बिना उनके शिष्य जिनसेनको 'स्वामिनो । जिनमनस्य' कहा जानेसं
* इस काव्यका नाम ( पार्श्वजिनेन्द्रस्तुति ) है, ऐसा 'विद्वद्वत्वमाला' में ( पृष्ट २६ ) बतलाया है, उसी का (जिनगुणस्तोत्र) नामसे पूर्वपुराण' की प्रस्तावना में ( पृ० ५ ) उल्लेख है । . ( 'पूर्वपुराण' - न्यायतीर्थ शान्तिराज शास्त्रीका कर्नाटक अर्थसहित मुद्रण - मैसूर
१२५)
इस जिनसेनको 'स्वामी' कहने के लिये क्या कारण है, इस सम्बन्ध में 'तत्वार्थसूत्रव्याख्याता स्वामीति परिपठ्यत' (नीतिसार) बचनका आधार देते हैं (वि. र. मा. पृ० २६ ) । पर जिनसेनने तत्वार्थसूत्र पर
१८७
गुरु शिष्य दोनोंके जीवित रहते वक्त वैसा कहना अनुचित होगा। इस मंगलाचरण की रचना करते वक्त वीरसेन स्वर्गवासी हो चुका होगा केवल जिनसेन मौजूद था ऐसा मालूम पड़ता है; वैसे ही उसे 'स्वामी' इस प्रकार संबोधित करने से वह उस वक्तका महाविद्वान् तथा बड़ा आचार्य होता हुआ प्रख्यात हुआ होगा । अतः वैसा कीर्तिवान् होनेके लिये उस कीर्तिके कारणभूत अनेक काव्योंकी उसने रचना की होगी। उस वक्त उसकी अवस्था कमसे कम २५ वर्ष तो अवश्य होगी इस से कम तो सर्वथा नहीं होगी, यह बात निश्चयपूर्वक कह सकते हैं । ऐसी अवस्था में वह शक संo ६७५ ( ई० सन् ७५३ ) के पहिले ही पैदा हुआ होगा ।
वीरसेनाचार्य के शिष्य हमारे जिनसेनने उपर्युक्त दो ग्रन्थोंके सिवाय * और भी अनेक संस्कृत काव्योंको लिखा है, जिनमें मुख्य
व्याख्या ई० सन् ८३७-८३८ में लिखी है; ई० स० ७७८–७८३ के अन्दर लिखे गये 'हरिवंश' में उस कारण से उसे 'स्वामी' ऐसा न कहा होगा; इसके लावा उस व्याख्याको वीरसेनने लिखना प्रारंभ किया था, उसे पूर्ण करने के पहिले ही उनका स्वर्गवास हो जानेसे उसे जिनसेनने पूर्ण किया ऐसा मालूम पड़ता है । ऐसा हो तो वीरसेनको 'स्वामी' क्यों नहीं कहा ? * ये दोनों ग्रन्थ अब तक प्राप्त नहीं ।
['जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' का अभिप्राय पार्श्व जिनेन्द्र की स्तुति 'पाश्वभ्युदय' काम्यसे है और वह उपलब्ध है तथा सं० १९६६ में छुपकर प्रकाशित भी हो चुका है । - सम्पादक ]
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२८८
अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
ये हैं
(=प्रभाव ) से उदित हुई (= पैदा हुई ) वह १ उमास्वातिके 'तत्त्वार्थसूत्र' पर इस जिन 'जयधवला' + टीका, गुर्जर ( गुजराती) नरेशके सेनके गुरु वीरसेनने 'जयधवला' नामकी टीका शासनमें विद्यमान 'मटग्राम' नामके नगरमें शक लिखनी प्रारंभ की थी, जिसकी करीब २०००० सं० ७५९ (ई० स० ८३७-८३८) फाल्गुण श्लोकोंकी रचना करके उनके स्वर्गवासी होने शु० दशमीके दिन समाप्त हुई। पर जिनसेनने उसमें पुनः४०००० श्लोकोंको जोड़ अतः इस टीकाको समाप्त करते वक्त जिनकर ६००००श्लोकोंसे युक्त उस ग्रन्थको पूरा किया सेनकी अवस्था करीब ८४-८५ वर्षकी होनी x। उसे पूरा करनेके समय-संबन्धमें जिनसेननं चाहिये । उसके अन्तमें इस प्रकार कहा है:
२ पार्वाभ्युदयकाव्य-यह कविकुल गुरु इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी। कालिदासके 'मेघदूत' काव्यके ऊपर समस्यापूर्ति मटयामपुरे श्रीमद्गुनरार्यानुपातिते ॥
के रूपमें रचा गया एक छोटासा काव्य है। इसमें फाल्गुने मासि पूर्वाह्न दशम्यां शुक्लपक्षके ।
जिनसेनने २३ वें तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी प्रवर्धमानपूजायां नन्दीश्वरमहोत्सवे ॥
कैवल्य-वर्णना बहुत अच्छो की है। इसमें ४ सर्ग
हैं और उनमें कुल ३६४ वृत्त हैं । न्त्यिग्रन्थमें इस अमोघवर्षराजेन्द्रप्राज्यराज्यगुणोदया।
प्रकार कहा है:निष्टितप्रचयं यायादकल्पान्तमनल्पिका ॥
इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्टय मेघ । एकाचषष्टिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य ।।
बहुगुणमपदोष कालिदासस्य काव्यं ॥ समतीतेषु समाता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥1
मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशांक । अर्थात-अमोघवर्ष नामक नरेशके प्राज्य भुवनमवतु देवस्सर्वदामोघवर्षः ॥४-७० ॥ (=विस्तृत ) राज्य (=राज्यभार) के गुण इससे यह काव्य अमोघवर्ष मामके एक ___x वीरसेन तथा जिनसेनने 'जयधवला' नामकी नरेशके समयमें रचा गया मालूम पड़ता है । इस जो टीका लिखी है वह उमास्वातिके 'तत्त्वार्थसूत्र' की काव्यको पढ़ते वक्त मालूम पड़ता है कि इसे कवि टीका नहीं है, किन्तु श्रीगुणधराचार्य-विरचित 'कसाय- यह 'जयधवला' टीका सिद्धान्तग्रंथ कहलाती पाहुड' ( कषायप्राभृत ) नामके सूत्र ग्रन्थकी टीका है। है। इसकी पूर्णप्रति अब ( दक्षिण काड जिजाके) जान पड़ता है 'सूत्रार्थदर्शिनी' पद परसे लेखक महा- 'मूडबिदरी' नामक स्थान पर 'सिद्धान्तमंदिर' में है। शयको भ्रम हुमा है और उसने 'सूत्र' शब्दका अभि- यह प्रति कुछ समयके पहिले श्रवणंघेलगुलके 'सिद्धान्तप्राय गलतीसे उमास्वातिका तत्वार्थसूत्र समझ लिया मंदिर' में थी और वहींसे 'मूडबिदरी' को ले गये, इस
-सम्पादक प्रकार श्रवणबेलगल के शासनग्रन्थों के उपोद्घाप्तमें कहा 1. सि. भा० १, १. ५० ५२-५३ है। (E.C. Vol. II Introd. P. 28
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वर्ष ३, किरण १०]
नृपतुगका मतविचार
२१
ने अपनी मध्यमावस्था में-अर्थात ४०-४५ वर्षके करके पश्चात आदिपुराण लिखना प्रारंभ किया पहिले ही लिखा होगा, यह बात उसकी वर्णना यह बात वास्तविक है; ऐसी अवस्था में इसे उसने वैखरी इत्यादिसे मालूम पड़ती है । इसे जिनसेन- अपनी ८४-८५ वर्षको अवस्थाके पश्चात् लिखना ने ई० सन् ८०० से पहिले ही लिखा होगा; याने प्रारंभ किया होगा,पर वह इसे पूर्ण नहीं कर सका; नृपतुंगके गद्दी पर आरूढ़ (ई० स० ८१५) होनेके इसके ४२ पर्व तथा ४३ वें पर्वके ३ श्लोक मात्र करीब १५ ( या ज्यादा ) वर्षोंके पहिले लिखा (याने कुल १०,३८० श्लोकोंको) लिखने पर वह होगा । ( पर 'हरिवंश' में इस काव्यका जिक्र न जिनधामको प्राप्त हुआ। उस उन्नतावस्थामें भी बानेसे यह ई० सन् ७७८-७८३ के पहिले नहीं १०,३८० श्लोकोंके लिखने में उसे १० वर्ष तो लगे बनकर पीछे लिखा गया ऐसा कहना चाहिये ।) होंगे । उस वक्त उनकी ९५ वर्षके करीब तो ऐसी अवस्थामें इस 'पार्वाभ्युदय' में कहा गया अवस्था होनी चाहिये। ऐसी अवस्थामें उनका 'अमोघवर्ष' राष्ट्रकूट गुजरात-शाखाका दूसरा देहावसान ई० सन् ८४८ के आगे या पीछे हुआ 'कक्क' नामका अमोघवर्ष होगा क्या ? क्योंकि होगा। जिनसेनने अपनी 'जयधवला' टीकाको गुर्जरनरेश ४ जिनसेनके मरणानंतर उसके शिष्य गुणसे पालित मटग्राममें लिखकर समाप्त किया है। भद्रने इस ग्रंथमें करीब १०,००० श्लोकोंको जोड़ नपतुंगकी (या उसके पिता गोविन्दकी) राजधानी कर, करीब २०,००० श्लोक प्रमाण इस 'महापुराण' मान्यखेटमें या अन्य किसी जगहमें नही लिखा को* समाप्त किया। अपनी रचना-समाप्ति-समय जानेसे जिनसेनके पोषक राष्ट्रकूट वंशज गुजरात- के सम्बन्धमें वह उसकी प्रशस्तिमें । इस प्रकार शाखावाले शायद होंगे, इस शंकाको स्थान मिलता कहता है :है। अथवा 'पाश्र्वाभ्युदय' को जिनसेनने अपनी अकालवर्षभूपाले पालयस्यखिलामिलाम् ॥३२॥ आयुकं ६० वर्ष पश्चात स्वयं लिखा होगा तो उसमें कहा गया अमोघवर्ष इस लेखका नायक नृपतुंग श्रीमति लोकादित्ये ....................॥३३॥ ही होगा।
चेलपताके चेल्लध्वजानुजे चेल्ल केतनतनूने । ३ आदिपुराण ( अथवा पूर्वपुराण)-यह जैनेन्द्रधर्मवृद्धिविधायिनि.......... - ॥३॥ जिनसनका अन्तिम ग्रन्थे है । जिनसेनने अपने व
वनवासदेशमखिलं भुजति निष्कंटकं सुखं सुचिरं ।
ज न गुरु वीरसनके स्वर्गारोहणानंतर उनसे नहीं पूरी की गई-बची हुई 'जयधवला' टीकाको स्वयं पूर्ण
___इसमें 'आदिपुराण' (अथवा 'पूर्वपुराण' ) की
कुल श्लोकसंख्या १२,०००, 'उत्तरपुराण' की संख्या + 'हरिवंश' में 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' रूपसे
८,००० है, ये दोनों भाग मिलकर 'महापुराण' कहइसी काव्य ग्रंथका उल्लेख जान पड़ता है।
लाता है। - सम्पादक जै० सि० भा० भाग १, पृ २८
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
तम्पितृनिजनामकृते ख्याते बंकापुरे पुरेष्वधिके ॥३॥ है :शकनृपकालाभ्यन्तरविंशत्यधिकाष्टशतमिताब्दान्ते । यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत् । मंगलमहार्थकारिणि पिंगलनामनि समस्तजनसुखदे ॥३६ पादाम्भोज रजः पिशंगमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः ॥ अर्थात्-राष्ट्रकूट वंशके (नपतुंगके पुत्र)
संस्मर्ता स्वयममोघवर्षनृपतिः पूतोहमद्येत्यलं । अकालवर्ष नामक दूसरे कृष्णके शासन करते वक्त
स श्रीमान् जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलम्||१०॥ ( उसका सामन्त ) 'चेल्ल पताक' नामक लोकादित्य जैनधर्मकी अभिवृद्धि कर्ता हुआ । 'वनवास +
इससे अमोघवर्षने जिनसेनको वन्दन करके
अपनेको अब ही (='अद्य' ) धन्य माना यह देश पर शासन करते वक्त (उस वनवास देशमें) उस लोकादित्यके पिताके नामसे निर्मित 'बंकापुर
बात मालूम पड़ती है, इसके सिवाय जिनसेनसे
जैनधर्मावलम्बन किया या स्वधर्म छोड़कर जिन(इस नामकी उसकी राजधानी ) में शक सं०८२०
सेनका शिष्यत्व ग्रहण किया है, ऐसा अर्थ निक( ई० स०८९७-८ ) में गुणभद्र ने 'उत्तरपुराण'
लता है या नहीं सो मैं नहीं जानता। इसके सिवाय लिखकर समाप्त किया।
उसमें 'अद्य' यह शब्द रहनेसे जिनसेन और
अमोघवर्षके बीचमें एक समय परस्पर भेटका .. क्या नृपतुंग जैन था ?
वर्णन मालूम पड़ता है, इससे ज्यादा अर्थ उसमें (अ) जिनसेन, गुणभद्रके काव्योंमें स्थित उल्लेख अनुमान करना ठीक नहीं मालूम होता है। ___५. नृपतुंगने जैनधर्मको स्वीकार किया, इस अथवा अमोघवर्ष जिनसेनसे जैनदीक्षा लेकर बातको मानने वाले उसे जिनसेनद्वारा जिनधर्ममें उसका शिष्य हुआ होगा तो गणभद्रने उसे दीक्षित हुआ विश्वास करते हैं उनके इस विश्वास. स्पष्ट क्यों नहीं किया? इमी गुणभद्रने अपने 'उत्तर संबन्धमें गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' का यह वृत्त पुराण में बंकापरके लोकादित्यको 'जैनेन्द्रधर्मवद्धिही अन्य आधारोंसे प्रबल आधार है । इस विधायी' इस प्रकार नहीं कहा क्या ? अमोघवर्ष बातको भूलना नहीं । वह वत्त इस प्रकार ने गुणभद्र के खास गुरुसे ही जैनधर्मका अवलंबन
किया होगा तो उसे वैसे ही उल्लेख क्यों नहीं । बम्बई प्रान्तके उत्तर कन्नड जिलाके वनवासी।
किया ? और अमोघवर्ष अपने गुरुका शिष्य था, . : (in the Prasasti of the 'Uttar
तो वह अपना सधर्मी होनेसे गुणभद्र ने अपने purana') we are told that he (i. e. Nripatunga or Amoghavarsha I) be.
_ 'उत्तरपुराण' को अपने सधर्मीके पुत्र अकालवर्षके came the disciple of Jinasena the well आस्थानमें या राजधानीमें अथवा उसके राज्यके known Jaina Author, who also bears. किसी और स्थानमें न लिखकर उसके सामन्त testimony to the fact in tae Parsabh- राज लोकादित्यकी राजधानीमें क्यों लिखा ? yudaya) 1. A. pp. 216-217 (क. मा. उपो- - द्घात १०६)
जै०सि०भा० १, १, २७; वि०र० मा० पृ० २६.
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वर्ष ३. कर १०]
२. नृपतुंगने ई० सन् ७९५-७९७ के अन्दर जन्म लिया होगा, वैसे ही जिनसेनने ई० सन् ७५३ से पहिले ही जन्म लिया होगा, इससे जिनसेन नृपतुंगसे उमर में करीब ४२-४४ वर्ष बड़ा होगा । 'उत्तरपुराण' के श्लोक के अनुसार नृपतुंग -अमोघवर्षंने जिनसेनको वंदन किया यह बात जिनसेनकं अवसान के पहिले ही होनी चाहिये और वह ई० सन् ८४८ के पीछे होनी चाहिये। जिनसेनने अपनी 'जयधवला' टीका को ई० सन् ८३७ में पूर्ण किया उसके पहिले ही उसे अमोघवर्ष-नृपतुंगने अपना गुरू बनाया होगा, तब उस कीर्तिदायि विषयको जिनसेन अपने पवित्र ग्रन्थ - उस टीका में व्यक्त किये बिना 'अमोघवर्ष राजेन्द्र प्राज्यराज्यगुणोदया' इतना ही कह सकता था क्या? अथवा अपने शिष्य अमोघवर्षकी राजधानी में या उसके राज्यके अन्य स्थान पर उसे नहीं लिखकर ' गुर्जराय से पालित'
ग्राम में उसे लिखता क्या ?
नृपतुं का मत विचार
३. जिनसेन के अन्तिम ग्रन्थ 'आदिपुराण' में नृपतुंग-श्रमोघवर्षका नाम नहीं है। यदि वैसा नरेश उसका शिष्य हुआ होता तो उसका नाम जिनसेनने क्यों नहीं कहा सो समझ में नहीं
आता ।
४. गुणभद्रके 'उत्तरपुराण' में जिनसेनकी 'जयधवला' टीकामें तथा 'पाश्वभ्युदय' में ‘अमोघवर्ष' ऐसा नाम देखा जाता हैं; राष्ट्रकूट वंशके नरेश 'शर्व' का 'शर्व' नाम तथा मुख्यतः 'अमोघवर्ष' नाम से विशेष प्रख्यात् 'नृपतुंग' ऐसे नामका बिलकुल अभाव क्यों ?
