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________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ स्वभाव ऐसा खराब हो जाता है कि उम्रभर सुधरना स्वभावोंका पुतला बन जाता है उनही अपने स्वभावोंको मुश्किल हो जाता है । खोटी संगत का भी बड़ा असर साथ लेकर वह मरता है और उनही को साथ लेकर वह होता है । जिस स्त्री को वेश्या बनकर कुशील जीवन दूसरा जन्म लेता है । यही उसका कर्मवंधन, स्वभावका बिताना पड़ता है, निर्लज्जता और मायाचार उसका ढाँचा या भाग्य है. जो वह अपने आन्तरिक भावों या स्वभाव हो जाता है । कसाई और डाकू निर्दय हो जाते नीयतोंके अनुसार सदा ही बनता रहता है । हैं। पुलिस और फौजके सिपाही भी कठोर हृदय बन आज जो कपड़ा हमने पहना है, वह पाँच चार जाते हैं । जिनकी झठी प्रशंसा होती रहती है उसको दिनके बाद मैला दिखाई देने लगता है । परन्तु क्या अपने दोष भी गुण ही दिखाई देने लगते हैं, नसीहतसे वह उसी दिन मैला हुआ है जिस दिन मैला दिखाई उसको चिड़ हो जाती है, यहाँ तक कि उसके दोष देता है. ? नहीं, मैला तो वह उस दिन ही समयसे होना बताने वालों को वह अपना बैरी समझने लग जाता है। शुरू हो गया था जबसे उसको पहनने लगे थे, परन्तु ऐसा ही और भी सब बातोंकी बाबत समझ लेना शुरू २ में उसका मैलापन इतना कमती था कि दिखाई चाहिये। नहीं देता था, होते २ जब वह मैलापन बढ़ गया, तब इस प्रकार इस जन्ममें बने हुए हमारे स्वभावसे इस दखाई भी देने लग गया । ऐसे ही प्रत्येक समय जैसे २ जन्म में भी हमको सुख दुख मिलता है और अगले भाव जीवात्माके होते हैं; बुरी या भली जैसी नीयत जन्ममें भी । मरने पर दुनियाकी कोई चीज़, जीव या उसकी होती रहती है, वैसा ही रंग उस जीवात्मा पर अजीव, हमारे साथ नहीं जाती है । इस जन्मके हमारे चढ़ता रहता है । उसकी आदत या स्वभाव बनता सुख-दुख के सब सामान यहीं रह जाते हैं, अपनी जानमें रहता है। भी ज्यादा प्यारे स्त्री, पुत्र, इष्टमित्र और धन-सम्पत्ति सब यहीं रह जाती है, यहां तक कि हमारा शरीर भी नापाका अपारसुवारा जा सकता है भाग्य किस प्रकार सुधारा जा सकता है जिससे कि हमारा जीव बिल्कुलही एकमेक हो रहा था अपने ही हाथों डाली इन आदतों या संस्कारों का यहीं रह जाता है । इसी कारण हमारे इस शरीर में जो बिल्कुल ही ऐसा हाल होता है जैसा कि नशा पीकर आदतें पड़ गई थीं, जिनको हम अपनी ही आदतें माना पागल हुए मनुष्यका हो जाता है, वह सर्व प्रकारकी करते थे, वे आदतें भी शरीरके साथ यहीं रह जाती हैं। उलटी-पुलटी. क्रिया करता है, बेहूदा बकता है और यही नहीं बल्कि जो जो याददास्त हमारे दिमाग़में हानि लाभ का खयाल भूल जाता है । परन्तु चाहे इकट्ठी होती रहती थीं, वे भी दिमाग़के साथ यहीं कितना ही तेज़ नशा किया हो तो भी कुछ न कुछ ज्ञान समाप्त हो जाती हैं । परन्तु मान माया, लोभ-क्रोधादिक उसमें बाकी-जरूर रहता है तब ही तो कोई भारी खौफ तरंगे जो हमारी अन्तरात्मामें उठती रहती हैं, हमारी सामने आने पर सारा नशा उतर जाता है और भयभीत अन्तरात्मामें उनका संस्कार या आदत पड़कर, हमारी होकर अपने बचाव का उपाय करने लगता है । किसी अन्तरात्मामें उनका बंधन होकर मरने पर भी वे हमारे बड़े हाकिम आदिके सामने आ जाने पर भी नशा दूर साथ जाती हैं । यह हमारा जीवात्मा जिस प्रकारके हो जाता है । और होशकी बातें करने लग जाता है। .
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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