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________________ ५६४ १०. अनेकान्त ... [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ धूप और बारिशस बचनेकी कोशिश करते हैं और मारे कर ईट पत्थर के समान निर्जीव बन जाती है । जानेका भय होने पर दौड़-भाग कर या लड़ भिड़कर भाग्य क्या है और वह किस तरह अपने बचावका भी उपाय करते हैं । मनुष्य तो बिल्कुल ही उद्यम और पुरुषार्थका पुतला है, इस ही कारण बनता बिगड़ता है । अन्य जीवोंसे ऊँचा समझा जाता है । वह पशु-पक्षियों यह हम हर्गिज़ नहीं कहते कि अबसे पहला कोई के समान अपना खाना-पीना ढढता नहीं फिरता है, जन्म ही नहीं है या जीवोंके पहले कोई कर्म ही नहीं हैं, कुदरतसे आप ही श्राप जो पैदा हो जाय उस ही को जिनका फल इस जन्ममें न हो रहा हो या जीवोंका काफ़ी नहीं समझता है; किन्तु स्वयं सहस्रों प्रकारकी कोई भाग्य ही नहीं है । यह सब कुछ है; किन्तु खानेकी वस्तुएँ पैदा करता है, अनेक प्रकारके संयोग जितना उनका फल है, जितनी उनकी शक्ति है, उतनी मिलाकर और पका कर उनको सुस्वादु और अपनी ही मानते हैं, उनको सर्व शक्तिमान नहीं मानते, न प्रकृति के अनुकूल बनाता है, क्या खाना लाभदायक है यह मानते हैं कि सब कुछ उन ही के द्वारा होता है। और क्या हानिकारक, क्या वस्तु किस अवस्था में खानी जीवके कर्म क्या हैं, उनका बंधन जीवके साथ किस चाहिये और क्या नहीं, इन सब बातोंकी जाँच पड़ताल प्रकार होता है, उन कर्मोंकी शक्ति क्या है और उनका करता है, धूप हवा और पानीसे बचने के वास्ते कपड़े काम क्या है और भाग्य क्या है, किस तरह बनता है । बनाता है, मकान चिनता है, आग जलाता है, पंखा इन सब बातोंकी जांच करनेसे ही काम चलता है, तब हिलाता है, रातको रोशनी करता है, पानीके लिये ही कुछ पुरुषार्थ किया जा सकता है और पुरुष बना कुश्रा खोदता है या नल लगाता है, धरती खोदकर जा सकता है । हज़ारों वस्तु निकाल लाता है और उनको अपने काम अाजकलकी सायंसने यह बात तो भले प्रकार की बनाता है, अनेक पशु-पक्षियोंको पालकर उनसे भी सिद्ध कर दी है कि संसारमें जीव या अजीव रूप जो भी अपना कार्य सिद्ध करता है, और इस तरह अनेक पदार्थ हैं उनके उपादानका कभी नाश नहीं होता है प्रकारके उद्यम करते रहने में ही सारा जीवन बिताता और न नवीन उपादान पैदा ही होता है, किन्तु उनकी है । जितना जितना यह इस विषयमें उन्नति करता है पर्याय, अवस्था रूप अवश्य बदलता रहता है । लकड़ी जितना जितना यह संसारकी वस्तुओं पर काबू पाता जल कर राख, कोयला या धुंाँ बन जाती है, उसमें जाता है उतना उतना ही बड़ा गिना जाता है । जो से नाश एक परमाणुका भी नहीं होता है । पानी गर्मी भाग्य या होमहारके भरोसे बैठा रहता है वह दुख पाकर भाप बन जाता है और सर्दी पानेसे जमकर बर्फ उठाता है जिस देश या जिस जातिमें यह हवा चल बन जाता है । एक ही खेतमें तरह तरह के फलों-फलों, जाती है जो भाग्यको सर्वशक्तिमान मानकर सब कुछ तरकारियों और अनाजोंके पेड़-पौदे और बेलें लगी उस ही के द्वारा होना मान बैठते हैं वह देश या जाति हुई हैं, जंगली झाड़ियाँ और घास फूस भी तरह २ के मनष्यत्वसे गिरकर पशु समान हो जाती है दूसरोंकी उगे हुए हैं। यह सब एक ही प्रकारकी मिट्ठी-पानीसे गुलम बनकर खूटेसे बाँधी जाती है या जीवमहीन हो परवरिश पा रहे हैं और बढ़ रहे हैं । उस ही मिट्टी
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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