२६१
'पाश्वभ्युदय' काव्य
इस काव्य के अन्त में (४, ७० ) -- 'भुवनमवतु देवस्सर्वदा मोघवर्षः ॥'
इस प्रकार सिर्फ आशीर्वाद वचन ही है । इससे यह काव्य पूर्ण करते वक्त अमोघवर्ष नामका कोई नरेश था उसे जिनसेनने अपने काव्यमें उल्लेखित किया, इतना ही मालूम पड़ता है; इससे वह अमोघवर्ष इस जिनसेन-द्वारा जैनधर्मी हुआ था -- उसका शिष्य हुआ ऐसा अर्थ होता हो तो मैं नहीं जानता ।
परन्तु इस काव्यकी छपी हुई प्रति (Nirnayasagara Press, Bombay: विक्रम सं० १९६६ ) के प्रत्येक सके अन्त में यह एक गद्य है
:
" इत्य मोघवर्ष परमेश्वर - परमगुरु श्री जिनसेनाचार्यविरचित-मेघदूतवेष्टितवेष्टिते पाश्वभ्युदये भगवत् कैवल्यवर्णनं नाम ( प्रथम, द्वितीयः; तृतीयः, चतुर्थः) सर्गः॥”
इससे जिनसेन अमोघवर्ष का गुरु था यह बात मालूम पड़ती है, पर यह रचना स्वयं जिनसेन की नहीं, बहुतसे समय के पश्चात् प्रक्षिप्त हुई होगी, यह बात निम्न लिखित कारणोंसे मालूम पड़ती है:
१. यह काव्य कालिदास के 'मेघदूत' के ऊपर समस्या-पूर्ति के रूपमें रचा गया है । 'मेघदूत' 'पूर्वमेघ', 'उत्तरमेघ' इस प्रकार दो भाग हैं उनके अनुसार इसमें भी दो भाग होने चाहियें थे, पर इसमें वैसे न होकर केवल ४ सर्ग रक्खे गये हैं, जो न्यूनाधिक रूपमें विभाजित दिखाई देते हैं,
* प्रथम सर्गमें ११८ पद्य, दूसरे में ११८, तीसरे में ५७, चौथेमें ०१, कुल पद्यसंख्या ३६४ ।
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२६२
अनेकान्स
और यह सर्गविभाग भी कथावस्तु में दिखाई देने वाले समन्वयके आवश्यकीय परिच्छेदोंके अनुकूल न रह कर 'मेघदूत' से समस्यापूर्ति के लिये लिया गया पाद...... ठीक न रह कर कृत्रिम रूपसे किया गया मालूम पड़ता है। । इससे जिनसेन ने यह सर्ग-विभाग नहीं किया किन्तु उससे उपरान्त के किसीने किया मालूम पड़ता है । इसके सिवाय अनर्गल रूपसे बहने वाले ( ३६४ पद्योंसें युक्त ) इस छोटेसे कथानक में सर्ग विभक्ति की आवश्यकता क्यों हुई सो मालूम नहीं पड़ता ।
२. किसी काव्यमें अनेक सर्ग हों तो उन सर्गों के अन्त में दिये हुए गद्य में उस सर्ग में वर्णित विषय को सूचना देने रूपसे कहने का रिवाज है, अथवा उन सर्वोको कविने अन्यान्य नाम न दिया हो तो अपने काव्यमें अमुक सर्ग समाप्त हुआ कहने का रिवाज है । पर तमाम सगँका नाम एक रखनेका रिवाज कहीं है क्या ? इस काव्य के प्रत्येक सर्गके अन्त में उस सर्गको 'भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम' कहा है । अपने 'आदिपुराण' के प्रत्येक सर्गमें उसकी वर्णनानुकूल पृथक् पृथक् समंजस नाम दिया हुआ होने से महाकवि जिनसेन द्वारा सिर्फ 'पाश्वभ्युदय में इस प्रकारका दृष्टिदोष (Oversight) हो जाने की सम्भावना
[श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
नहीं है । अथवा इस 'पार्श्वभ्युदय को ही कंवल'भगवत्कैवल्यवर्णनं' नामांतर (इसके विषयानुसार) दिया होगा तो सन्तिम गद्य में - "पाश्वभ्युदये भगवत्कैवल्यवर्णना प्रथमः, द्वितियः, इत्यादि) सगः” रहना चाहिये, जैसे है वैसे रहने का क्या कारण है ? इससे यह मालूम होता है कि प्रत्येक सर्गका अन्तिम गद्य जिनसेनका लिखा हुआ नहीं, और किसीका लिखा होगा ।
† (उदा० - दूसरे सर्गके आदिमें 'इतः पादवेष्टि - तानि', तीसरे सर्गके आदि में 'इतोर्धवेष्टितानि', चौथे सर्गके श्रारंभ में 'इतः पादवेष्टितानि' इस प्रकार सूचना है । अतएव इस काव्यको सर्गरूपसे उसने ही विभा जित किया या व्याख्याता ने किया ऐसा मालूम पड़ता है।
३. इस 'पाश्वभ्युदय' के ऊपर योगिराट् पंडिताचार्यने व्याख्या लिखी है । इसने ई० सन् १३९९ में रचे हुए 'नानार्थमाला' कोषका उल्लेख अपनी व्याख्या में कई जगह पर किया है, इससे यह जिनसेनसे करीब ५५०-६०० वर्षोंसे पीछेका व्यक्ति टीकाकार बहुत पीछे हुआ मालूम पड़ता है; याने
-
मालूम पड़ता है । इसने अपनी व्याख्या के प्रति सर्ग अन्तिम स्थानमें अन्य व्याख्याताकी तरह व्याख्या जिस पर लिखी गई हैं उस काव्य के तथा व्याख्या के नाम के साथ साथ-' इत्यमोघवर्षपरमेश्वर परमगुरुश्री जिनसेनाचार्यविरचितमेघदूत केष्टितवेष्टिते पार्श्वभ्युदये तदूव्याख्यायां च सुवोधिन्याख्यायां भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम प्रथमः ( द्वितीयः तृतीयः, चतुर्थः सर्गः ) इस प्रकार दिया है । इसमें 'पार्श्वभ्युदय' और 'भगवत्कैवल्यवर्णनं' के बीच में इसने अपनी व्याख्या का नाम भी कहा है, अतः वह 'भगवतूकैवल्यवर्णन ' बिशेषवाचिको ( उस काव्यका नाम तथा सर्गका नाम ) इसने ही जोड़ा होगा, ऐसा व्यक्त होता है, वैसे ही अपनी व्याख्या के अन्तिम गद्यमें अनावश्यक 'अमोघवर्षं परमेश्रपरमगुरू जिनसेनाचार्य' इस प्रकार पुनरुक्तिदोषका भी खयाल नहीं करके जोर जोर से
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वर्ष ३, किरण १० ]
कहने से मूल काव्यका सर्गान्तिम गद्य भाग भी इसके द्वारा जोड़ा हुआ मालूम पड़ता है। इस बात को और दृढ़ करने वाला एक और प्रबल आधार है । वह यह है :
नृपतुगका मतविचार
इस पंडिताचाचार्य ने अपनी व्याख्या में अपने से करीब ५५८-६०० वर्षोंके पीछे इस 'पाश्वभ्युदय' की उत्पत्ति-संबंध में इस प्रकार कहा है कि कालीदास नामका 'कश्चित्कवि' 'मेघदूत' नामक काव्यकी रचना करके, 'मदोद्धुर' होता हुआ। 'जिनेन्द्रािं सरोजेदिन्दिरोपम' * अमोघवर्ष के राज्य 'बंकापुर' में आया था, और उस अमोघवर्षको—
'सस्वस्य जिनसेनर्षि विधाय परमं गुरुम् । सद्ध द्योतयंस्तस्थौ पितृवत्पालयन् प्रजाः ॥ इस प्रकार वर्णित किया है। साथ ही, वहाँके रहने वाले विद्वानों की निंदा करते हुये ( 'विदुषोवगणयैष') कालीदास के इस काव्यको अमोघवर्ष के सामने पढ़ने पर, उसकी विद्याहंकृति निर्धारण करने के उद्देश्य से और उसे 'सन्मार्गोद्दीप्ति' पैदा कराने की इच्छा से अपने 'सतीर्थ्य' विनयसेन से प्रेरित एक-पाठी जिनसेनने उस काव्य के प्रत्येक चरणको क्रमशः प्रतिवृत्तमें वेष्टित करके इस 'पाश्वभ्युदय' की रचना की, और फिर उसे आस्थान में पढ़कर अपने काव्यसे ही कालिदासने प्रत्येक श्लोकसे चरण चुराकर ('स्तेयात' ) 'मेघदूत' की रचना की है, ऐसा कहा बतलाया !!
* इस व्याख्या के अन्तिम गद्योंमें तथा अनुबन्धों में अथवा काव्य के प्रतिसर्गके अन्तिम स्थान पर जोड़े हुए गद्य में, इस काव्य में ( ४,७० ) दिखाई देने वाले 'अमोघवर्ष' नामके सिवाय उसका और कोई नामान्तर नहीं है।
१६३
परन्तु इसके बराबर असंबद्ध दन्तकथा और कोई नहीं । कारण, कालिदास से जिनसेन कमसे कम २०० वर्षोंके करीब + पीछे हुआ, अथवा 'मेघदूत' से 'पार्श्ववाभ्युदय' श्रेष्टकाव्य कहला नहीं सकता, उसे श्रेष्ट बनाने के उद्देश्य से यह असंबुद्ध जनश्रुति अपने अनुबंध में घुसेड़कर पंडिताचार्य जिनसेनको अनृतवादी बना दिया। इसके सिवा इतिहास प्रमाण कोई मिलता नहीं; वैसे ही बकापुर अमोघवर्षकी राजधानी नहीं थी, यह बात पहिले ही कही जा चुकी है । इन सब कारणोंसे यह मालूम पड़ता है कि पंडिताचार्यने लोगों से कही हुई दन्तकथा पर विश्वास रखकर उसे दृढ करने के उद्देश्य से अपने अनुबन्धमें घुसेड़कर उसके आधार से जिनसेन अमोघवर्षका गुरु था यह बात 'पार्श्ववाभ्युदय' के प्रतिसर्ग के अन्तिम गद्य में लिखकर और उसके सिवाय अपनी व्याख्याके प्रत्येक सर्गके अन्तिम गद्य में पुनः पुनः जोरसे कही होगी। अतएव यह मूलकाव्यकी सर्गान्तिम गद्यरचना जिनसेनकी स्वतः रचना नहीं है; वह इस व्याख्याता पंडिताचार्य द्वारा या और किसीके द्वारा जोड़ी गई होगी। इतिहासको दृष्टि से उसकी बातें जिनसेन के सेंमथ से बहुत ही आधुनिक होने के कारण उसे निराधार समझ कर छोड़ना पड़ता हैं।
+ ई० सन् ६३४ के 'ऐहोले' के शासन में कालिदासका नाम है
"सविजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदास भारविकीर्तिः || ”
( प्रा० ले०मा० नं०१६ )
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१६४
अनेकान्स
प्राचीन भारतकी धर्म-समवृत्ति
इस सन्दर्भमें सुसंगत एक बात और कहना है । इस भारत भूमि पर पीछे के सभी नरेश तथा अन्य भी अपने राज्यमें अथवा अन्यत्र सभी जगह विद्यमान अन्य सब धर्मोको तथा अन्य धर्मानुयायियों को अपने धर्म के समान, समानदृष्टि से पुरस्कृत करते थे । इतना ही नहीं, किन्तु उन लोगों के मठ-मंदिरादि बनवाकर दान देते थे, इस बात को दिखलाने वाले इतिहासमें बहुतसे प्रमाण हैं, उनमें से दृष्टान्तरूपमें कुछ यहाँ दिये जाते हैं। १. मौर्य सम्राट अशोक ( ई० स० पूर्व २७४–२३६) बौद्धधर्म स्वीकार करके बौद्ध यह बात ऐतिहासिक लोग जानते हैं, तो भी उसने काश्मीर देश में सनातन धर्मका देव मंदिर बनवाकर जीद्धार करवाया था, यह बात 'कल्हण' की 'राजतरंगिणी' से मालूम पड़ती हैअथावहदशोकाख्यः सत्यसन्धो वसुन्धराम् ॥१, १०१॥ जीर्णं श्रीविजयेशस्य विनिवार्य सुधामयं । निष्कलूषेणाश्ममयः प्राकारो येन कारितः ॥ १, १०५ ॥ सभायां विजयेशस्य समीपे च विनिर्ममे । शान्तावसादः प्रसादावशोकेश्वरसंचितौ ॥ १, १०६ ॥
हुआ,
-
-:
२. जैनधर्मानुयायी कलिंगदेशका राजा महामेघवाहन खारवेल ( ई० स० पू० सु० १६९ ) सनातन, बौद्ध, जैनधर्मी साधुओं को समानदृष्टि तथा गुरुभक्ति सत्कार करता था तथा अपने राज्य में अन्यान्य धर्मोकी भी बिना भेद भावके रक्षा किया करता था, यह बात 'उदयगिरि' के एक
+ यह 'उदयगिरि' घडू देश ( Orissa ) के 'कटक' (Cuttack) नगरसे १६ मील दूर पर है।
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६
शासन से
मालूम पड़ती है।
३. गुप्तवंशीय नरेश 'समुद्रगुप्त' (ई० स० ३३०–३७५) स्वतः वैष्णव होते हुए भी, अपने धर्म के समान बौद्ध तथा जैनधर्मियों पर भी विशेष प्रेम रखता था; और उसे बौद्धमती 'वसुबन्धु' नाम के व्यक्ति पर विशेष आदर था; तो भी वह अपना स्वधर्म छोड़ कर बौद्ध नहीं हुआ । सिंहल देशके नरेश मेघवर्णने अपने देशसे इसके राज्य में स्थित बुद्धगया की तरफ जानेवाले यात्रियों के हितार्थ वहाँ स्वयं एक विहार बनाने के लिये इससे अनुमति चाही तो इसने उसे दिया, ऐसा मालूम पड़ता है।
४. चालुक्यान्वयका सत्याश्रय नामके दूसरे पुलिकेशीने अपने परमाप्त 'रविकीर्ति' नामके ('सत्याश्रयस्य परमात्मवता ••'रविकीर्तिना' दिगम्बर शाखाके ( और बहुशः 'नंदि' संघ) जैनपंडितको स्वयं बनवाकर दिये हुये जिनालय में उस रविकीर्ति द्वारा रचित और उत्कीर्ण शिलालेख ( ई० सन् ६३४ ) जिनस्तुतिसंबन्धी पद्योंसे आरंभ होते हुये भी, उस पुलिकेशीके अन्य सभी लेख विष्णु स्तुति-सम्बन्धी पद्योंसे ही प्रारंभ होते हैं, इतना ही नहीं
Men and thought in ancient India, pp. 157-159.
इस समुद्रगुप्त का ध्वज गरुडध्वज था; इसके ऊपर दिये हुए नृपतुंग के शासन में उसने अपनेको 'गरुडलांघन' कहा है, यह बात ध्यान में लाना चाहिये ।
+ उदा० - (१) यह शक सं०५३२ ( ई०स०६१०) का एक ताम्रपत्र के आरंभ में वराहरूपी विष्णु की स्तुति
जयति जलदवृन्दश्यामनीलोत्पल्लभः ।
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वर्ष ३, किरण १० ]
वह विष्णुभक्त ही था और जैनधर्मावलम्बी नहीं हुआ यह बात इतिहास से मालूम पड़ती है ।
५. गुर्जर देशका नरेश सिद्धराज श्वेताम्बर जैनयति हेमचन्द्रसूरि पर विशेष श्रद्धा रखता था ( ई० स० १०८७ – ११७१ ) । उसने अपनेको सन्तान न होनेकी चितासे हिंदू और जैनधर्मकं पवित्र क्षेत्रोंकी यात्रा उस हेमचन्द्र के साथ करने पर भी, स्वधर्मका – सनातनधर्मका - त्याग नहीं किया । उसे हेमचंद्र गुरुके समान था । उसके साथ हेमचंद्रने सोमेश्वर शिवक्षेत्र की यात्रा करते वक्त, स्वयं जैन होते हुये भी, परधर्म पर विरोध नहीं करते हुए वहाँ शिवलिंगका स्तवन किया, यह बात प्रद्युम्नसूरिकृत 'प्रभावकचरित्र' ( ई०स० १२७७) * में है । उस सिद्धराज के पश्चात्
नपतु गका मत विचार
धरणिधरनिरोधात्स्विन वक्त्रोवराहः ॥
(२) ई० स० १४१ ( जनवरी ३१) के शासन में (E. C. X. गोरिबिदनूरु नं०४८ ) इसने संगमतीर्थ में माघशु० ॥ पौर्णिमा चन्द्रग्रहण दिन स्नान करके 'पेरिमाल' नामके ग्रामको सहिरयय सोदक- पूर्वक ब्राह्मणोंको दान दिया लिखा है ।
(३) इसके और एक ताम्रपत्रका ( प्रा० ले० मा० नं० १११) प्रथम श्लोक इस प्रकार है :जयति जगतां विधातुविविक्रमाक्रान्तसकलभुवनस्य । नखांशुटिलं पदं विष्णोः ॥
* सूरिश्व तुष्टुवे तत्र परमात्मस्वरूपतः । नमाम चाविरीधोहि मुक्तेः परमकारणम् ॥३४६ ॥ यत्र तत्र समये यथा तथा । योसिसोत्यभिधया यथा तथा ।
वीतदोष कलुषः सचेद्भवा । नेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥ ३४७ ॥
(प्रभावकारित पृ०३१७)
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गद्दी पर आये हुए कुमारपाल ( ई० सन् ११४१११५१ ) ने जन्मत: शैवधर्मी रहकर, अन्तमें हेमचन्द्र से जैनधर्म स्वीकार किया; परन्तु पश्चात् भी शिवभक्तिको भूला नहीं, यह बात श्वेताम्बर जैनयति जयसिंह सूरिसे रचित ( ई० सन् १२३०) 'वस्तुपाल तेजःपाल प्रशस्ति' से मालूम पड़ती है . इत्यादि ।
अतएव जो कोई नरेश ( अथवा अन्य कोई ) स्वधर्मी के सिवाय परधर्म के यतियों या अन्य साधुओं ( अथवा कवियों ) की श्रेष्ठ विभूति पर आकर्षित होकर, उसे गुरुभावसे सत्कार करता है तो उससे वह अन्यमतीका शिष्य हुआ, या उसके उपदेशसे उसने स्वधर्म त्यागकर उसका मत स्वीकार किया इस प्रकार मान लेना कदापि ठीक नहीं; पर प्रबल और समर्थक अन्य ऐतिहासिक स्वतंत्राधार हों तो बिना संदेहके स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि गुर्जर कुमारपाल हेमचन्द्रके उपदेशसे जैनी हुआ था यह बात हेमचंद्र के ग्रंथों से " कुमारपालश्चालुक्यो राजर्षिः परमाईत:" - हेमचन्द्र के 'अभिधान चितामणि' (श्लोक ७१२ ) से अन्य समकालीन और ईषत्कालान्तरके ग्रंथोंसे साधारण प्रमाण मिलने पर उस इतिहास- तथ्यको कौन नहीं स्वोकार सकता ?
(श्रागामी किरण समाप्त)
* धर्मापातिस्म कुमारपालनृपति जैनं धर्ममुरीचकार..........
