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________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ ज्ञान भार स्वरूप है। चाँदको प्रकाशका कारण मानकर चाँदनीको अंधकार जमीन और आसमान, कलम और कागज, पेड़ का स्वरूप मानता है और सूर्यको प्रभाका अवतार और शाखा, उद्यान और वाटिका, फूल और पत्ती मानकर उसकी किरणोंको ज्योतिविहीन समझता है । कहां तक कहें सृष्टिका कोई स्थल ऐसा नहीं है जहां स्त्री यह तो हुई स्त्री पर्याय और पुरुष पर्यायकी और पुरुष शक्तियां समान रूपसे काम न करती हों। समानताकी बात । अगर मैं स्पष्ट और साफ कहूँ तो और सब जाने दीजिये अात्माका चरम और उत्कृष्ट किसी किसी जगह स्त्री पर्यायकी उत्कृष्टता और लक्ष्य कर्मोंका नाश करना है वह भी मुक्ति के रूपमें आदर्श के श्रागे पुरुष पर्याय भी कुछ नहीं है और उस स्त्री ही के विशिष्ट स्वरूपमें स्थित है। समय पुरुष पर्याय स्त्री पर्यायके साथ कभी बराबरीका __ऐसी अवस्थामें भी अगर महिलाएँ अपनी जाति दावा पेश नहीं कर सकती। वह आदर्श है 'मातृत्वका को पाप कृत्योंका फल या दैवका अभिशाप समझती हैं श्रादर्श' जो पुरुष पर्यायमें ढंढने पर भी नहीं मिल तो यह उनकी भूल है । अगर स्त्री पर्यायमें पैदा होना सकता और स्त्री पर्याय मिलने पर ही प्राप्त किया जा पाप कृत्योंका फल और अभिशाप है तो पुरुष पर्यायमें सकता है । बड़े बड़े श्राचार्य, ऋषि, मुनि, महात्माओं पैदा होना कभी पुण्य कर्मों का फल और आशीर्वाद नहीं ने मातृत्वके श्रादर्शको महान् बतलाया है । यह मातृहो सकता;क्योंकि दोनों शक्तियों एक होकर काम करती त्वका ही आदर्श है जिसने तीर्थंकरों जैसे महान् हैं और दोनों शक्तियाँ एक-दूसरी-शक्तिमें दूध और आत्माओंको जन्म दिया, बड़े बड़े अवतारोंको पृथ्वीतल पानीकी तरह मिली हुई हैं । एकका बुरा होना दूसरी पर पैदा किया, बड़े बड़े ऋषि-मुनियों के लिये अपना का बुरा होना है और एकका अच्छा होना दूसरीका सुख त्याग किया । पं० कृष्णकान्त मालवीय लिखते हैं-- अच्छा होना है । महात्मा जी लिखते हैं--"अगर स्त्रियाँ ईश्वरकी क्षुद्र-हलके हर्जेकी रचनाओंमें से हैं तो "स्त्री का सर्व श्रेष्ठ रूप माता है और सच मानो आप जो उनके गर्भसे पैदा हुए हैं अवश्य ही क्षुद्र इससे मधुर, इससे सुखकर शब्द, इससे सुन्दररूप हैं ।" मेरा खयाल है पुरुष जातिकी श्रेष्ठता, उत्तमता सृष्टि और संसार में कोई दूसरा नहीं। संसारका और आदर्शता पर मेरी बहिनोंको पूर्ण विश्वास है और समस्त त्याग, संसारका समस्त प्रेम, संसारकी सर्व उनको स्त्री पर्यायकी हीनता और अनुत्तमतासे पुरुष श्रेष्ट सेवा, संसारकी सर्व श्रेष्ट उदारता एक माता जातिका भी अनुत्तम होना कभी यांछित नहीं हो शब्दमें छिपी पड़ी है।" सकेगा । मैं उनसे प्रार्थना पूर्वक अनुरोध करूँगी कि पुरुष-पर्यायके प्रति उनका जैसा विश्वास है वे उसे एक अज्ञात महापुरुष लिखते हैं और भी मज़बूत और पक्का बनाले परन्तु साथ ही "हे माता ! तुम स्वर्गकी देवी हो, तुम मृत्यु अपनी जातिका सम्मान और इजत करना कभी न लोकमें मनुष्योंका कल्याण करनेके हेतु माताके रूपमें भूलें । वरना उनकी यह धारणा बालू पर भीत खड़ी अवतीर्ण हुई हो । सव लोग तुम्हारे अनन्त उपकारों करने के बराबर उस मनुष्यकी धारणाके समान है जो के ऋणी हैं । तुम्हारे ऋणाको कौन चुका सकता है ?
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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