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________________ भनेकान्त [पाडण, वीरनिर्वाण सं०२४६६ याज्ञिक बलिदानको चुपचाप सहन न करेगा । यह तो साहित्यमें प्रकाशित बातकी प्रतिध्वनि मात्र है क्योंकि संस्कृत के वाक्य 'अहिंसा परमोधर्मः' की व्याख्या है। इनमें के अनेक सिद्धान्त अहिंसाके प्रकाशमें पुनः मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि एक शैव विद्वान्ने समझाये गये और उन पर जोर दिया गया है । यहां उपर्युक्त पद्य का उद्धरण देकर यह सिद्ध करना चाहा केवल दो बातोंको बताना ही पर्याप्त है। यह बौद्धायन है कि ग्रंथकार वैदिक बलिदान रूप धर्मको मानने धर्मशास्त्र, चंकि परम्परागत वर्णाश्रम पर अवलम्बित है, वाले थे। परम्परागत चार जातियों और उनके कर्तव्योंका समर्थन __ शाकाहारका वर्णन करने वाले दूसरे अध्याय में करता है । धर्मकी इस व्याख्याके अनुसार कृषि कर्म ग्रन्थकार स्पष्ट शब्दोंमें कसाईके यहाँसे मांस खरीदनेके अंतिम शूद्र वर्ण के लिये ही छोड़ा गया है और इसलिये बौद्धोंके सिद्धान्तको घृणित बताता है । बौद्ध लोग, जो कृषि-कर्मसे तनिक भी सम्बन्ध रखना ऊपरकी जातियों के अहिंसा सिद्धान्तका नाम मात्रको पालन करते हैं, लिये निषिद्ध होगा । प्रत्युत् इसके कुरलके रचयिताने इस बातसे अपने आपको यह कहते हुए संतुष्ट करते व्यवसायोंमें कृषिको आद्य स्थान प्रायः इसलिये दिया हैं, कि उन्हें अपने हाथोंसे प्राणि बध नहीं करना है कि वह बेलालों अथवा वहाँके कृषकोंमेंसे एक है । चाहिये, किंतु वे माँस विक्रय-स्थलसे माँस खरीद सकते क्योंकि उसका कथन है-सर्वोत्कृष्ट जीविका कृषि-कर्म हैं । कुदरत के रचयिता इस बातको स्पष्टतया बताते हैं विषयक है, अन्य प्रकारके सब जीवनोपाय परावलम्बी कि कसाई के व्यवसायकी वृद्धिका कारण केवल माँस हैं, और इससे वे कृषि कर्मके बादमें पाते हैं । यह बात की माँग है । कसाईका स्वार्थ केवल पैसा कमाना है संस्कृत के धर्मशास्त्रसे ली गई है, ऐसा कहना किसी और इसलिये वह विशेष व्यवसायको करता है, जो तरह भी गले नहीं उतर सकता। धर्मशास्त्रोंमें कथित मांग और खपतके सिद्धान्त पर स्थित है । इसलिए एक बात और मनोरंजक है । वह है गृहस्थोंके द्वारा भोजनके निमित्त प्राणी-हिंसाका दायित्व प्रधानतया अतिथियोंके सत्कारके सम्बन्धमें। इस प्रकारके अतिथि तुम्हारे ही ऊपर है, न कि कसाई पर । जब कि वैदिक सत्कारमें स्थल गोवत्स के वधकी बात सदा विद्यमान रहती धर्म-विहित बलिदान और अहिंसा सिद्धान्तका सुलभ है। बौद्धायनके धर्मशास्त्रमें ऐसे जानवरोंकी सूची दी भाव बने माँसाहारके करनेकी बौद्धोंकी प्रवृत्तिका यहाँ गई है, जिनका वध अतिथि सत्कारके निमित्त किया स्पष्टतया निराकरण है, तब अपनयन अथवा पारिशैष्य जाना चाहिये । जो लोग वैदिक विधिको धर्म स्वीकार पद्धति के अनुसार यह स्पष्ट है कि ग्रंथमें निरूपित करते हैं, वे इस बात पर दृढ़ विश्वास करते हैं, कि यह सिद्धान्तसे समता रखने वाला जैनियोंका अहिंसा कार्य धर्मका मुख्य अंग है, और उसका पालन न करने सिद्धान्त ही है । एक विद्यमान् विख्यात् तामिल विद्वान से अतिथियों द्वारा शाप प्राप्त होता है । इस सम्बन्धमें का कथन है, कि यह ग्रंथ बौद्धायनके धर्मशास्त्रका शुद्ध कुरलके अध्यायको पढ़ने वाले प्रत्येक पाठकको निश्चय अनुवाद है । यद्यपि इस ग्रंथमें संस्कृत शब्दोंकी बहुलता होगा, कि हिंदुओंके धर्मशास्त्रोंमें कथित बातसे यहां है, और परंपरागत कुछ सिद्धान्तोंका वर्णन है, फिर धर्मका अर्थ बिल्कुल भिन्न है । इससे हमें इस कथनका भी यह निश्चय करना सत्य नहीं है कि यह संस्कृत परित्याग करना पड़ता है कि यह ग्रंथ तामिलज जनताके
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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