..........॥२४॥
'गुरूचक्रे स्मरध्वंसिनम् ॥ २३॥ Gaekwad's Oriental Series. -No. X 'हम्मीरमदमर्दन' पृ० ६० )
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SURESERESERSE
नवयुवकोंको स्वामी विवेकानन्दके उपदेश
[अनु० डा० बी. एल. जैन पी. एच. डी.] मेरे युवक मित्रो ! अपना शरीर और आत्मा बलवान बनायो । निर्बल और निर्वीर्य शरीरसे धर्मशास्त्रका अभ्यास करनेकी अपेक्षा तो खेल-कूदसे वलिष्ट बनकर, तुम स्वर्गके विशेष समीप पहुँच सकोगे।
तुम्हारा शरीर मज़बूत होगा तब ही तुम शास्त्रोंको भली भांति समझ सकोगे । तुम्हारे शरीरका रुधिर ताज़ा, मज़बूत तथा अधिक तेजस्वी होगा, तब ही भगवानका अतुल बल और उनकी प्रबल प्रतिभा तुम अधिक अच्छी तरह समझ सकोगे । जब तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों पर दृढ़तासे खड़ा रह सकेगा। तभी तुम अपने आपको भली भांति पहिचान सकोगे।
___उठो, जागृत होओ और अपनी उन्नतिका काम अपने ही हाथमें लो । ___ इतने अधिक समय तक यह कार्य, यह अत्यन्त महत्वका कर्तव्य तुमने प्रकृति
को सौंप रखा था । परन्तु अब उसे तुम अपने हाथ में लो। और एक ही सपाटे में इस समग्र साक्षात समुद्रको कूद जाओ। ___मानसिक निर्बलता ही अपने में प्रत्येक प्रकारके शारीरिक तथा मानसिक दुःखों को उत्सन्न करती है । दुर्बलता ही साक्षात् मरणरूप है। ___ निर्बल मनके विचारोंको त्याग दो । हे यवको ! तुम हृदय-चल प्राप्त करो! शक्तिवान बनो ! तेजस्वी बनो ! बलवान बनो ! दुर्बलताकी गाड़ी पर से उठ कर खड़े हो जाओ तथा वीर्यवान और मज़बूत बनो । ____ सुदृढ़ता ही जीवन और निर्बलता ही मृत्यु है। मनोबल ही सुख सर्वस्व तथा
अमरत्व है, दुर्बलता ही रोग, दुःख तथा मृत्यु है । ____ बलवान बनो ! तेजस्वी बनो ! दुर्बबलताको दूर फेंक दो ! आत्मशक्ति तुम्हारे पूर्वजोंकी सम्पति है।
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तामिल भाषाका जैनसाहित्य
[ले० प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती एम ए पाई. ई. एस.] [अनुवादक-पं० सुमेरचन्द दिवाकर न्यायतीर्थ शास्त्री बी.ए. एलएस. बी. सिवनी ] टोल्काप्पियम्-तामिल व्याकरणका यह प्रामा- समर्थित हुअा था । डा० पर्नेलका मत है कि णिक ग्रंथ एक जैन विद्वानकी रचना समझा जाता हैं। टोलकाप्पियम्का रचयिता जैन या बोद्ध था और यह इस विषयमें कुछ विद्वानोंका विवाद है और लेखकके निर्विवाद हैं कि वह प्राचीन तामिल लेखकोंमें अन्यतम धर्मके सम्बन्धमें बहुतसे विचार किये जाते है । हम है । उसी भूमिकामें टोलकाप्पियम्का महान् और केवल अंतरंग साक्षीमूल कुछ बातोंका वर्णन करेंगे और प्रख्यात पाडिमयोनके रूपमें उल्लेख हैं। टीकाकारने इस विषयको पाठकों पर उनके अपने निर्णय के लिये पाडिमयोन शब्दका इस प्रकार अर्थ किया है--"वह छोड़ेंगे । यद्यपि यह व्याकरणका ग्रंथ है, किन्तु श्रादि व्यक्ति जो तपस्या करे"। जैन साहित्य अध्ययन-कर्ताओं तामिल वासियोंकी समाज-विज्ञान विषयक वार्ताओंकी -विद्यार्थियोंको यह भलीभांति विदित है कि 'प्रतिमा यह खान है, और शोध-खोजके विद्वान आदि तामिल योग' एक जैन पारिभाषिक शब्द है और कुछ जैन मुनि वासियों के व्यवहारों तथा रिवाजोंकी जानकारीके लिये प्रधान योगधारी कहे जाते थे । इस श्राधार पर एस. मुख्यतया इसी ग्रंथ पर अवलबित रहते हैं । ऐतिहासिक वायपुरी पिल्ले सदृश विद्वान अनुमान करते हैं कि शोधके विद्यार्थियोंने इससे पूर्णतया लाभ नहीं उठाया टोलकाप्पियम् का रचयिता जैनधर्मावलम्बी था। वही है यह एन्द्र के समान पुरातन व्याकरण शास्त्रों पर अव- लेखक टोलकाप्पियम्के उन सूत्रोंका उद्धरण देकर लंक्ति समझा जाता है । जो प्राय संस्कृत-व्याकरणकी अपने निष्कर्ष को दृढ़ बनाता है जिनमें जीवोंके द्वारा शौलीका उल्लेख करता है । यह व्याकरण विषय पर एक धारण की गई इन्द्रियों के आधार पर जीवों के विभागका प्रमाणिक ग्रंथ समझा जाता है। तामिल भाषाके पिछले उल्लेख है। मरबियल विभागमें टोलकाप्पियमने घास सभी ग्रन्थकार उसमें वर्णित लेखन-सम्बन्धी नियमोंका और वृत्तके समान जीवोंको, एकेन्द्रिय घोंघे के समान पूर्ण श्रद्धाके साथ पालन करते हैं । इस ग्रन्थके निर्माता, जीवोंको, द्वाइन्द्रिय चींटीके समान जीवोंको त्रीइन्द्रिय टोलकाप्पियम्, तामिल साहित्य के काल्पनिक संस्थापक केकड़े ( Crab) के सदृश जीवोंको चौइन्द्रिय बड़े अगस्त्य के शिष्य समझे जाते थे। इस ग्रन्थमें तत्कालीन प्राणियों के समान जीवोंको पंचेन्द्रिय और मनुष्य के समान ग्रंथकार पनपारनार लिखित भूमिका है। उससे प्रमाणित जीवोंको छः इन्द्री बताया है । यह विज्ञान के जैन होता है कि 'आइंदिरम् निरैनीका टोलकाप्पियम्,' ऐन्द्र दार्शनिक सिद्धान्तका रूप है इसे बताना तथा इस पर व्याकरणकी पद्धति परिपूर्ण टोलकाप्पियम् पाड्य राजा जोर देना मेरे लिये आवश्यक नहीं है । जीवोंका यह की सभामें पढ़ा गया था और अदकोहाशानके द्वारा विभाग संस्कृत और तामिल भाषाके जैन तत्व ज्ञानके
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
सभी प्रमुख ग्रन्थोंमें पाया जाता है । मेरुमन्दिरपुराण में है, वैसा एक अप्रसिद्ध तंत्र शास्त्रमें विद्यमान है,किन्तु
और नीलकेशी जैसे दो प्रधान जैनदार्शनिक ग्रन्थोंमें इस सम्बन्धके पद्य पूरी तौर पर उद्धत नहीं किये जाते जीवोंका इस प्रकार वर्णन है । यह अनुमान करना तर्कके लिये यह मान लेने पर भी कि उसका उल्लेख स्वाभाविक है कि यह जैनियोंके जीव-विषयक ज्ञानका उस तन्त्र ग्रंथमें है, वह साक्षी संदेहास्पद होगी। यह उल्लेख करता है । इससे यह बात स्वतः सिद्ध होती है बात बताना यहां आवश्यक है कि इन्द्रियोंके आधार पर कि ग्रन्थकार जैन तत्वज्ञानमें अति निपुण था । इस किया गया यह जीवोंको विभाग अन्य दर्शनों अथवा निष्कर्ष के समर्थनमें मुख्य साक्षी रूप एक दूसरी बात भारतकी दूसरी विचार पद्धतियोंमें नहीं पाया जाता है । है। उसके सम्बन्धमें शोधक विद्वानोंका ध्यान नहीं यह विशेष बात जैन दर्शनमें और केवल जैनदर्शनमें ही गया; किन्तु इस विषयमें विचार होना चाहिये । उसी पाई जाती है । इस सम्बन्धमें विशेष वाद विवादको हम मरबियल के दूसरे सूत्रमें टोलकाप्पियम्ने मुदलनलं और इस प्रकारकी शोधमें सुरुचि रखनेवाले सुयोग्य विद्वानों के 'वालीनूलं'--मूल और प्रारम्भिक ग्रंथ, गौण तथा लिये छोड़ते हैं । इस स्थितिमें हमारे लिये इतना लिखना संग्रहीत ग्रन्थके रूप में तामिल परम्पराके अनुसार साहित्य ही पर्याप्त है कि यह व्याकरणका ग्रन्थ जो कि अत्यन्त के ग्रन्थोंका विभाग किया है । जब वह मुख्य और मूल पुरातन तामिल ग्रन्थों में एक है, प्रायः एक ऐसे जैन शास्त्र अर्थात् मुदलनलंकी व्याख्या करता है, तब वह विद्वान द्वारा रचा गया था, जो संस्कृत व्याकरण और कहता है कि जो ज्ञानके अधिपति द्वारा कर्मोंसे पूर्ण साहित्यमें समान रूपसे प्रवीण था। उस ग्रंथकी रचना मुक्त होने पर प्रकाशित किया जाता है, वह कर्मक्षयके कब हुई, इस विषयमें पर्याप्त विवाद है, किन्तु हमें उस बाद सर्वज्ञके द्वारा प्रकाशित ज्ञान है । इस बात पर विवादमें भाग लेनेकी आवश्यकता नहीं है। जोर देनेकी आवश्यकता नहीं है कि जैन परम्पराके इस व्याकरण ग्रन्थमें इलुत्त (अक्षर ) सोल श्रनुसार प्रायः प्रत्येक ग्रन्थकार अपने ज्ञान का आदि (शब्द) और पोरुल (अर्थ) नामके तीन बड़े अध्याय हैं स्रोत पर्वाचार्योको, और गणधरोंके द्वारा समवशरण में प्रत्येक अध्यायमें : ल्यल (विभाग ) हैं और कुल धर्मका प्रतिपादन करनेवाले स्वयं तीर्थंकरोंको बतावेगा। १६ १२ सूत्र हैं । यह तामिल भाषाके बादके व्याकरण परन्तु जैन परम्परासे परिचित प्रत्येक निष्पक्ष विद्वानको ग्रंथोंकी जड़ है । संस्कृत व्याकरण के प्रतिकूल जिसमें यह स्पष्ट विदित हो जायगा, कि मूल ग्रन्थकी इस पहले और दूसरे ही अध्याय होते हैं, इसमें तीन अध्याय परिभाषामें पूर्ण ज्ञानके आदि स्रोत सर्वज्ञ वीतरागका हैं और तीसरा पोरुलके विषयमें है । इस तीसरे अध्याय उल्लेख किया है । इन सब बातोंसे यह स्पष्ट होगा कि में व्याकरण के सिवाय अन्य बहुत विषय रहते हैं जिसमें प्रतिपक्षी विचारकी अपेक्षा लेखकका जैन होना अधिक प्रेम एवं युद्धका वर्णन रहता है । इस प्रकार श्रादिद्रविड़ संभव है । जिन लोगोंने इस बातके निषेध करनेका लोगों के पुनर्गठनके लिये इसमें उपयोगी अनेक संकेत प्रयत्न किया है उन्होंने अपने कथनके समर्थनमें कोई पाये जाते हैं। गम्भीर युक्ति नहीं पेश की है । एक आलोचक इस बात यह कहा जाता है कि इस ग्रन्थकी पांच टीकाएँ हैं का उल्लेख करता है कि जीवका विभाग जैसा इस ग्रन्थ जो (१) ल्लम पूर्नर (२) पराशिरियर ( ३ ) सेनवरैयर
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वर्ष ३, किरण १० ]
( ४ ) नच्चीना किंनियर ( ५ ) कल्लादरेकी लिखी हुई हैं इनमें से प्रथम लेखक सब टीकाकारों में प्राचीन है । पश्चात्वर्ती लेखकोंने श्रामतौर पर 'टीका कार' के नाम से उसका उल्लेख किया है । परम्परा के अनुसार यह तामिल भाषाके व्याकरणका महान् ग्रन्थ द्वितीय संगम कालका कहा जाता है । हमें विदित है कि विद्यमान सब ही तामिल ग्रन्थ अंतिम तथा तृतीय संगम् कालके कहे जाते हैं । अतः इस टोलकाप्पियम्को करीब २ संपूर्ण उपलब्ध तामिल साहित्यका पूर्ववर्ती मानना चाहिये ।
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
इस परंपराको स्वीकार करना आश्चर्यकी बात होगी, क्योंकि यह संभव नहीं है कि किसी भाषाके अन्य ग्रन्थोंके पूर्वमें उसका व्याकरण शास्त्र हो । वास्तव में व्याकरण तो भाषाका एक विज्ञान है, जिसमें साहित्यिक रिवाज ग्रंथित किए जाते हैं; इसलिये वह उस भाषा में महान् साहित्य के अस्तित्वको बताता है । तामिल वैयाकरण भी इस बातको स्वीकार करते हैं । वे पहिले साहित्यको और बाद में व्याकरणको बताते हैं 1 इसलिये यदि हम इस परंपराको स्वीकार करते हैं कि टोलकापियम् संगमकालका मध्यवर्ती है तब हमें उसके पूर्व में विद्यमान् महान् साहित्यकी कल्पना करनी पड़ेगी, जो किसी कारणसे अब पूर्ण लुप्त हो गया । यदि हम द्रविड़ सभ्यताकी पूर्व अवस्था पर विचार करें, तो इस प्रकारकी कल्पना बिल्कुल असंभव नहीं होगी । अशोक समयके लगभग तामिल प्रदेश में चेरचोल और पांड्य नाम के तीन विशाल साम्राज्य थे । अशोक इन साम्राज्योंकी विजयका कोई उल्लेख नहीं करता है । अशोक के साम्राज्य के आस पास ये मित्र राज्योंकी सूची में बताए गये हैं । इतिहास के विद्यार्थी इन बातोंसे भली भाँति परिचित हैं, कि तामिल देशमें बहुत सुन्दर
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बंदरगाह है, यहाँके लोग मूमध्यसागर के आसपास के यूरोपियन राष्ट्रोंके साथ समुन्नत सामुद्रिक व्यापार करते थे, तामिल भाषाने वैदेशिक शब्द भंडारको महत्वपूर्ण शब्द प्रदान किये थे, और तामिल देशके अनेक स्थानों में उपलब्ध रोमन देशीय स्वर्ण मुद्राएं रोमन साम्राज्य से सम्बन्धको सूचित करती हैं। इसके साथ में मोहन जोदरो, हरप्पाकी हालकी खुदाई और खोज आयकी पूर्ववर्ती सभ्यताको बताती है और हमें उस उच्च कोटिकी सभ्यताका ज्ञान कराती है, जो श्रादिद्रविड़ लोगोंने प्राप्त की थी। जब तक हम इस श्रादिद्रविड संस्कृति के पुनर्गठन के सम्बन्ध में उचित साक्षी नहीं प्राप्त करलें, तब तक तो ये सब बातें कल्पना ही रहेंगी । उपलब्ध तामिल साहित्य बहुधा तृतीय संगम कालका है, अतः अनेक ग्रन्थ, जिनके सम्बन्धमें हमें विचार करना है, इस काल के होने चाहियें । यह समय प्रायः ईसा से दो शताब्दी पूर्व से लेकर सातवीं सदी तक होगा। चूंकि संगम या एकेडेमी एक संदेहापत्र वस्तु है इसीलिये संगम शब्द तामिलोंके इतिहास के काल विशेष को द्योतित करने के लिए एक प्रचलित शब्द है ।
श्रीयुत शिवराज पिल्लेके द्वारा सूचित तामिल साहित्य के प्राकृतिक, नैतिक और धार्मिक ऐसे तीन सुगम काल भेद माने जा सकते हैं, क्योंकि ये व्यापकरूपसे तामिल साहित्यकी उन्नति द्योतक हैं । कुरल और नालदियार जैसे नीति ग्रन्थोंके उत्तरवर्तीसाहित्य में बड़ी स्वतंत्रता के साथ अवतरण दिए गए | अतः यह मानना एकदम मिथ्या नहीं होगा, कि काव्य साहित्यकी अपेक्षा नैतिक साहित्य पूर्ववर्ती प्रतीत होता है । इस नैतिक साहित्य समूह में जैनाचार्योंका प्रभाव विशेषरीति से विदित होता है । कुरल और नालदियार नामके दो महान ग्रंथ उन
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६३
जैनाचार्योंकी कृति हैं जो तामिलदेशमें बस गए थे। किया है कि दक्षिण पाटलीपुत्रमें द्राविड़ संघके प्रमुख
कुरल-तामिल भाषी जनतामें प्रचारकी दृष्टि से श्री कुंदकुंदाचार्य थे । विचार करने पर 'कुरल' नामका नीतिग्रंथ तामिल अपना निर्णय प्राप्त करने के लिए हमें केवल इस साहित्य में, सबसे अधिक प्रधान है । इसकी रचना जिस परंपराका ही अवलंबन नहीं करना है। अपनी धारणा छंदमें की गई है, वह 'कुरलवेण बो' के नामसे प्रसिद्ध के प्रमाणमें हमारे पास समुचित अंतरंग तथा परिस्थिति है और तामिल साहित्यका खास छन्द है । 'कुरल' जन्य साक्षी (Circumstantial evidence) शब्दका अर्थ दोहाविशेष ( Short ) है, जो वेणवा विद्यमान है। जो भी निष्पक्ष विद्वान् इस ग्रंथका नामक दोहेसे भिन्न है। यह तामिल साहित्यका अपूर्व सूक्ष्मताके साथ परीक्षण करेगा, उसे यह बात छंद है । पुस्तकका नाम कुरल उसमें प्रयुक्त छन्दके पूर्णतया स्पष्ट विदित हो जायगी, कि यह ग्रंथ अहिंसाकारण पड़ा । यह अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर बनाया धर्मसे परिपूर्ण है और इसलिये यह जैनमस्तिष्ककी गया है । संपूर्ण ग्रन्थमें अहिंसा धर्मकी स्तुति की गई हैं उपज होना चाहिये । इस विषय पर अभिमत व्यक्त
और विपरीत बिचारोंकी आलोचना की गई है। इस करने योग्य अधिकृत निष्पक्ष तामिल विद्वानोंने इस ग्रंथको तामिलवासी इतनी प्रधानता देते हैं कि वे इसके ग्रन्थके कर्तृत्वके सम्बन्धमें इसी प्रकारका अभिमत लिये विविध नामोंका प्रयोग करते हैं, जैसे उत्तर वेद, प्रगट किया है; किन्तु वैज्ञानिक शोधके आधार पर तामिल वेद, ईश्वरीय ग्रंथ, महान् सत्य, सर्व देशीय वेद किए गए निर्णयको बहुतसे तामिल विद्वान् स्वीकार इत्यादि । तामिल प्रान्तके प्रायः सभी संप्रदाय इस करना नहीं चाहते, इस विरोधका मूल कारण धार्मिक रचनाको अपनी २ बताते हैं । शैवोंका दावा है भावना है । हिन्दूधर्मके पुनरुद्धार काल में ( लगभग कि यह शैव लेखककी कृति है । वैष्णव लोग इसे सप्तम शताब्दिमें) जैनधर्म और हिन्दुनोंके बलिसमर्थक अपनी बताते हैं । पोप नामक पादरी, जिनने इसका वैदिक धर्मका संघर्ष इतना अधिक हुअा होगा, कि अंग्रेजी-अनुवाद किया है, यहां तक कहता है कि यह उसकी प्रतिध्वनि अब तक भी अनुभवमें आती है। ग्रंथ ईसाई धर्मसे प्रभावित हुए लेखककी रचना है। इस द्वन्द्वमें हिन्दू पुनरुद्धारकोंके द्वारा जैनाचार्योंकी भिन्न २ जातियाँ इस ग्रंथके कर्तृत्वके विषयमें एक दूसरे रचनाएं दूषित की गई, कारण उन हिन्दुओंका समर्थक से होड़ ले रही हैं । इससे ग्रंथकी महत्ता एवं प्रधानता नवदीक्षित पांड्य नरेश था । कहा जाता है कि इसके स्वत: प्रगट होती हैं । इस भांति विविध अधिकार फलस्वरूप अनेक जैनाचार्योंका प्राणान्त फांसीके द्वारा प्रदर्शकोंके मध्यमें जैनियोंका कथन है कि यह तो हुआ । हम इस बातका पूर्ण रीतिसे निश्चय करने में जैनाचार्यकी कृति है । जैनपरम्परा इस महान् ग्रन्थका असमर्थ हैं कि इसमें कितना इतिहास है और कितना सम्बन्ध कुंदकुंदाचार्य अपरनाम एलाचार्यसे बताती उर्वर मस्तिष्कका उत्पादन है परन्तु अब तक भी मदुरा है । कुंदकुंदाचार्यका समय ईसासे पूर्वकी अर्धशताब्दी के मन्दिरोंकी भित्तियों पर जैनियोंकी हत्या वाली के उत्तर भाग और ईसवी सनकी पहली अर्धशताब्दीके कथाके चित्र विद्यमान हैं और अब भी प्रतिद्वन्द्वी धर्म पूर्व भागमें संनिहित हैं । हमने इस बात का उल्लेख (जैन धर्म ) का पराभव और विध्वंस बताने वाले
