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________________ अनेकान्त हैदराबाद निवासी ब्रह्मनिष्ठ श्रीराम गुरु कहते हैं तु कहे छे देव, ते तुं चैतन्य स्वयमेव । बीजो देव माने ने कोई, एज बन्धन तेने होई ॥ [श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६५ भजन और निदिध्यास करने योग्य है, जिसे देखने, सुनने, समझने और अनुभव करने से सब कुछ जाना जाता है । अब प्रश्न होता है कि हम अपने आत्माका चिन्तवन किस तरहसे करें, क्योंकि न तो हमें आत्मा दिखाई ही देता है और कहते हैं कि न उसका कुछ रूप ही है ? यदि हम इस तरहसे चिन्तवन करते हैं कि 'अहं ब्रह्मास्मि' 'सोऽहम्' या 'एकोऽहं निर्मलः शुद्धो' तो हममें अहंकारका-सा समावेश होता है और श्रात्म-साधना की जगह श्रीमद्गुरु तारण तरण स्वामीजी महाराज भी अहंकारका आना ठीक "मांजर काढून टाकलें अपने 'पण्डित पूजा' नामक ग्रंथ में कहते हैं- तेथें ऊंट येऊन पड़ला" वाली मराठी कहावत होती है ५७६ अर्थात जिसको तू देव, चैतन्य, स्वयंप्रकाश आदि नाना नामों से पुकारता है, वह चैतन्यरूप देव तू स्वयं ही है। चैतन्य रूप देव तो मेरे आत्मा के सिवा कोई दूसरा ही है, ऐसा जो कोई मानता है, वह अज्ञानका बंदी होता है, ऐसा समझना चाहिये। आतम ही है देव निरंजन, भातम ही सद्गुण भाई । मातम तीर्थ धर्म प्रतम ही तीर्थ आत्म ही सुखदाई | श्रातमके पवित्र जलसे ही, करना अवगाहन सुखधाम यही एक गुरु, देव, धर्म, श्रुत और तीर्थको सतत प्रणाम । श्रीमद् परमहंस परिव्राजकाचार्य ब्रह्मनिष्ठ श्री जयेन्द्र पुरीजी महाराज मंडलेश्वर इस विषय पर अच्छा प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं "साधको ! भावना करो मैं देह नहीं हूँ, एवं इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि भी नहीं हूँ; अल्प परिच्छिन्न नहीं हूं, किन्तु सर्वान्तर्यामी साक्षी ब्रह्म ही मैं हूँ । 'अहं ब्रह्मास्मि' 'सोऽहं’'७' इस गुरु मंत्र को हर वक्त अपने सामने रखो । इस मंत्र को एक बार समझकर अलंबुद्धिमत करो। बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो। यही भगवान की असली पूजा है । “झात्मा वा अरे दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तब्यो निदि ध्यासितव्यो मैत्रेय्यात्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्याविज्ञाने नेद सर्व विदितम् । जैसा कि स्वामीजी बताते हैं "बार बार इसके असली तत्वका अनुसंधान करो" इस वाक्यांश से हमें पूर्णरूपेण प्रकट होजाता है कि 'अहं ब्रह्मास्मि या ऐसे ही दूसरे पद अहंताद्योतक नहीं है, वरन उनमें कुछ महत्वपूर्ण रहस्य छिपा हुआ है । े अर्थात हे मैत्रेयी ! आत्मा ही देखने, सुनने, अपना आत्मचिन्तवन करते समय प्रत्येक मनुष्य - हिन्दी टीका 'तारन त्रिवेणी' ग्रंथश्रेष्ठ श्री बृहदारण्यकोपनिषद्, आत्मा क्या है और उसका क्या महत्व है, इस विषय पर बड़ी सूक्ष्मता से विवेचन करता है। एक स्थल पर वह कहता है—
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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