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वर्ष ३, किरण १०]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
वार्षिक उत्सव मनाये जाते हैं । यह बात आदि-जैनों ध्यानपूर्वक देखता था, कि 'विंग' (Whigs) लोगोंको के विषयमें तामिल विद्वानोंके दृष्टि कोणको समझने में उससे अधिक लाभ न हो । जबकि तामिल विद्वानोंकी सहायक होगी। इससे यह बात स्पष्ट है, कि वे इस साधारण मनोवृत्ति इस प्रकारकी हो, जब वैज्ञानिक एवं सूचना मात्रका विरोध करते हैं, कि महान् नीतिशास्त्र ऐतिहासिक शोधकी यथार्थ भावना शैशवमें हो, तब जैन विद्वानके द्वारा रचित होगा।
यह कोई श्राश्चर्यकी बात नहीं है, कि तामिल साहित्य एक परम्पराके आधार पर इस ग्रंथके लेखक कोई नामकी कोई अर्थवान वस्तु हमारे पास न हो । अतः तिरुवल्लुवर कहे जाते हैं । तिरुवल्लुवरके सम्बन्धकी हम जैनसाहित्यके ऐतिहासिक वर्णनको पेश करने के काल्पनिक कथाके घटक अाधुनिक लेखकोंकी कल्पनाके प्रयत्नमें असमर्थ हो जाते हैं। द्वारा जो बताया गया है। उससे अधिक उसके सम्बन्ध इस विषयान्तर बातको छोड़कर ग्रंथका परीक्षण में अज्ञात है । तिरुवल्लुवरकी जीवनीके सम्बन्धमें अनेक करते हुए हमें स्वयं पुस्तक में आई हुई कुछ उपयोगी मिथ्या बातें बताई गई हैं, यथा वह चाण्डालीका पुत्र बातें बतानी हैं । इस पुस्तकमें तीन महान् विषय हैं । था । सभी तामिल लेखकोंका समकालीन एवं बन्धु था। (अरम् ) (धर्म) पोरुल (अर्थ,) इनबम् इस बातका कथनमात्र इसके मिथ्यापनेको घोषित (काम) ये तीनों विषय विस्तारके साथ इस प्रकार समकरता है । किन्तु अाधुनिक अधिक उत्साही तामिल झाये गये हैं, जिसके ये मूलभूत अहिंसा सिद्धान्तके विद्वानोंने उसे ईश्वरीय मस्तक तक ऊँचा उठाया साथ सम्बद्ध रहें। अतः ये संज्ञाएँ साधारणतया हिन्दू है, उसके नाम पर मंदिर बनाएँ हैं तथा ऐसे वार्षिक धर्मके ग्रन्थोंमें वर्णित संज्ञाओंसे थोड़ी भिन्न हैं, इस उत्सवोंका मनाना प्रारंभ किया है, जैसे हिन्दू देवताओं विषय पर ज़ोर देनेकी आवश्यकता नहीं है । हिन्दू धर्म के सम्बन्धमें मनाए जाते हैं । इसका लेखक एक हिन्दू की बादकी धार्मिक पद्धतियोंमें वेद विहित पशुवलिकी देवता समझा जाता है, और यह रचना उस देवता क्रिया पूर्णरुपेण पृथक नहीं की जासकी कारण वे द्वारा प्रकाशित समझी जाती है । साधारणतया इस वैदिक धर्म-सम्बन्धी क्रियाकाण्ड पर अवलंवित हैं, प्रकारके क्षेत्रों में ऐतिहासिक अालोचनाके सिद्धान्तोंका इसलिये धर्म शब्दका अर्थ उनके यहां वर्णाश्रम धर्म प्रयोग कोई नहीं सोचेगा । यह बात तो यहाँ तक है, ही होगा, जिसका अाधार वैदिक बलिदान होगा । जैन, कि जब कभी ग्रन्थ के प्रमेयके सूक्ष्म परीक्षणके फलस्व- बौद्ध तथा सांख्यदर्शन नामक तीन भारतीय धर्म ही रूप कोई बात सुझाई जाती है, तब वह धार्मिक जोश. वैदिक बलिदानके विरुद्ध थे। पुनरुद्धार के काल में इन पर्ण तीब्रताके साथ निषिद्ध की जाती है । अनेक श्रा- तीन दर्शनोंके प्रतिनिधि पूर्व तामिल देशमें विद्यमान थे। लोचक नामधारी व्यक्ति, जिन्होंने इस महान् रचनाके ग्रंथके आदिमें ग्रंथकार 'धर्म' के अध्यायमें अपना मत सम्बन्धमें थोड़ा बहुत लिखा है, इस प्रकारकी विचित्र इस प्रकार व्यक्त करते हैं, कि सहस्रों यज्ञोंके करनेकी बौद्धिक स्थिति रखनेमें सावधान रहे हैं जिस प्रकार अपेक्षा किसी प्राणीका वध न करना और उसे भक्षण 'सेमुअल जानसन' 'हाउस आफ कामन्स' की कार्यवाही न करना अधिक अच्छा और श्रेयस्कर है। यह एक ही को लिखते समय सावधान रहा था। वह इस बातको पद्य इस बातको बतानेको पर्याप्त है कि लेखक कभी भी
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भनेकान्त
[पाडण, वीरनिर्वाण सं०२४६६
याज्ञिक बलिदानको चुपचाप सहन न करेगा । यह तो साहित्यमें प्रकाशित बातकी प्रतिध्वनि मात्र है क्योंकि संस्कृत के वाक्य 'अहिंसा परमोधर्मः' की व्याख्या है। इनमें के अनेक सिद्धान्त अहिंसाके प्रकाशमें पुनः मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक शैव विद्वान्ने समझाये गये और उन पर जोर दिया गया है । यहां उपर्युक्त पद्य का उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहा केवल दो बातोंको बताना ही पर्याप्त है। यह बौद्धायन है कि ग्रंथकार वैदिक बलिदान रूप धर्मको मानने धर्मशास्त्र, चंकि परम्परागत वर्णाश्रम पर अवलम्बित है, वाले थे।
परम्परागत चार जातियों और उनके कर्तव्योंका समर्थन __ शाकाहारका वर्णन करने वाले दूसरे अध्याय में करता है । धर्मकी इस व्याख्याके अनुसार कृषि कर्म ग्रन्थकार स्पष्ट शब्दोंमें कसाईके यहाँसे मांस खरीदनेके अंतिम शूद्र वर्ण के लिये ही छोड़ा गया है और इसलिये बौद्धोंके सिद्धान्तको घृणित बताता है । बौद्ध लोग, जो कृषि-कर्मसे तनिक भी सम्बन्ध रखना ऊपरकी जातियों के अहिंसा सिद्धान्तका नाम मात्रको पालन करते हैं, लिये निषिद्ध होगा । प्रत्युत् इसके कुरलके रचयिताने इस बातसे अपने आपको यह कहते हुए संतुष्ट करते व्यवसायोंमें कृषिको आद्य स्थान प्रायः इसलिये दिया हैं, कि उन्हें अपने हाथोंसे प्राणि बध नहीं करना है कि वह बेलालों अथवा वहाँके कृषकोंमेंसे एक है । चाहिये, किंतु वे माँस विक्रय-स्थलसे माँस खरीद सकते क्योंकि उसका कथन है-सर्वोत्कृष्ट जीविका कृषि-कर्म हैं । कुदरत के रचयिता इस बातको स्पष्टतया बताते हैं विषयक है, अन्य प्रकारके सब जीवनोपाय परावलम्बी कि कसाई के व्यवसायकी वृद्धिका कारण केवल माँस हैं, और इससे वे कृषि कर्मके बादमें पाते हैं । यह बात की माँग है । कसाईका स्वार्थ केवल पैसा कमाना है संस्कृत के धर्मशास्त्रसे ली गई है, ऐसा कहना किसी और इसलिये वह विशेष व्यवसायको करता है, जो तरह भी गले नहीं उतर सकता। धर्मशास्त्रोंमें कथित मांग और खपतके सिद्धान्त पर स्थित है । इसलिए एक बात और मनोरंजक है । वह है गृहस्थोंके द्वारा भोजनके निमित्त प्राणी-हिंसाका दायित्व प्रधानतया अतिथियोंके सत्कारके सम्बन्धमें। इस प्रकारके अतिथि तुम्हारे ही ऊपर है, न कि कसाई पर । जब कि वैदिक सत्कारमें स्थल गोवत्स के वधकी बात सदा विद्यमान रहती धर्म-विहित बलिदान और अहिंसा सिद्धान्तका सुलभ है। बौद्धायनके धर्मशास्त्रमें ऐसे जानवरोंकी सूची दी भाव बने माँसाहारके करनेकी बौद्धोंकी प्रवृत्तिका यहाँ गई है, जिनका वध अतिथि सत्कारके निमित्त किया स्पष्टतया निराकरण है, तब अपनयन अथवा पारिशैष्य जाना चाहिये । जो लोग वैदिक विधिको धर्म स्वीकार पद्धति के अनुसार यह स्पष्ट है कि ग्रंथमें निरूपित करते हैं, वे इस बात पर दृढ़ विश्वास करते हैं, कि यह सिद्धान्तसे समता रखने वाला जैनियोंका अहिंसा कार्य धर्मका मुख्य अंग है, और उसका पालन न करने सिद्धान्त ही है । एक विद्यमान् विख्यात् तामिल विद्वान से अतिथियों द्वारा शाप प्राप्त होता है । इस सम्बन्धमें का कथन है, कि यह ग्रंथ बौद्धायनके धर्मशास्त्रका शुद्ध कुरलके अध्यायको पढ़ने वाले प्रत्येक पाठकको निश्चय अनुवाद है । यद्यपि इस ग्रंथमें संस्कृत शब्दोंकी बहुलता होगा, कि हिंदुओंके धर्मशास्त्रोंमें कथित बातसे यहां है, और परंपरागत कुछ सिद्धान्तोंका वर्णन है, फिर धर्मका अर्थ बिल्कुल भिन्न है । इससे हमें इस कथनका भी यह निश्चय करना सत्य नहीं है कि यह संस्कृत परित्याग करना पड़ता है कि यह ग्रंथ तामिलज जनताके
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वर्ष
३५ किरण १० ]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
कल्याण के लिये किया गया धर्मशास्त्रोंका अनुवाद मात्र है ।
परिस्थिति जन्य साक्षीकी ओर ध्यान देने पर हमें ये बातें विदित होती हैं, कि नीलकेशी नामक ग्रन्थका जैन-टीकाकार इस सरलता से अवतरण देता है और जब भी वह अवतरण उद्धृत करता है, तब अवतरण के साथ लिखता है " जैसा कि हमारे शास्त्रमें कहा है" इससे यह बात स्पष्ट है कि टीकाकार इस तामिल भाषा में महत्वपूर्ण जैनशास्त्र समझता था । दूसरी बात यह है कि तामिल भाषाके जैन विद्वान् कृत “प्रबोध - चन्द्रोदय" नामक ग्रन्थसे भी यही ध्वनि निकलती है । यह तामिल-रचना संस्कृत के नाटक प्रबोधचंद्रोदय के आधार पर बनी है, यह बात स्पष्ट है । यह तामिल ग्रन्थ चार पंक्ति वाले विरुत्तम छन्द में लिखा गया है । यह नाटक के रूपमें है, जिसमें भिन्न-भिन्न धर्मोंके प्रतिनिधि रङ्ग भूमि पर आते हैं । प्रत्येक अपने धर्मके सारको बताने वाले पद्यको पढ़ता हुआ प्रविष्ट होता है । जब जैन-सन्यासी स्टेज पर आता है, तब वह कुरलके उस विशिष्ट पद्य को पढ़ता है, जिसमें हिंसा सिद्धान्तका गुण-गान इस रूप में किया गया है, भोजनके निमित्त किसी भी प्राणीका बध न करना सहस्रों यज्ञोंके करनेकी अपेक्षा अधिक अच्छा है । यह सूचित करना असत्य नहीं है कि इस नाटककारकी दृष्टिमें कुरल विशेषतया जैन-ग्रन्थ था, अन्यथा वह इस पद्मको निर्ग्रन्थवादी मुखसे नहीं कहलाता । यह विवेचन पर्याप्त है । हम यह कहते हुए इस बहसको समाप्त करते हैं कि इस महान् नीति के ग्रन्थकी रचना प्राय: एक महान् जैन-विद्वान्के द्वारा ईस्वी सन्की प्रथम शताब्दीके करीब इस ध्येयको लेकर हुई है, अहिंसा - सिद्धान्तका उसके सम्पूर्ण विविध रूपों में प्रतिपादन किया जाय ।
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यह तामिल - ग्रम्थ, जिसमें तामिल - साहित्य के पांडित्यका सार भरा है, तीन विभागों तथा १३३ श्रध्यायोंको लिये हुए है । प्रत्त्येक अध्याय में दस पद्य हैं । इस तरह दोहारूप में १३३० पद्य हैं। इसकी तीन अथवा चार महत्वकी टीकाएं हैं । इनमें एक टीका महान् टीकाकार 1 नच्चिनाविकनियर रचित है । ऐसा अनुमान है कि वह जैन परम्परा के अनुसार है, किन्तु दुर्भाग्य है कि वह विश्व के लिये अलभ्य है । जो टीका अब प्रचलित
उसके रचयिता एक परिमेला लगर हैं और यह निश्चय से नच्चिनारक्किनियरकी रचनासे बादकी है, और यह उससे अनेक मुख्य बातोंके अर्थ करने में भिन्न मत रखती है। हाल ही में माणक्कुदवर - रचित एक दूसरी टीका छपी थी । तामिल - साहित्य के अध्ययनकर्ताको आशा है कि महान नच्चिनारक्किनियर की टीका प्राप्त होगी और प्रकाशित होगी, किन्तु अबतक इसका कुछ भी पता नहीं चला है ।
यह ग्रंथ प्रायः सम्पूर्ण यूरोपियन भाषाओं में अनुवादित हो चुका है । रेवरेण्ड जी. यू. पोपका अंग्रेजी अनुवाद बहुत सुंदर है । यह महान् ग्रन्थ इसके साथ में नालदियार नामका दूसरा ग्रन्थ, जिसका हम हाल ही में वर्णन करेंगे, तामिल देशीय मनुष्योंके चरित्र और आदर्शोंके निर्माण में प्रधान कारण रहे हैं । इन दो नीति के महान ग्रन्थोंके विषय में डाक्टर पोप इस प्रकार लिखते हैं:
"मुझे प्रतीत होता है कि इन पद्योंमें नैतिक कृतज्ञताका प्रबल भाव, सत्यकी तीव्र शोध, स्वार्थ रहित, तथा हार्दिक दानशीलता एवं साधारणतया उज्ज्वल उद्देश्य अधिक प्रभावक है। मुझे कभी-कभी ऐसा अनुभव हुवा कि मानों इनमें ऐसे मनुष्योंके लिये भडार रूप में आशीर्वाद भरा हैं जो इस प्रकारकी रचनाओंसे
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भनेकान्त
श्रिावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
अधिक आनन्दित होते हैं और इस तरह सत्यके प्रति और इस संग्रहको नालदियारके नामसे कहा गया । हम क्षुधा और पिपासाकी विशेषताको घोषित करते हैं । वे ऐसी स्थितिमें नहीं हैं कि इस परम्परा कथनमें विद्यमान लोग भारतवर्ष के लोगों में श्रेष्ठ हैं तथा कुरल एवं नालदी ऐतिहासिक सत्य के अंशकी जाँच करें । यदि हम इस ने उन्हें इस प्रकार बननेमें सहायता दी है।" परम्परा कथन पर विचार करें जो हमें इन आठ हजार
अब हमें अपना ध्यान पिछले उल्लिखित ग्रन्थ जैन साधुअोंको भद्रबाहु के अनुयायियोंसे संबंधित नालदियारकी अोर देना चाहिये । कुरल और नालदि- करना होगा, जो उत्तर भारतमें बारह वर्ष दुष्कालके यार एक दूसरेके प्रति टीकाका काम करते हैं और दोनों कारण दक्षिणकी ओर गये थे । ऐसी स्थिति में इस ग्रंथका मिलकर तामिल-जनताके सम्पूर्ण नैतिक तथा सामाजिक निर्माण ईसवी सदीसे ३०० वर्ष पूर्व होना चाहिये । इस सिद्धान्तके ऊपर महान् प्रकाश डालते हैं ।" नालदियार सम्बन्धमें हम कोई सिद्धान्त नहीं बना सकते । हम कुछ का नामकरण ठीक कुरलके समान उसके छन्दके कारण निश्चयके साथ इतना ही कह सकते हैं कि वह तामिल हुआ है। नालदियारका अर्थ वेणबा छन्दकी चार भाषाके नीतिके अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों में एक है और पंक्तियोंमें की गई रचना है । इस रचनामें चार सौ प्रायः कुरलका समकालीन अथवा उससे कुछ पूर्ववर्ती चौपाई हैं और इसे बेलालरवेदम्-कृषकोंकी बाइविल है। बिखरे हुये चारसौ पद्य कुरलके नमूने पर एक भी कहते हैं । यह ग्रंथकारकी कृति नहीं है । परम्परा विशिष्ट ढंग पर व्यवस्थित किये गये हैं । प्रत्येक अध्याय कथन के अनुसार प्रत्येक पद्य एक पृथक् जैन मुनिके द्वारा में दस पद्य हैं । पहला भाग अरम् ( धर्म ) पर है रचा गया है । प्रचलित परम्परा संक्षेपसे इस प्रकार है। उसमें १३ अध्याय तथा १३० चौपाई हैं। दूसरे भाग एक समयकी बात है उत्तरमें दुष्काल पड़नेके कारण पोरुल ( अर्थ ) में २६ अध्याय तथा २६० चौपाई हैं श्राठ हजार जैनमुनि उत्तरसे पांड्य देशकी ओर गये, तथा 'काम' ( Love ) पर लिखे गये तीसरे विभागमें जहांके नरेशोंने उनको सहायता दी। जब दुष्कालका १० चौपाई हैं इस प्रकार ४०० पद्य तीन भागोंमें विभक्त समय बीत गया तब वे अपने देशको लौटना चाहते थे। हैं । इस क्रमके सन्बन्धमें एक परम्परा कहती है कि यह किन्तु राजाकी इच्छा थी कि उसके दरबारमें ये विद्वान पांड्य नरेश उग्रपेरुबालुतिके कारण हुई किन्तु दूसरी बने रहें । अन्तमें उन साधुअोंने राजाको कोई खबर न परम्परा पदुमनार नामक जैन विद्वानको इसका कारण करके गुप्तरूपसे बाहर जानेका निश्चय किया। इस तरह बताती है । तामिल भाषाके अष्टादस नीति ग्रन्थों में एक रात्रिको समुदाय रूपसे वे सब रवाना हो गये। कुरल और नारदियाल अत्यन्त महत्व पूर्ण समझे जाते दूसरे दिन प्रभात काल में यह विदित हुआ कि प्रत्येक हैं इस ग्रन्थमें निरुपित नैतिक सिद्धान्त जाति अथवा साधुने अपने आसन पर ताड़ पत्र पर लिखित एक २ धर्मकेभेदोंको भुलाकर सभी लोगोंके द्वारा माने जाते हैं । चौपाई छोड दी थी। राजाने उनको वैगी नदीमें फेंकने तामिल-साहित्यके परम्परागत अध्ययनके लिये इन दोनों की आज्ञा दी किन्तु जब यह विदित हुआ कि नदीके
ग्रन्थोंका अध्ययन आवश्यक है । कोई भी व्यक्ति तब
तक तामिल विद्वान कहे जानेका अधिकारी नहीं है प्रभावके विरुद्ध कुछ ताड़ पत्र तैरते हुये पाये गये और
जब तक कि वह इन दोनों महान् ग्रंथोंमें प्रवीण न हो। वे तट पर आगये,तब राजाकी आज्ञासे वे संगृहीत किये
क्रमशः
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अहिंसा-सम्बंधी एक महत्वपूर्ण प्रश्नावली
अहिसाका प्रश्न राष्ट्रीय दृष्टि से निःसन्देह एक बड़े ही महत्वका प्रश्न है । वह भारतके ही नहीं कन्तु अन्य देशोंके लिये भी जहाँ युद्धका दावानल धंधक रहा है और धंधकने वाला है, आजकल गंभीर विचारका विषय बना हुआ है । कांग्रेसने अहिसाकी नीतिको अंगीकार कर उसका हाल में जिस रूपसे परित्याग किया है और उस पर महात्मा गाँधीजीने कांग्रेससे अलग होकर अपना जो वक्तव्य दिया है, उससे इस प्रश्न पर अधिक गहराई के साथ विचार करनेकी और भी ज्यादा आवश्यकता हो गई है । जैनियोंका अहिसा सिद्वान्तके विषयमें खास दावा है और वे अपने धर्मको उसका मूल स्रोत बतलाते हैं, इसलिये उस की उलझनोंको सुलझाना उनका पहला कतव्य है । बड़ी खुशीकी बात है कि कलकत्तेके श्रीविजयसिंहजी नाहर आदि कुछ जैन सज्जनोंने जैनदृष्टि से इस विषय पर गहरा विचार करनेके लिये एक अान्दोलन उठाया है और एक पत्र द्वारा अपनी प्रश्नावलीको समाजके सैंकड़ों गणमान्य विद्वानोंके पास भेजा है। 'तरुण ओसवाल' में छापा है और दूसरे पत्रोंमें भी छपाया जा रहा है। आपका वह पत्र नीचे दिया जाता है । साथमें महात्मा गाँधीजीका वह विस्तृत भाषण भी है, जिसका इस पत्रमें उल्लेख है और जिस पर खास तौरसे ध्यान देनेकी पत्रमें प्रेरणा की गई है। श्राशा है 'अनेकान्त'के विज्ञ पाठक महात्माजीके पूरे ‘भाषणको गौरके साथ पढ़ेंगे और फिर जैनदृष्टि से उस प्रश्नावलीको हल करनेका पूरा प्रयत्न करेंगे, जो पत्र में दी हुई हैं । इससे देशके सामने जो प्रश्न उपस्थित है उसके हल होने में बहुत कुछ सहायता मिल सकेगी।
-सम्पादक] कम यह पत्र अापकी सेवामें एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न योग न करें, यह सिद्धान्त अधूरा और पङ्ग ही रहेगा। ९ की चर्चा के विषय में भेज रहे हैं और इस छूटके जीवन के अमुफ क्षेत्रमें तो दिन रातके २४ घंटोंमें से लेनेकी क्षमा चाहते हैं।
अमुक समय में ही अहिंसाका पालन और शेषमें हिंसा आज देश भरमें इस बातकी चर्चा हो रही है कि की छूट, हमें तो यह केवल अँधा ज्ञानहीन धर्मपालन श्राया बाहरी आक्रमण या अन्दरूनी झगड़ोंसे देशकी ही मालूम होता है । इसमें कायरता भी मालूम होती और देशवासियोंकी रक्षा बिना फ़ौज-हथियारोंके और है। हमारा मतलब यह नहीं है कि कोई भी आदमी अहिंसक तरीकेसे हो सकती है या नहीं । जैसा कि पूर्ण अहिंसक रूपसे जीवन व्यतीत कर सकता है। यह आपको विदित है, अाज पिछले २५ वर्षसे हिन्दुस्तान तो असम्भव सी बात है । क्योंकि जीवन के लिये हिंसा की आज़ादीके लिये राजनैतिक क्षेत्रमें भी अहिंसाके किसी न किसी रूपमें अनिवार्य है, पर अहिंसाको कुछ सिद्धान्तका प्रयोग हो रहा है । इसके पहले तक हमारे क्षेत्रों में ही सीमित कर देना और दूसरे क्षेत्रों में हिंसा ख़यालमें अहिंसाधर्म व्यक्तिके निजी जीवन में और की प्रधानता और छट मान लेना तो अहिंसाके मूल उसमें भी एक संकुचित दायरेमें सीमित रहा, पर यह पर श्राघात करना है, हमारा ऐसा ख़याल है । ऐसी स्पष्ट है कि जब तक अहिंसाके सिद्धान्तका हम हमारे स्थितिमें अहिंसा केवल एक विडम्बना मालूम होती है । व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवनके सभी क्षेत्रों में उप. इस सिलसिले में हम आपका ध्यान महात्मा गाँधीके
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अनेकान्स
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६
'वीरोंकी अहिंसा' शीर्षक भाषणकी ओर आकर्षित आशा है । प्रश्न इस प्रकार हैंकरते हैं (यह भाषण भनेकान्तकी इसी किरण में अन्यत्र १-जैनधर्मके अनुसार अहिंसाकी क्या व्याख्या है ? प्रकाशित है) जिसमें अहिंसाकी व्यापक और विशद,पर भापकी रायमें क्या भाज जो व्याख्या की जाती है, साथ ही सुगम व्याख्या की गयी है।
वह उससे मित्र है ? आपकी सम्मतिमें अहिंसा ___आज भारतवर्ष ही नहीं, सारे संसारका ध्यान की पूर्ण व्याख्या क्या है? अहिंसाके सिद्धान्तकी ओर गया है। ऐसे अवसर पर २-क्या यह सम्भव है कि बाहरके आक्रमण या अहिंसाको परमधर्म मानने वाले हम जैनोंका एक अन्दरूनी झगड़ों, (जैसे हिन्दु-मुस्लिम दंगे, या विशेष उत्तरदायित्व हो गया है । हजारों वर्षोंसे- बूट मार ) से बिना हथियारों या फौजके अहिंसापरंपरासे हम अहिंसाधर्मकी घोषणा करते रहें हैं और स्मक ढंगसे देशकी रक्षा हो सकती है ? उसके लिये बहुतसे कष्ट भी सहे हैं । इसलिये आज ३-यदि ऐसा नहीं तो क्या आपकी रायमें अहिंसा जब अहिंसाके सिद्धान्तकी परीक्षाका और उसके विकास जीवनका सर्वव्यापी सिद्धान्त नहीं हो सकता ? का समय भाया है, तब हमारा कर्त्तव्य हो जाता है ४-अहिंसात्मक ढंगसे देशकी रखाका प्रश्न हल हो कि हम इसकी प्रतिष्ठामें अपना सहयोग दें और स्पष्ट सकता है, तो किस तरीकेसे और क्यों कर ? तौर पर अपना मत दें । हम समझते हैं कि और कुछ ५-आपकी जानमें क्या जैनशास्त्रों या साहित्यमें न कर सकें तो अहिंसाकी सैद्धान्तिक चर्चा में तो हम ऐसे कोई उदाहरण हैं जब देश या राज्यकी रक्षाके अधिकारसे बोल ही सकते हैं। यदि हम आज इस लिये अहिंसात्मक उपाय काममें लाये गये हों। प्रश्नकी चर्चा में संसारके सामने वास्तवमें कुछ स्पष्ट ६--क्या भापकी जानमें शास्त्रों में ऐसे भी उदाहरण हैं
और निश्चित राय रख सकें तो अहिंसाधर्मके प्रचारमें जब देश या धमकी रक्षाका प्रश्न उपस्थित होने थोडासा हाथ बँटा सकनेके पुण्यके भागी भी हो सकेंगे। पर जैनाचार्योंने हिंसासे रक्षा करनेका आदेश
इन सब बातोंको ध्यानमें रखकर हम नीचे लिखे दिया हो या आयोजन किया हो। कुछ प्रश्नों पर आपकी स्पष्ट और निश्चित राय चाहते हम आशा करते हैं कि जैसा भी हो, संक्षेपमें या हैं और आशा करते हैं कि आप हमें जितनी जल्दी हो विस्तारसे भाप अपना उत्तर शीघ्र ही भेजनेकी कृपा सके, अपने उत्तरसे कृतार्थ करेंगे। हम यह पत्र सभी करेंगे । हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि इस प्रश्नकी जैनसम्प्रदायोंके प्राचार्य, प्रख्यात् साधु, आगेवान चर्चा उठानेमें हमारा एक मात्र उद्देश्य अहिंसाके प्रचार श्रावक तथा जैनपत्रों के सम्पादकोंके पास भेज रहे हैं में तथा उनके प्रयोके बीचमें आई हुई बाधाओं को दूर
और चाहते हैं कि पYषणपर्व तक सब उत्तरोंका करने में जितना हो सके उतना सहयोग देनेका है। संकलन करके प्रकाशित करें । यदि हमारी जानकारी
बिनीत न होनेसे या भूलसे किन्हीं महानुभावके पास यह पत्र ४८, इंडियन मिररस्ट्रीट विजयसिंह नाहर खास तौरसे न पहुँचे तो भी यह उनकी नजरमें आने कलकत्ता
सिद्धराज उड्डा पर वह अपना मत इस पर प्रकट करेंगे, ऐसी हमें
भंवरमल सिंधी
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वरोिंकी अहिंसाका प्रयोग
[ श्री महात्मा गांधी ]
[यह महात्मा गाँधीजीका वह भाषण है, जिसे उन्होंने गत २२ जूनको वर्धा में गाँधी-सेवा-संघकी सभामें दिया था । इसमें उन्होंने अपना सारा हृदय उँडेल कर रख दिया है और अपने पचास वर्षके अनुभवको बहुत स्पष्ट शब्दों में जनताके सामने रक्खा है । अहिंसा-सम्बंधी प्रश्नावलीका जो पत्र पीछे प्रकाशित हुआ है उसमें इसी पर ख़ास तौरसे ध्यान देनेकी प्रेरणा की गई है। यह पूरा भाषण पहिले 'सर्वोदय' में प्रकाशित हुआ था, अब इसी अगस्त मासके 'तरुण ओसवाल' में भी प्रकट हुआ है । 'तरुण ओसवाल' में जहाँ कहीं छपनेकी कुछ अशुद्धियाँ रह गई थीं, उन्हें 'सर्वोदय' परसे ठीक करके दिया जा रहा है । पाठकोंको यह पुरा भाषण गौरके साथ पढ़ना चाहिये । -सम्पादक ]
मेरी साधना
मैंने जाजूजी के पास कुछ प्रश्न दिये। इस कारण यह है कि मेरे दिलमें भी अनेक तरह के विचार आते रहते हैं। मैंने आज तक अहिंसा या ग्रामोद्योगके जो विचार और कार्यक्रम जगत के सामने रखे, उसका मतलब यह नहीं था कि मेरे पास कोई बने-बनाये सिद्धान्त पड़े हैं, या मैंने कोई अन्तिम निर्णय कर लिये हैं । परन्तु फिर भी इस विषयमें मेरे कुछ विचार तो हैं ही । पचास वर्ष तक मैंने एकही चीज्रकी साधना की है। ज्ञान पूर्वक विचार भले ही न किया हो, लेकिन फिर भी विचार तो होता ही रहा । उसे आप मेरी अन्तर- आबाज्र कहें या अनुभवका परिणाम कहें। जो कुछ हैं, आपके सामने रखता हूँ । पचास साल तक उसी
अन्दरको आवाजको श्रवण करता रहा हूँ । 'अहिंसा' शब्द निषेध
जो अहिंसक है, उसके हाथमें चाहे कोई भी उद्यम क्यों न रहे, उसमें वह अधिक-से-अधिक अहिंसा लाने की कोशिश करेगा ही । यह: तो वस्तु स्थिति है कि बरौर • हिंसा के कोई भी उद्योग चल नहीं सकता । एक दृष्ट्रि जीवन के लिये हिंसा अनिवार्य मालूम होती है। हम हिंसाको घटानाचाहते हैं, और हो सके तो उसका लोप करना चाहते हैं । मतलब यह कि हम हिंसा करते हैं, परन्तु अहिंसा की ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं । हिंसाका त्याग करने की हमारी कल्पना में से अहिंसा निकली है । इसलिये हमें शब्द भी निषेधात्मक मिला हैं । 'अहिंसा शब्द निषेधात्मक हैं ।
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अनेकान्त
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'अहिंसा' की मर्यादित व्याख्या अर्थात् जो अहिंसाको मानता है, वह जो उद्योग करेगा, उसमें कम से कम हिंसा करनेका प्रयत्न करेगा । लेकिन कुछ उद्योग ही ऐसे हैं, जो हिंसा बढ़ाते हैं । जो मनुष्य स्वभावसे ही श्रहिंसक है, वह ऐसे चन्द उद्योगोंको छोड़ ही देता है। उदाहरणार्थ,यह कल्पना ही नहीं की जा सकती कि वह कसाईका धन्धा करेगा । मेरा मतलब यह नहीं है कि मांसाहारी कभी अहिंसक हो ही नहीं सकता मांसाहार दूसरी चीज़ हैं | हिंदुस्तान में थोड़े से ब्राह्मण और वैश्योंको छोड़कर बाकी सब तो मांसाहारी ही हैं । लेकिन फिर भी, वे अहिंसाको परमधर्म मानते हैं । यहाँ हम मांसाहारी की हिंसा का विचार नहीं कर रहे हैं। जो मनुष्य माँसाहारी हैं, वे सारे हिंसावादी नहीं हैं। मैं यह कैसे कह सकता हूँ कि मांसाहारी मनुष्य हिंसक नहीं होता ? ऐंड्र जसे बढ़कर अहिंसक मनुष्य कहाँ मिलेगा ? लेकिन वह भी तो पहले माँसाहारी था। बाद में उसने मांसाहार छोड़ दिया। लेकिन जब माँसाहारी था, तब भी अहिंसक तो था ही। छोड़ने पर भी, मैं जानता हूँ, कि कभी २ जब वह अपनी बहन के पास चला जाता था तब माँस खा लेता था, या डाक्टर लोग आग्रह करते थे तो भी खा लेता था । लेकिन उससे उसकी अहिंसा थोड़े ही कम हो जाती थी ? इसलिये यहाँ पर हमारी अहिंसाक़ी व्याख्या परिमित है । हमारी मनुष्यों तक ही मर्यादित है ।
हिंसा
हिंसक और अहिंसक उद्योग
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
छोड़ ही देता है। जैसे वह शिकार कभी नहीं करेगा। यानी जिनमे हिंसाका विस्तार बढ़ता हो जाता है उन प्रवृत्तियों में वह कभी नहीं पड़ेगा । वह युद्ध में नहीं पड़ेगा | युद्ध में शस्त्रास्त्र बनाने के कारखानोंमें काम नहीं करेगा। उनके लिये नये नये शस्त्रों की खोज नहीं करेगा | मतलब, वह ऐसा कोई उद्योग नहीं करेगा, जो हिंसा पर ही आश्रित है और हिंसाको बढ़ाता है ।
अत्र, काफी उद्योग ऐसे भी हैं, जो जीवन के लिये आवश्यक हैं; लेकिन वे बिना हिंसा के चल ही नहीं सकते। जैसे खेतीका उद्योग है। ऐसे उद्योग अहिंसा में आ जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें हिंसा की गुंजाइश नहीं है, अथवा वे बिना हिंसा के चल सकते हैं। लेकिन उनकी बुनियाद हिंसा नहीं है और वे हिंसा को बढ़ाते भी नहीं हैं। ऐसे उद्योगों में होने वाली हिंसा हम घटा सकते हैं और उसे अपरिहार्य हिँसाकी हद तक ले जा सकते हैं। क्यों कि आखिरी अहिंसा हमारे हृदयका धर्म है । हम यह नहीं कह सकते कि किसी उद्योगका हिंसासे अनिवार्य सम्बन्ध है । वह तो हमारी भावना पर निर्भर हैं। हमारा हृदय अहिंसा होगा, तो हम अपने उद्योग में भी अहिंसा लाएँगे ।
अहिंसा केवल वाह्य वस्तु नहीं है । मान लीजिये एक मनुष्य हैं, काफी कमा लेता हैं और सुखसे रहता है। किसीका कर्ज वगैरह नहीं करता, लेकिन हमेशा दूसरोंकी इमारत और मिलकियत पर दृष्टि रखता है, एक करोड़ के दस करोड़ करना
चाहता हैं, तो मैं उसे अहिंसक नहीं कहूँगा । ऐसा
लेकिन माँसाहारी अहिंसक भी बाज चीज तो कोई धन्धा नहीं, जिसमें हिंसा हो ही नहीं । लेकिन
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वर्ष ३, किरण १० ]
चन्द धन्धे ऐसे हैं जो हिंसाको ही बढ़ाते हैं । अहिंसक मनुष्यको उन्हें वज्र्ज्य समझना चाहिये । दूसरे अनेक धंधों में अगर हिंसाके लिये स्थान है तो अहिंसा के लिये भी है । हमारे दिल में अगर अहिंसा भरी हुई है तो हम अहिंसक वृत्तिसे उन धन्धोंको करें । हम उन उद्योगोंका दुरुपयोग करें, यह बात दूसरी हैं ।
ariat अहिंसाका प्रयोग
प्राचीन भारत की अर्थ-व्यवस्था
मेरे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है । परन्तु मेरा ऐसा यिश्वास है कि हिन्दुस्तान कभी
सुखी रहा है । उस जमाने में लोग अपने अपने धन्धे परोपकार बुद्धिसे करते थे। उसमें उदर निर्वाह तो ले लेते थे; लेकिन धन्धा समाजके हितका ही होता था । मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि जिन्होंने हिन्दुस्तान के गांवों का निर्माण किया, उन्होंने समाज का संगठन ही ऐसा किया जिसमें शोषण और हिसा के लिये कमसे कम स्थान रहे। उन्होंने मनुष्य के अधिकारका विचार नहीं किया; उसके धर्मका
विचार किया । वह अपनी परम्परा और योग्यता के अनुसार समाजके हितका उद्योग करता था । उसमेंसे उसे रोटी भी मिल जाती थी, यह दूसरी बात थी। लेकिन उसमें करोड़ों को चूसने की भावना नहीं थी । लाभकी भावनोके बदले धर्मकी भावना थी । वे अपने धर्मका आचरण करते थे; रोटी तो यों ही चल जाती थी । समाजकी सेवा ही मुख्य चीज थी। उद्योग करनेका उद्देश्य व्यक्तिगत नफा नहीं था । समाजका संगठन ही ऐसा था । उदाहरणार्थ, गांव में बढ़ईकी जरूरत होती थी । वह खेती के लिये औज़ार तैयार करता था; लेकिन गांव उसे
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पैसे नहीं देता था । देहाती समाज पर यह बन्धन लगा दिया था कि उसे अनाज दिया जाय । उसमें भी हिंसा काफी हो सकती थी। लेकिन सुव्यवस्थित समाज में उसे न्याय मिलता था । और किसी जमाने में समाज सुव्यवस्थित था ऐसा मैं मानता हूँ । उस वक्त इन उद्योगों में हिंसा नहीं थी । एक उदाहरण
मेरे इस विश्वासके काफी सबूत हैं । अपने छुटपन में जब मैं काठियावाड़ के देहातों में जाता था तो लोगों में तेज था । उनके शरीर हट्टे-कट्टे थे । नहीं रहे । इस परसे मुझको ऐसा लगता है आज वे निष्तेज हो गये हैं । घरमें दो बर्तन भी किसी वक्त हमारा समाज सुव्यवस्थित था । उ
जीवन के लिये आवश्यक सब उद्योग अच्छी तरह वक्त उसका जीवन अहिंसक था । अहिंसक
चलते थे । अहिंसक जीवनके लिये जितने उद्योग अनिवार्य हैं उनका अहिंसा से सीधा सम्वन्ध है । शरीर-श्रम
इसीमें शरीर श्रम आ जाता है । मनुष्य अपने श्रम से थोड़ी सी ही खेती कर सकता है । लेकिन अगर लाखों बीघे जमीन के दो चार ही मालिक हो जाते हैं, तो बाकी के सब मज़दूर हो जाते हैं । यह बग़ैर हिंसा नहीं हो सकता । अगर आप कहेंगे कि वह मजदूर नहीं रखेंगे, यंत्रोंसे काम लेंगे; तो भी हिंसा आ ही जाती है। जिसके पास एक लाख बीघा ज़मीन पड़ी है, उसे यह घमण्ड तो आ ही जाता है कि मैं इतनी जमीनका मालिक हूँ। धीरे धीरे उसमें दूसरों पर सत्ता क़ायम करने का लालच आ जाता है । यंत्रों की मदद से
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अनेकान्त
वह दूर दूर लोगों को भी गुलाम बना लेता है । और उन्हें इसका पता भी नहीं होता, कि वे गुलाम बन रहे हैं। गुलाम बनाने का ऐसा एक खूबसूरत तरीका इन लोगोंने ढूंढ लिया है। जैसे फोर्ड है । एक कारखाना बनाकर बैठ गया है । चन्द आदमी उसके यहाँ काम करते हैं। लोगोंको प्रलोभन दिखाता है, विज्ञापन निकालता है । हिंसक प्रवृत्तिका ऐसा मोहक रास्ता निकाल लिया
है कि हम उसमें जाकर फँस जाते हैं और भस्म हो जाते हैं। हमें इन बातोंका विचार करना है। कि क्या हम उसमें फँस जाना चाहते हैं या उससे बचे रहना चाहते हैं ?
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६
वह अपने ब्रह्माण्डका बोझ अपने कंधे पर लिये फिरता है जो धर्म व्यक्ति के साथ खतम हो जाता है, वह मेरे कामका नहीं है । मेरा यह दावा है कि सारा समाज अहिंसा का आचरण कर सकता है और आज भी कर रहा है । मैंने इसी विश्वास पर चलने की कोशिश की है और मैं मानता हूँ कि मुझे उसमें निष्फलता नहीं मिली । अहिंसा समाजका प्राण है
मेरा विशेष दावा
अगर हम अपनी अहिंसाको अविच्छिन्न रखना चाहते हैं और सारे समाजको अहिंसक बनाना चाहते हैं, तो हमें उसका रास्ता खोजना होगा । मेरा तो यह दावा रहा है कि सत्य, अहिंसा, वगैरह जो यम हैं, वे ऋषि मुनियोंके लिये नहीं हैं। पुराने लोग मानते हैं कि मनुने जो
बतलाये हैं वे ऋषि-मुनियोंके लिये हैं, व्यवहारी मनुष्योंके लिये नहीं हैं । मैंने यह विशेष दावा किया है कि अहिंसा सामाजिक चीज़ है । मनुष्य केवल व्यक्ति नहीं है; वह पिण्ड भी है और ब्रह्माण्ड भी । वह अपने ब्रह्माण्डका बोझ अपने कंधे पर लिये फिरता है । जो धर्म व्यक्ति के साथ खत्म हो जाता है, वह मेरे कामका नहीं है। मेरा यह दावा है कि अहिंसा सामाजिक चीज़ है। केवल व्यक्तिगत चीज़ नहीं है। मनुष्य केवल व्यक्ति नहीं है; वह पिण्ड भी है और ब्रह्माण्ड भी ।
मेरे लिये अहिंसा समाजके प्राण के समान चीज है । वह सामाजिक धर्म है, व्यक्तिके साथ खतम होनेवाला नहीं है। पशु और मनुष्य में यही तो भेद है। पशुको ज्ञान नहीं है मनुष्यको है । इस लिए अहिंसा उसकी विशेषता है। वह समाज के लिए भी सुलभ होनी चाहिये । समाज उसीके बल पर टिका है । किसी समाज में उसका कम विकास हुआ है, किसी में बेशी विकास हुआ है। लेकिन उसके बिना समाज एक क्षण भी नहीं टिक सकता। मेरे दावे में कितना सत्य है, इसकी आप शोध करें । आपका कर्तव्य
मैं जो यह कहा करता हूं कि सत्य और अहिंसा से जो शक्ति पैदा हो जाती है उसकी तुलना किसी दूसरी शक्ति से नहीं हो सकती, क्या वह सच है ? इसकी शोध भी आपको करनी चाहिये। हमें उस शक्तिकी साधना करके वह अपने जीवन में बितानी चाहिये । तब तो हम उसका प्रत्यक्ष प्रमाण दे सकेंगे। गाँधी सेवा संघका यह कर्तव्य है कि ह मेरे दावेका परीक्षण करे। क्या अहिंसा करोड़ों लोगोंके करने जैसी चीज़ है ? क्या हिंमा अहिंसा का मिश्रण ही व्यहार के लिये जरूरी है ? क्या
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वर्ष ३. किरण 101
वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग
अहिंसा दर-असल सामाजिक धर्म है ? क्या हम व्यक्तिकी बराबरी नहीं कर सकता । वह तो शस्त्र उस पर डटे रहें: या उसे छोड़ दें ? इन सारी का सहारा चाहता है, इसलिये वह अशक्त है । बातोंका निर्णय आपको करना है । अहिंसाकी अहिंमा अशक्तोंका शस्त्र नहीं है। शक्ति अपने जीवन द्वाराप्रगट करना हमारा मेरा दोष कर्तव्य है।
____ तो फिर आप पूछेगे कि मैंने जनतासे उस हमने आज तक अहिंसाका शस्त्रका प्रयोग क्यों करवाया ? क्या उस वक्त मैं प्रयोग नहीं किया
यह नहीं जानता था ? मैं जानता तो था । लेकिन
उस वक्त मेरी दृष्टि इतनी शुद्ध नहीं हुई थी। अगर हम यह कर्तव्य नहीं कर सके, इसका अनुभव
उस वक्त मेरी दृष्टि शुद्ध होती, तो मैं लोगोंसे कहता कल हुआ। काँग्रेसके महामंडलने ( हाई कमाण्ड
कि 'मैं आपसे जो कुछ कह रहा हूँ, उसे आप ने ) कल जो प्रस्ताव किया, उस परसे साफ़ है कि
अहिंसा न कहें । आप अहिंसाके लिये लायक नहीं हम परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुये। वह महामंडल के
हैं; डरसे भरे हुये हैं। आपके दिलमें हिंसा भरी लिये शर्मकी बात नहीं है। वह तो मेरे लिये शर्म
हुई है। आप अंग्रेजोंसे डरते हैं । अगर आप हिंदू की बात है । मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मेरी
हैं तो मुसलमानसे डरते हैं;अगर आप मुसलमान बात तीर जैसी सीधी उनके हृदय तक पहुँच सके।
हैं तो तगड़े हिन्दुओंसे डरते हैं । इसलिये मैं जो कांग्रेसमें भी तो मैं मुख्य कार्य-कर्ता रहा। उनके
प्रयोग आपसे करा रहा हूँ वह अहिंसाका प्रयोग दिलों पर मैं अपना असर नहीं कर सका। इसमें
नहीं है । सारा डरपोकोंका समाज है। उनमें से शर्म तो मेरो है । इससे यह सिद्ध हुआ है कि आज
एक डरपोक आदमी मैं भी हूँ।" यह सब मुझे तक जिस अहिंमाका आश्रय लिया, वह सच्ची
साफ़ २ कह देना चाहिये था । मुझे यह कह देना अहिंसा नहीं थी। वह निःशस्त्रों की अहिंमा थी।
चाहिये था कि 'हम प्रतिकारकी जिस नीतिका प्रयोग लेकिन मैं तो कहता हूँ कि अहिंसा बलवानोंका
कर रहे हैं वह सच्ची अहिंसा नहीं है।' मैंने ग़लत शस्त्र है। हमने आज तक जो कुछ किया, वह
भाषाका प्रयोग किया । अगर मैं ऐसा न करता, तो अहिंसाके नाम पर दूसरा ही कुछ किया । उसको
यह करुण कथा, जो कल हुई, असम्भव थी। आप और कुछ भी कह लीजिये; लेकिन अहिंसा
इसलिये मैं अपने आपको दोषी पाता हूँ । नहीं कह सकते । वह क्या था, यह मैं नहीं बता सकता । वह तो आप काका साहब, बिनोबा या हमारा हेतु शुद्ध था किशोरलालस पूछे । वे बता दें कि हमने जो आज वह करुण कथा तो है,लेकिन फिर भी मुझे उस तक किया, उसे कौनसा नाम दिया जाय । लेकिन का दुःख नहीं है । हमने ग़लत प्रयोग भले ही किया मैं इतना जानता हूँ कि वह अहिंसा नहीं थी। मेरे हो, लेकिन शुद्ध हृदयसे किया । जो अहिंसा नहीं नज़दीक तो शस्त्रधारी भी बहादुरीमें अहिंसक थी उसे अहिंसा मानकर अपना काम किया ।
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
हमारा काम तो निपट गया लेकिन उसमें से एक कमजोर हो जाने पर गुण्डोंको मौका मिलेगा। अनुभव मिला । आज तक हमने जो किया, वह चोर हैं, डाकू हैं, वे हमारे घरों पर हमला करेंगे। डरके मारे किया । इसलिये सफलता नहीं मिली। हमारी लड़कियों पर आक्रमण करेंगे । अगर परन्तु हमारा हेतु शुद्ध था । इसलिमे अब भगवान हमारी अहिंसा बलवान की है, तो हम उन पर ने हमें बचा लिया। ग़लत नीतिको सही समझ कर क्रोध नहीं करेंगे। वे हमें पत्थर मारेंगे, गालियाँ हमने अधिकार-ग्रहण भी किया। वहां भी अहिंसा देंगे, तो भी हमें उनके प्रति दया रखनी चाहिये । की परीक्षा उतीर्ण नहीं हुये। तभीसे मुझे तो हम तो यही कहें कि ये पागलपनमें ऐसा कर रहे विश्वास हो गया था कि हमें अधिकार-पदोंका हैं। हमें उनके प्रति द्वेष न रखते हुए उन पर दया त्याग करना ही होगा। भगवान्ने हमारी लाज करनी चाहिये और मर जाना चाहिए। जब तक रख ली । कभी-न-कभी हमें अधिकार-त्याग तो हम जिन्दा हैं, वे एक भी लड़कीको हाथ न लगा
करना ही था। भगवानने हमें निमित्त दे दिया। सकें। इसी प्रयत्नमें हमें मरना है । किसीने हमको वहांसे निकाला नहीं। हममेंसे वर्किङ्ग कमेटीकी स्थिति बहुतेरोंके दिलोंमें अधिकारका मोह हो गया था।
____ इस प्रकार चार, डाकू ओर आतताया हमला कुछ लोगोंको थोड़ासा पैसा भी मिल जाता था।
करें तो लोग अपना रक्षण किस प्रकार करें, यह लेकिन काँग्रेसका हुक्म होते ही सब छोड़कर अलग
र प्रश्न आया । काँग्रेसके महाजनों (हाई कमाण्ड) ने हो गये । साँप जैसे अपनी केंचली फेंक देता है
देखा कि शान्ति-ना तो बन नहीं सकती । फिर उसी तरह फेंककर अलग होगये । मान लिया कि
कांग्रेस लोगांको क्या आदेश दे ? क्या कांग्रेस ये अधिकार-पद निकम्मे हैं, क्योंकि हमारे वहाँ
मिट जाय ? इसलिए उन्होंने वह कल वाला बैठे रहने पर भी सरकारने हमें लड़ाईमें शरीक
प्रस्ताव किया । उन्होंने समझा कि सम्पूर्ण अहिंसा कर दिया, और हमें उसका पता भी नहीं चला।
का प्रयोग देशकी शक्ति के बाहर है। देश को फौज भगवान्ने ही लाज रखी, क्योंकि हम वहाँ रहते
की जरूरत है। तो हमारी दुर्बलताका प्रदर्शन हो जाता।
मेरे पास भी हमेशा पत्र आते हैं कि 'अन्धाशुद्ध अहिंसक प्रयोगका मौका धंध होने वाली है। तुम राष्ट्रीय सेना बनाओ,
और उसके लिये लोगोंको भर्ती करो'। लेकिन मैं आज यह दूसरा मौक़ा आया । यूरोपमें महा यह नहीं कर सकता। युद्ध शुरू हो गया। जगतको बलवान अहिंसाका .
। मेरी स्थिति प्रयोग दिखानेका मौका आया । यह हमारी परीक्षा में का समय है। हम उसमें उत्तीर्ण नहीं हुए। आज मैंने तो अहिंसाकी ही साधना की है। मैं डरदेशको बाह्य आक्रमणसे डर नहीं है । मेरा खयाल पोक या और कुछ भले ही होऊँ; लेकिन दूसरी है कि बाह्य आक्रमण नहीं होगा। लेकिन सल्तनत साधना नहीं कर सकता। पचास वर्ष तक मैंने
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वर्ष ३, किरण १०]
वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग
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अहिंसाकी ही उपासनाकी है । काँग्रेसके द्वारा भी है। मैंने अभी कहा कि अहिंसा बलवानका शस्त्र मैं वही बात सिद्ध करना चाहता था। मैं चवन्नी है। बलवानका क्या, वह तो बलिष्ठ का शस्त्र है। का सदस्य भी नहीं था, लेकिन मैं कहता था कि क्षमा तो वीरपुरुषका भूषण है; दुर्बलोंका नहीं । चवन्नी सदस्यसं ज्यादा हूँ। क्योंकि काँग्रेमके कार्य जबरदस्ती कोई चीज़ मान लेना दुर्बलता है। क्रमका नेतृत्व मैं करता था। मेरी नैतिक जिम्मेदारी इसलिये मेरे कहनेसे वे मेरी बात मान लेते, तो चवन्नी-सदस्यसं बहुत अधिक थी । अब वह नैतिक वह दगाबाजी हो जाती । जो चीज़ मैं मानता हूँ बंधन भी कलसे छोड़ कर आया हूं । क्योंकि अव वह अगर उनकी बुद्धिको मंजूर नहीं है, तो जो मैं अपना प्रयोग किसके द्वारा करूँ ? आज तक सच है वही उन्हें करना चाहिये । इस दृष्टिसे तो काँग्रेसके द्वारा करता रहा ।
उन्होंने जो किया, वह ठाक ही किया है। कार्य-समिति और मैं
अब हम सहधर्मी नहीं रहे ' आज तक काँग्रेसने मेरा साथ दिया। लेकिन
परन्तु मेरी अहिंसक जवान अब उनकी बात जब वर्तमान महायद्ध शुरू हुआ और मैं शिमलासे का उच्चार नहीं कर सकती। अब तक तो वे सरकार लौटा, तभीसे बात कुछ दूसरी हो गई । शिमलामें से कहते थे कि “आप हमारी बात नहीं मानते, तो मैंने वाइसरायसे कहा था कि 'मेरी सहानुभति हम भी नैतिक दृष्टि से आपकी सहायता नहीं कर तम्हारे लिये है। लेकिन हम तो अहिंसक हैं। हम सकते । आप अपने धर्मका जब तक पालन नहीं केवल आशीर्वाद दे सकते हैं। अगर हमारी अहिंसा करते, तब तक हम आपके साथ सहयोग नहीं कर • बलवानोंकी अहिंसा है, तो हमारे नैतिक आशीर्वाद सकते।" मेरी अहिंसक ज़बान काँग्रेसकी तरफसे से संसारमें आपका बल बढ़ेगा।' परन्तु मैंने देखा यह सब कह सकती थी। उसमें मेरी अहिंसाके कि मेरे विचारोंस काँग्रेसके महाजन सहमत नहीं प्रयोगके लिये सामान मौजूद था। आज वह नहीं हो सकते थे। उन्होंने अपना अलग प्रकारका है। अब तो काँग्रेसके महाजन और मैं सहधर्मी वक्तव्य निकाला । अगर वे मेरी नीति स्वीकारते, नहीं रहे । सक्करके लोगोंने मुझसे पूछा; उनसे भी तो काँग्रेसका इतिहास दूसरी ही तरह लिखा मैंने कहा कि तुम मेरा रास्ता लो। उन्होंने समझा जाता।
कि वे मेरी सलाह पर नहीं चल सकते । उन्होंने ___ यदि मैं बलपूर्वक कहता कि मेरी ही नीति मारपीटका रास्ता उचित समझा । अब वे मेरे माननी चाहिये, तो राजेन्द्र बाबू, राजाजी और सहधर्मी नहीं रहे वही बात कलके प्रस्ताव में सष्ट दूसरे सदस्य मान लेते । वे भी कह देते कि ठीक है, हुई है। सक्करमें भी कांग्रेस वाले हैं । उनको और तुम्हारे साथ चलेंगे।' लेकिन वह धोखाबाजी हो कांग्रेसके महामंडलको मैं अपनी नीति पर नहीं जाती । उसमें अहिंसा नामको भी नहीं रहती। ला सका । इसलिये अलग हो गया । ऐसी यह अहिंसाका पहला लक्षण सचाई और ईमानदारी करुण कथा है। कांग्रेसके महामंडलने मुझसे कह
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अनेकान्त
दिया कि 'हम अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जा सकते । तुम्हें स्वतन्त्र कर देते हैं। तुम बलवानकी अहिंसाका प्रयोग करनेके लिये स्वतन्त्र हो ।"
हमारी दुर्बल अहिंसक नीति
आज तक हमने जो अहिंसाकी साधनाकी, उसमें यह बात रही कि हम अहिंसा के द्वारा अंग्रेजों से सत्ता छीन लेंगे । हम उनका हृदय परिवर्तन नहीं करना चाहते थे | हमारे दिल में करुणा नहीं थी; क्रोध और द्वेष था । गालियां तो हममें भरी थीं। हम यह नहीं मानते थे कि उनका हृदय बिगड़ा है, वे हमारी दया के पात्र हैं। हम तो यही मानते थे कि चोर और लुटेरे हैं । इनको अगर हम मार सकते तो अच्छा होता । इसी वृत्तिसे हमने असहयोग और सविनय भंग किया । जेलमें जा कर बैठे; वहां नखरे किये ।
'अहिंसा' के नामका प्रभाव
परन्तु इसमें से भी कुछ अच्छा परिणाम निकल आया । अहिंसा हमारी ज़बान पर थी । उसका कुछ शुभ परिणाम हुआ । थोड़ी-बहुत सफलता मिल गयी। राम नामके विषय में हमने सुना है कि राम नामसे हम तर जाते हैं, तो फिर स्वयं राम
जावे तो क्या होगा ? अहिंसा के नाम ने भी इतना किया; तो फिर अगर दर असल हममें सच्ची हिंसा जावे, तो हम आकाश में उड़ने लगेंगे । जो शक्ति हिटलरके हवाई जहाजोंमें नहीं है, वह उड़ने की शक्ति हममें होगी। हमारा शब्द आकाश गंगा को भी भेदता हुआ चला जायगा। यह जमीन आसमान हो जायगी ।
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं ०२४६
गांधी सेवा संघ क्या करे ?
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आज तक गांधी सेवा संघने जो काम किया वह निकम्मा काम था; लेकिन सच्चे दिलसे किया था । इसलिये बिल्कुल निष्फल नहीं हुआ । हम गलती कर रहे थे, लेकिन उसके पीछे धोखेबाजी नहीं थी । फिर भी जो कुछ किया, वह हमारा भूषण नहीं कहा जा सकता । आज परीक्षाका मौका आ गया । काँग्रेस के महाजन तो उत्तीर्ण नहीं हुए। अब देखना है, गाँधी सेवा संघ क्या कर सकता है ? गांधी सेवा संघके लोग अगर जनता में अहिंसाकी जागृति कर सकेंगे, तो काँग्रेस के महाजनों को भी खशीं होगी। काँग्रेसके लोग अगर महाजनों से कहेंगे कि आप क्यों कहते हैं कि अहिंसाका पालन नहीं हो सकता; हम तो अहिंसक हैं और रहेंगे, तो कांग्रेस के महाजन नाचेंगे । आप लोग गाँधी सेवा संघ मानने वाले हैं। आपमें से कुछ काँग्रेस में हैं, कुछ नहीं हैं। मैं तो वहां नहीं रहा । अब जिन लोगों के नाम कांग्रेस के दफ्तर में दर्ज हैं, वे अगर अहिंसक हैं तो उन्हें कार्य समिति से कहना चाहिये कि हम अहिंसा में ही मानते हैं । लेकिन यों ही कह देने से काम नहीं चलेगा। आपके दिलों में सच्ची अहिंसा होनी चाहिये । इस तरह की अहिंसा अगर कांग्रेस सदस्यों में है, तो आल इन्डिया काँग्रेस कमेटीमें वे कहेंगे, काँग्रेसका अधिवेशन होगा, उसमें भीं कहेंगे कि हम तो अहिंसक हैं । जब तक आप समझते हैं कि आप का हिंसाका टट्टू कांग्रेस में चल सकता है, तब तक वहाँ रहें, नहीं तो निकल जायँ । कांग्रेसका धर्म एक रहे और आपका दूसरा, इससे कार्य नहीं
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वर्ष ३, किरण १० ]
वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग
हो सकता । तब तो हमको ऐलान कर देना चाहिये स्वभावसिद्ध कार्य ही स्वधर्म है
कि हम लोगों के प्रतिनिधि नहीं बन सकते ।
दिली अहिंसा
अगर आप कांग्रेस में रहकर अहिंसाका प्रचार करना चाहते हैं, तो आपको खबरदार रहना होगा । आपकी अहिंसा सच्ची अहिंसा होनी चाहिये | अगर मैं दिलसे भी किसी आदमीको मारना चाहता हूँ तो मेरी अहिंसा ख़तम है । मैं शरीर से नहीं मारता, इसका मतलब यही है कि मैं दुर्बल हूँ | किसी आदमीको लकवा हो जाय तो वह मार नहीं सकता । उसी तरह की मेरी अहिंसा हो जाती है । अगर आप दिलसे भी अहिंसक हैं तो कांग्रेस के महाजनोंसे कह सकते हैं कि हम तो शुद्ध हिंसा के प्रयोग के लिए तैयार हैं। High
उस हालात में आपको अपना परीक्षण करना
होगा, फ़जरसे शाम तक आप जो जो कार्य करेंगे, उसके द्वारा शुद्ध अहिंसाकी साधना करनी होगी । केवल दिखावे के लिए नहीं, केवल भावुकतासे नहीं | हम केवल भावुक बनेंगे तो वहममें फँसेंगे | भावुकता के सिलसिले में मुझे एक किस्सा याद आता है । मेरे पिताजी के पास एक सज्जन
आया करते थे | बड़े भावुक थे, वहमी थे । जहाँ
किसीने छींक दिया कि बैठ गये उनके घरसे आने के लिए पाँच मिनट लगते थे । लेकिन इन भाई को पचास मिनट लग जाते थे । छींकों के कारण बेचारे रुक जाते थे । इसी तरह हम भावुकता से हिंसा के नाम पर सभी कामोंसे हट सकते हैं । मैं ऐसा नहीं चाहता। हम सब ऐसे भावुक न बनें।
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जो कुछ हम करें, वह धर्मकी भावना से करें । केवल भावुकतासे नहीं । मैं आज यहाँ बोलने आ गया हूँ | अपना धर्म समझ कर आया हूँ । मौन तो मेरा स्वभाव हो गया है । मौन मुझको मीठा लगता है । वह मेरा विनोद हो गया है । मनुष्यका कर्तव्य भी जब स्वभाव-सिद्ध हो जाता है, तो वही उसका विनोद हो जाता है । कर्तव्य क्या रहा ? वह तो उसका स्वभाव हो गया; आनन्द हो गया । अब तो मेरे लिए मौन स्वभावसिद्ध हो गया है। इसी तरह अहिंसा हमारे लिए स्वभाव - सिद्ध हो जाना चाहिये । कर्तव्य जब स्वभाव - सिद्ध हो जाता है, तब वह हमारा स्वधर्म हो जाता है ।
1
उसी तरह आप दिन भर जो करेंगे, उसके साथ अहिंसाका तार चलता ही रहेगा । चाहे झूठे तर्क शास्त्र के आधार पर क्यों न हो, आपके लिये अहिंसा ही परम धर्म होगा । झूठे तर्क शास्त्रको ही माया कहते हैं । दूसरोंके लिए वह माया है लेकिन हम जब तक उसमें फँसें हैं, तब तक हमारे लिए वह माया नहीं है । हमारे लिए वह सत्य ही है । मैं जानता हूँ कि इस चरखे पर ज्यों ज्यों एक तार कातता हूँ त्यों त्यों मैं स्व
राज्यके नजदीक जाता हूँ। यह माया हो सकती है; लेकिन वह मुझे पागलपनसे बचाती है । आपको इस तरह अनुसंधान करना चाहिये । अहिंसक उपकरणके यज्ञ
यह चरखा मेरे लिए अहिंसाकी साधनाका औजार है । वह जड़ वस्तु है । लेकिन उसके साथ
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श्रनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
जब अपनी चेतन वस्तु को मिला देता हूँ; तो लग गये; और तो भी मैं पूण नहीं हुआ। लेकिन उसमें से जो मधुर आवाज निकलती है वह अहिं- यह हो सकता है कि कोई आदमी आज ही शुरू सक होती है । उसमें जो लोहा लगा है; उससे करे और जल्दी ही पूर्ण हो जाय । इसलिये मैंने खून भी हो सकता है। लेकिन मैंने इस चरखेमें पृथ्वीसिंहसे कह दिया कि तुममें हिंसक वीरता तो मनुष्य के हितके लिए उसे लगाया है । मैं उसके थी। मुझमें तो यह भी नहीं थी। अगर तुम सच्चे सारे अंग स्वच्छ रखता हूँ। उसमसे अगर मधुर दिलसे अहिंसाको अपनावोगे, तो बहुत जल्दी
आवाज न निकले, तो वह हिंसक चीज बन जाती सफल होगे; मुझसे भी आगे चले जाओगे। है । हमें तो अहिंसाका यज्ञ करना है । यज्ञकी
मैं सफल शिक्षक बनना चाहता हूं
१ सामग्री बिल्कुल शुद्ध होनी चाहिये । खराब . लकड़ी; खराब लोहा लगावेंगे तो रही चरखा मेरी अपेक्षा दूसरे लोग मेरे प्रयोगमें अधिक बनेगा। उसकी आवाज कणकटु होगी । यज्ञकी सफल हों तो मैं नाचूंगा। वे अगर मुझे हरा दें तो सामग्री ऐसी नहीं होती।
मैं अपने आपको सच्चा शिक्षक समझूगा । इमो ___ इस प्रकारकं अनुसंधानसे अगर हम अपनी तरह मैं अपनी सफलता मानता आया हूँ । मैंने प्रत्येक क्रिया करेंगे, तो हमारी अहिंसाकी साधना लोगोंको जूते बनाना सिखाया है, अब ने मुझसे शुद्ध होगी। शुद्ध साधनाके लिए शुद्ध उपकरण आगे बढ़ गये हैं। यह प्रभुदास ता खड़ा है। इसे भी चाहिये । चरखेको मैंने शुद्ध उपकरण माना जूते बनाना मैंने सिखलाया। इसकी इतनीसी उम्र है। जो मन: पूर्वक यज्ञ करता है, उसे यज्ञकी थी। यह मुझसे आगे बढ़ गया। दूसरा सैम था। सामग्री ही प्रिय लगती है। इसलिए मुझे चरखा वह कारीगर था। उसने तो वह कला हस्तामलकप्रिय है। उसकी आवाज मीठी लगती है । मेरे वत कर ली । वे सब मुझसे आगे बढ़ गये । लिये वह अहिंसाका संगीत है।
क्योंकि मेरे दिल में चोरी नहीं थी । मैं जो कुछ
जानता था सब उन्हें देनको अधीर था । उन्होंने आप मुझसे आगे बढ़ें
मुझे हरा दिया, यह मुझे अच्छा लगता है। क्योंकि हमको पता नहीं कि इस तरहकी साधनाकं उसका यही मतलब है कि मैं सही शिक्षक हूँ। लिये किसे कितने वर्ष लगेंगे। किसीको हजार वर्ष अगर अहिंसाका भी मैं सही शिक्षक हूँ तो जो लग जायं तो कोई एक ही वर्षमें कर लेगा। मुझे लोग मुझसे अहिंसा सीखते हैं, वे मुझसे आगे बढ़ यह अभिमान और मोह नहीं है कि मैंने पचास जायेंगे। मुझो जो कुछ धरा है, वह सब मैं दे वर्ष तक साधना करली, इमलिये मैं जल्दी पूर्ण हुंगा देना चाहता हूँ। जो लोग आश्रम में मेरे साथ रहे
और आप अभी शुरू कर रहे हैं, इसलिये आपको हैं औ दूसरे भी जो आज मेरे साथ रहते हैं, वे अधिक वक्त लगेगा। यह अभिमान मिथ्या है । मैं अगर मुझसे आगे नहीं बढ़ते तो इसका यह अर्थ तो अपूर्ण हूँ डरपोक हूँ। इसलिये मुझे इतने साल होता है कि मैं सफल शिक्षक नहीं हूँ।
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ariat अहिंसाका प्रयोग
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आप मेरे सह- साधक हैं
मेरी यह इच्छा है कि आप लोग अहिंसा की साधना में मुझसे भी आगे बढ़ जायँ । क्योंकि मैं सिद्ध नहीं हूँ, आप मेरे सह-साधक हैं पास अहिंसाका जो धन है, उसे मैं घर२ बाँट देना चाहता हूँ । उसमें कसर नहीं करना चाहता ।
। मेरे
आपको अपने दिलमें सोचना चाहिये कि "यह मैंने काँग्रेस क्यों छोड़ी ?
जो कुछ हमें दे रहा है, उसका हम सारी भूमि में सिंचन करें । यह तो बूढ़ा हो गया है; हम तो तरुण हैं | हम इसके दिये हुए धनको बढ़ावेंगे !” इस तरह सोच कर आप मुझसे आगे बढ़ "जायँगे तो मैं आपको आशीर्वाद दूँगा ।
मैं अकेला नहीं हूँ
मैं जानना चाहता हूँ कि आपमें से कितने मेरे साथ इस रास्ते चलने को तैयार हैं? अगर कोई
आया तो मुझे अकेला भी चलना ही है । मैं सत्तर साल का हो गया हूँ, तो भी बूढ़ा हो गया हूँ ऐसा तो नहीं समझता । और मैं कभी अकेला तो हो नहीं सकता। और कोई नहीं तो, भगवान मेरे साथ रहेंगे। मुझे अकेलेपनका अनुभव कभी होता ही नहीं ।
आपकी अगर अहिंसा के मार्ग में श्रद्धा है, तो आप अपना परीक्षण करें। कितने आदमी इस रास्ते चलनेको तैयार हैं,इसकी खोज करें। कांग्रेस वालोंको टटोलें । यह सब खोज मैं नहीं कर सकता । क्या आप काँग्रेसके महाजनों को अहिंसा की शक्ति दे सकते हैं ? वे क्या करते; वे तो लाचार थे । जब वे देखते हैं कि लोगों में अहिंसा की एक बून्द
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भी नहीं है, तो वे कह देते हैं, 'हम क्या करें; हम आपका रास्ता नहीं ले सकते' । मैंने जिस तरह पदाधिकार छोड़ दिया, उस तरह वे तो नहीं छोड़ सकते। मैं अहिंसाको अपनी व्यक्तिगत साधना भी समझता हूँ । वे तो नहीं समझते ।
इस पर से आप समझायेंगे कि मैंने काँग्रेस छः साल पहले छोड़ दी, यह ठीक ही किया। उसकी अधिक सेवाकी । उसी वक्त मैंने देख लिया कि कांग्रेस में कई लोग ऐसे आ गये हैं, जो अहिंसाको नहीं मानते; जिनको अहिंसाने स्पर्श भी नहीं किया है । मैं उनसे काम कैसे ले सकता था ? साथ साथ मैंने यह भी देखा कि कई अहिंसा के पुजारी काँग्रेस के बाहर पड़े हैं । इसीलिये मैंने अलग हो जाना ही ठीक समझा। आज आप देखते हैं कि मैंने सही काम किया ।
क्योंकि मैंने देख लिया कि मैं दूसरी तरह की कोई सेवा नहीं कर सकता । सिवाय अहिंसा के मुझमें दूसरी कोई शक्ति नहीं है । तब मैं वहाँ रह कर क्या करता ? मुझमें जो कुछ शक्ति है वह अहिंसाकी ही शक्ति है । मैं अपनी अपूर्णता जानता हूँ । मेरी अपूर्णता मुझसे अधिक कोई नहीं जानता । लेकिन फिर भी मनुष्य अभिमानी होता है । इसलिये मैं जिन अपूर्णताओंको नहीं देखता, उन्हें आप देख लेते हैं; और मैं आत्म-परीक्षण करता रहता हूँ, इसलिये मेरी जिन अपूर्णताओं को आप नहीं देख सकते; उन्हें मैं देख लेता हूँ । इस तरह दोनोंका जोड़कर लेता हूँ ।
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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
अहिंसा ही मेरा बल है असाधारण थे; रावण भी उनका असाधारण
. शत्रु था। मझमें अहिंसाकी अपूर्ण शक्ति है, यह मैं हिटलरकी एकाग्रता जानता हूँ; लेकिन जो कुछ शक्ति है वह अहिंसाकी मेरे नजदीक तो वह सारी काल्पनिक कथा ही है । लाखों लोग मेरे पास आते हैं । प्रेमसे मुझे है। लेकिन उसमें सच्चा शिक्षण भरा पड़ा है। अपनाते हैं । औरतें निर्भय होकर मेरे पास रह हिटलर अपनी साधनामें निरन्तर जाग्रत है । उसके सकती है। मेरे पास ऐसी कौनसी चीज़ है ? केवल जीवनमें दसरी चीजके लिये स्थान ही नहीं रहा अहिंसाकी शक्ति है; और कुछ नहीं। अहिंसाकी है। करीब करीब चौबीस घंटे जागता है । उसका यह शक्ति एक नयी नीतिक रूपमें मैं जगतको देना एक क्षण भी दूसरे काममें नहीं जाता। उसने ऐसे चाहता हूँ। उसको सिद्ध करने के लिये हम क्या कर ऐसे शोध किये कि उन्हें देखकर ये लोग दिमूढ़ रहे हैं इसका हिसाब हमें अभी दुनियाको देना रह जाते हैं। उसके टैंक आकाशमें चलते हैं और बाकी है। दुनियामें आज जो शक्ति प्रकट हो रही पानीमें भी चलते हैं । देखकर ये लोग दंग रह है, उसके सामने मैं हारूँगा नहीं । लेकिन हमें जाते हैं । उसने ऐसी बातें कर दिखाई जो इनके सचाई और सावधानीसे काम लेना होगा; नहीं
ख्वाबमें भी नहीं थी। वह कितनी साधना कर तो हम हार जायेंगे।
सकता है,चौबीस घंटे परिश्रम करने पर भी अपनी हिटलरकी शक्तिका रहस्य बुद्धि तीव्र रख सकता है । मैं पूछता हूँ, हमारी बुद्धि
हम अपनी सारी शक्ति अहिंसाकी साधनामें कहाँ है ? हम जड़वत् क्यों हैं, कोई हमसे सवाल नहीं लगायेंगे, तो हम जीत नहीं सकते । हिटलरको पूछता है तो हमारी बुद्धि कुंठित क्यों होजाती है ? . देखिये । जिस चीजको वह मानता है, उसमें अपने हमारी बुद्धिमें तेजी हो सारे जीवन की शक्ति लगा देता है । पूरे दिल और मैं यह नहीं कहता कि हम वाद-विवाद करें। पूरी श्रद्धासे उसीमें लगा रहता है । इमलिये मैं केवल वाद विवाद में तो हम हारेंगे ही। हमें तो हिटलरको महापुरुष मानता हूँ। उसके लिये मेरे श्रद्धायुक्त बुद्धिकी शक्ति बतानी है । इसीका नाम मनमें काफी क़द्र है। वह शक्तिमान पुरुष है। आज शक्ति है । अहिंसाका अर्थ केवल चरखा चलाना राक्षस होगया है । जो जीमें आता है, सो करता नहीं है । उसमें भक्ति होनी चाहिये । अगर भक्तिके है; निरंकुश है। लेकिन हमें उसके गुणों को देखना बाद हमारी बुद्धि तेजस्वी नहीं हुई, तो मान लेना चाहिये । उसकी शक्ति के रहस्यको पकड़ना चाहिये। चाहिये कि हमारी भक्तिमें त्रुटि है। हिटलरकी तुलसीदासजीने यह बात हमें सिखाई है। उन्होंने विद्याके लिये अगर बुद्धिका उपयोग है, तो हमारी रावणकी भी स्तुतिकी है। मेरे दिल में रावणके लिये विद्याके लिये बुद्धिका उससे कई गुना उपयोग है। भी आदर है । अगर रावण महापुरुष न होता, तो हम यह न समझे कि अहिंसाके विकासमें बुद्धिका रामचन्द्र जीका शत्रु नहीं हो सकता था । रामचन्द्र उपयोग ही नहीं है ।
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वीरोंकी अहिंसाका प्रयोग
बुद्धिके उपयोग का क्षेत्र
है । मैं यह नहीं कहता कि हम अपना कार्य छोड़ आपकी बुद्धिके उपयोगका क्षेत्र बताने के लिए दें। उसे तो आग्रह पूर्वक चलाना ही है लेकिन मैंने ये प्रश्न बनाए । ये मौलिक प्रश्न हैं । उनका हम जागृत होका काम करेंगे, तभी सिद्धि मिलेगी। उत्तर आप एक दिन में नहीं दे सकते । मैं यहाँ हमारी बुद्धि मन्द होगी तो हमारा काम बिगड़ने तक नहीं पहुँचा कि उन पर पुस्तक लिखं फिर भी, वाला है। मेरे दिमाग़में कुछ उत्तर तो हैं । मैं पुस्तक लेखक मेरा दर्द नहीं बन सकता । पुस्तक लेखक तो दूसरों को इस दृष्टिसे कल जो प्रस्ताव हुआ, वह आपको बनना है। मेरे पास इतनी फुरमत कहाँ है ? जो अध्ययन और खोजका मौका देगा। उस प्रस्ताव लोग अध्ययन और खोज करेंगे वे पुस्तक लिखेंगे। से हमारी आबोहवा दुरुस्त होनी चाहिये । हमें पुस्तक लिखना भी कम महत्वका काम नहीं है। इस बातकी खोज करनी चाहिये कि काँग्रेसके जैसे रिचर्ड ग्रेग हैं । वे मेरे पाससे सिद्धान्त ले महामण्डलको यह प्रस्ताव क्यों करना पड़ा ? जो गये । अध्ययन और खोज करके पुस्तकें लिखते यह कहेगा कि महामण्डलके लोग डरपोक हैं, वह हैं । मैं जो कहनेको डरता था वह आज वह ग्रेग देश-द्रोह करेगा । उन्होंने जो आबोहवा देखी कह रहा है । मैं तो कहता था कि चरखा हिन्दु- उसका वह प्रस्ताव प्रतिघोष है। मैं उस आबोस्तान के लिए है । वह तो कहता है कि सारी हवाका प्रतिघोष नहीं हो सकता क्योंकि अहिंसा दुनियाका कल्याण चरखे में और ग्राम उद्योगोंमें मेरी व्यक्तिगत साधना भी है । काँग्रेसकी वह भरा है । योरुप और अमेरिकाके लिए भी साधना नहीं है। मुझे तो उसीमें मरना है । अहिंसाकी साधनाका दूसरा रास्ता नहीं है।' काँग्रेस के प्रतिनिधि मेरे जैसा नहीं कर सकते । प्रेग कहता कि दूसरी तरहसे अहिंसक जीवन उनकी साधना अलग है । इसलिये अब न वे मेरे असम्भव है । मैं कहनेसे हिचकता था । लेकिन साथ चल सकते हैं, और न मैं उनके साथ चल वह तो बहादुर आदमी है । उसने निर्भय होकर सकता हूँ। उनके लिये मेरे दिलमें धन्यवाद है। कह डाला । मैंने इस तरह खोजबीन और अध्ययन इस बात का दुख भी है कि इतने दूर तक साथ नहीं किया है । अन्तर्नादने जो मुझे आदेश दिया चलने पर भी मैं उन पर अपना असर क्यों नहीं और प्रत्यक्ष अनुभव से जो मैंने देखा, वह जगतके
वह जगतक डाल सका ? उन्होंने मुझे अपना मार्ग-दर्शक माना सामने रखता गया। अगक समान लेखबद्ध करक था। बड़ी श्रद्धासे बाग डोर मेरे हाथमें दी थी। शास्त्र नहीं बनाया । उसको बुद्धिने जो काम किया, फिर भी, मैं उनके दिलमें विश्वास नहीं पैदा कर क्या आपकी बुद्धि भी वह कर सकती है ? सका। इसका मुझे दर्द है।
विपक्षी जो कहते हैं, उसका अनादर नहीं करना चाहिये । उनकी दृष्टि से उन प्रश्नोंका विचार रचनात्मक कार्यक्रमका महत्व करके उन्हें उनकी भाषामें समझाना हमारा काम आप इस विषय की शोध करें । हमें तो
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अनेकान्त
[श्राडण, वीरनिर्वाण सं०२४६६
अहिंसाकी साधना वीरके शस्त्र के रूपमें करनी है। ही नहीं था, उन्हें कानून-भंग बतलाया । उनसे बात बहुत बड़ी है। हम यह न समझे कि हमें मुझे कहना चाहिये था कि आज तक सरकार के जेल जानेकी शक्ति बढ़ानी है। हमें तो यह बताना दण्ड के भयसे जो किया, वह पहले अपनी इच्छासे है कि रचनात्मक कार्यक्रम स्वराज्यका अविभाज्य करो। तब तुम्हें कानून-भंगका अधिकार प्राप्त होगा। अंग है । हमने यह नहीं समझा कि चरखा हमें ईश्वरने मुझे ही क्यों चुना? स्वराज्य देगा। 'गाँधी कहता है इसलिए चरखा
___ वह सारी अधूरी अहिंसा थी। मेरा उसमें चला लो, उससे गरीबको थोड़ा सा धन मिलता
डरपोकपव था। मैं अपने साथियोंको नाराज नहीं है'-यही हमारी वृत्ति रही । अब आपमें यह
करना चाहता था। साथियोंके डरसे कुछ करनेसे सिद्ध करने की शक्ति आनी चाहिये कि रचनात्मक
हिचकना हिंसा है। उसमें असत्य भरा है। मोती कार्य ही स्वराज्य दे सकता है। इसका मतलब यह
लालजी, बल्लभभाई और दूसरे लोग नाराज हो नही है कि आप रोज थोड़ासा, कात लें, दो चार
जायेंगे; यह डर मुझे क्यों रहा ? ये सब मेरी त्रुटियाँ मुसलमानोंके साथ दोस्ती करलें, अछूतोंसे मिलने
थीं। उन्हें मैं तटस्थ होकर देखता हूँ। उनका जुलने लगे और समझे कि अब हम स्वराज्यकी लड़ाई के लायक बन गये । आपको तो यही मानना
प्रत्यक्ष दर्शन करता हूँ; क्योंकि मुझमें अनासक्ति चाहिये कि रचनात्मक कार्यक्रममें ही स्वराज्य देने
" है। उन त्रुटियोंके लिये न तो मुझे दुख है, न
पश्चाताप । जिस प्रकार मैं अपनी सफलता और की शक्ति है । रचनात्मक कार्यक्रमके बाद लड़ाई
शक्ति परमात्माकी ही देन समझता हूँ, उसीको करनी है । ऐसी मान्यता आपकी नहीं हो सकती।
अर्पण करता हूँ, उसी प्रकार अपने दोष भी उस कार्य-क्रममें ही स्वराज्यकी ताक़त है।
भगवानके ही चरणोंमें रखता हूँ । ईश्वरने मुझ मैंने उल्टा प्रयोग कराया
जैसे अपूर्ण मनुष्यको इतने बड़े प्रयोगके लिये क्यों मैंने अहिंसाका प्रयोग इस देशमें उलटा किया।
चुना ? मैं अहंकारसे नहीं कहता । लेकिन मुझे दरअसल तो यह चाहिये था कि रचनात्मक कार्य
विश्वास है कि परमात्माको गरीबोंमें कुछ काम क्रमसे शुरू करता। लेकिन मैंने पहले सविनय भंग
लेना था, इसलिये उसने मुझे चुन लिया । मुझसे और असहयोगका, जेल जानेका कार्यक्रम रक्खा । मैंने लोगोंको यह नहीं समझाया कि ये तो बाद में
अधिक पूर्ण पुरुष होता तो शायद इतना काम न आने वाली चीज़ है । इसलिये वे आन्दोलन
कर सकता । पूर्ण मनुष्यको हिन्दुस्तानी शायद
पहचान भी न सकता। वह बेचारा विरक्त होकर कामयाब न हो सके।
गुफामें चला जाता । इसलिए ईश्वरने मुझ जैसे कानून-भंगका अधिकार
अशक्त और अपूर्ण मनुष्यको ही इस देशके लायक मुझे नडियादका किस्सा याद आता है । समझा । अब मेरे बाद जो आयेगा, वह पूर्ण पुरुष रौलेट एक्ट सत्याग्रहके वक्तकी बात है । वहीं मैंने होगा । मैं कहता यह हूं कि वह पूर्ण पुरुष आप कबूल कर लिया था कि मेरी हिमालय जैसी भूल बनें । मेरी अपूर्णताओंको पूरा करें। हुई। जिन्होंने ज्ञानपूर्वक कानूनका पालन किया
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उच्च कुल और उच्च जाति
ऊँची जाति, पुराना कुल, बाप-दादोंसे पाया हुआ धन, पुत्र-पौत्र, रूप-रंग आदिका जो अभिमान करता है, उसके बराबर कोई मूर्ख नहीं, क्योंकि इनके पानेके लिए, उसने कौनसी बुद्धि खर्च की । किसी बुद्धिमानने कहा है कि जो लोग बड़े घरानेके होनेकी डींग मारते हैं, वे उस कुत्ते के सदृश हैं, जो सूखी हड्डी चिचोड़ कर मगन होता है ।
महान् पुरुषके ये लक्षण हैं— (१) जिसे दूसरेकी निन्दा बुरी लगती है और ऐसी बातको अनसुनी करके, किसीसे उसकी चर्चा नहीं करता । (२) जिसे अपनी प्रशंसा नहीं सुहाती, पर दूसरेकी प्रशंसा से हर्ष होता है (३) जो दूसरोंको सुख पहुँचाना अपने सुखसे बढ़कर समझता है (४) जो छोटोंसे कोमलता और दयाभाव तथा बड़ोंसे आदर सत्कार के साथ व्यवहार करता है । ऐसे पुरुषको महापुरुष कहते हैं; केवल धन या ऊँचा कुल या जाति और अधिकारसे महानता नहीं आती।
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अनेक विद्वान् योग्य और देश हितैषी त्रुरुष जिनकी कीर्तिकी ध्वजा हजारों वर्ष से संसार में फहरा रही हैं. प्रायः नीचे कुलमें उत्पन्न हुए थे । ऊँचे कुल और ऊँची जातिका होनेसे बड़ाई नहीं आती । प्रकृति पर ध्यान करो तो यही दशा जड़ खान तक चली गई है छोटी वस्तु में बड़े रत्न होते हैं--देखो कमल कीचड़से, निकलता है, सोना मिट्टीसे, मोती सीपसे, रेशम कीड़ेसे, जहरमुहरा मेंडकसे, कस्तूरी मृगसे, आग लकड़ीसे, मीठा शहद मक्खी से ।
[ श्री डा० बी. एल. जैनके सौजन्यसे ]
- महात्मा बुद्ध
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________________ __Register. No. L. 4328 - श्री जैन प्राचीन साहित्योद्धार ग्रन्थावलीके / जैन मन्त्र-तन्त्र और चित्रकलाके अभूतपूर्व प्रकाशन ___भगवन् मल्लिषेणाचार्य विरचित 1. श्री भैरव पद्मावती कल्प. आठ तिरंगे और पचास एक रंगे चित्र और बन्धुषेण विरचित टीका, भाषा समेत साथमें 2 * इकतीस परिशिष्टोंमें श्री मल्लिषेण सूरि विरचित सरस्वतीकल्प, श्री इन्द्रनंदी विरचित पद्मावती पूजन, 2 र रक्त पद्मावती कल्प, पद्मावती सहस्रनाम, पद्मावत्यष्टक, पद्मावती जयमाला, पद्मावती स्तोत्र, पद्मावती दंडक, पद्मावती पटल वगैरह मंत्रमय कृतियां और गुजरात कालेजके संस्कृत प्राकृत भाषाके अध्यापक प्रो० अभ्यंकर द्वारा सम्पादित होने पर भी मूल्य सिर्फ 15) रुपये रखा गया है। 2. श्री महामाभाविक नव स्मरण , पंचपरमेष्ठि मंत्रके चार यंत्र, श्रीभद्रबाहु स्वामी विरचित उपसर्गहर स्तोत्र, उनके अनेक मंत्र, क कथा और सत्ताईस यंत्र समेत, श्रीमानतुंगाचार्य विरचित भयहर स्तोत्र उनके अनेक मंत्र तंत्र 1 और 21 यंत्र समेत, श्रीभक्तामरजी स्तोत्र, मंत्राम्नाय, कथाएँ, तंत्र, मंत्र और हरेक काव्य पर दो दो यंत्र कुल 96 यंत्र समेत और भगवन् सिद्धसेनदिवाकर विरचित श्रीकल्याणमंदिरजी स्तोत्र, उनके मंत्राG म्नाय और 43 यंत्र, चित्र वगैरह मिलाके कुल 412 चारसौ बारह यंत्र चित्र दिया हुआ है,एक प्रतिका* पांच रतल वजन होने पर भी मूल्य 25) रु० रखा गया है। 3. श्री मंत्राधिराज चितामणि श्रीचिन्ताणिकल्प, श्रीमंत्राधिराज कल्प वगैरह श्री पार्श्वनाथजी भगवान के अनेक मंत्रमय र स्तोत्र और 65 यंत्र समेत मूल्य 7) रु० 4. श्री जैन चित्रकल्पद्रुम् - गुजरातकी जैनाश्रित चित्रकलाके ग्यारहवीं सदी से लगाकर उन्नीसवीं सदी तकके लाक्षणिक M नमूनाओं का प्रतिनिधो संग्रह, जिसमें 320 पूर्ण रंगी और एक रंगी चित्र हैं, साथ जैनाश्रित चित्रकलाके विषयमें अमेरिकाके प्रोब्राउनने, बड़ोदरा राज्यके पुरातत्वखातेका मुख्याधिकारी डा० हीरा8 नन्द शास्त्रीजीने, गुजरात के सुप्रसिद्ध चित्रकार रविशंकर रावलने, रसिकलाल परीख, श्रीयुत साराभाई / * नवाब,प्रो० डॉलरराय मांकड़, प्रो० मंजुलाल मजमुदार और लेखनकला के विषयों विद्वद्वर्य मुनिश्री ॐ पुण्यविजयीके विद्वतापूर्ण लेख भी दिया है / यह ग्रन्थस्वर्गस्थ बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़को कि उनके हीरक महोत्सव पर समर्पित किया गया था मूल्य सिर्फ 25) रु० 5. जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला मुनि जसवइ विरचित मूल्य 5) 6. श्री घंटाकरण-माणिभद्र-मंत्र-तंत्र कल्पादि संग्रह मूल्य 5) 7. श्रीजैन कल्पलता चित्र 65 मूल्य 8) 8. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति और लेखन कला मूल्य 8) र दूसरे प्रकाशनोंके लिये सूचीपत्र मंगवाइये / प्राप्तिस्थानः-साराभाई मणिलाल नवाब, नागजीभूदरनी पोल, अहमदाबाद EKRETARIE वीर प्रेस आफ इण्डिया, कनाट सर्कस न्यू देहलीमें छपा /