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अनेकान्स
प्राचीन भारतकी धर्म-समवृत्ति
इस सन्दर्भमें सुसंगत एक बात और कहना है । इस भारत भूमि पर पीछे के सभी नरेश तथा अन्य भी अपने राज्यमें अथवा अन्यत्र सभी जगह विद्यमान अन्य सब धर्मोको तथा अन्य धर्मानुयायियों को अपने धर्म के समान, समानदृष्टि से पुरस्कृत करते थे । इतना ही नहीं, किन्तु उन लोगों के मठ-मंदिरादि बनवाकर दान देते थे, इस बात को दिखलाने वाले इतिहासमें बहुतसे प्रमाण हैं, उनमें से दृष्टान्तरूपमें कुछ यहाँ दिये जाते हैं। १. मौर्य सम्राट अशोक ( ई० स० पूर्व २७४–२३६) बौद्धधर्म स्वीकार करके बौद्ध यह बात ऐतिहासिक लोग जानते हैं, तो भी उसने काश्मीर देश में सनातन धर्मका देव मंदिर बनवाकर जीद्धार करवाया था, यह बात 'कल्हण' की 'राजतरंगिणी' से मालूम पड़ती हैअथावहदशोकाख्यः सत्यसन्धो वसुन्धराम् ॥१, १०१॥ जीर्णं श्रीविजयेशस्य विनिवार्य सुधामयं । निष्कलूषेणाश्ममयः प्राकारो येन कारितः ॥ १, १०५ ॥ सभायां विजयेशस्य समीपे च विनिर्ममे । शान्तावसादः प्रसादावशोकेश्वरसंचितौ ॥ १, १०६ ॥
हुआ,
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२. जैनधर्मानुयायी कलिंगदेशका राजा महामेघवाहन खारवेल ( ई० स० पू० सु० १६९ ) सनातन, बौद्ध, जैनधर्मी साधुओं को समानदृष्टि तथा गुरुभक्ति सत्कार करता था तथा अपने राज्य में अन्यान्य धर्मोकी भी बिना भेद भावके रक्षा किया करता था, यह बात 'उदयगिरि' के एक
+ यह 'उदयगिरि' घडू देश ( Orissa ) के 'कटक' (Cuttack) नगरसे १६ मील दूर पर है।
[ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६
शासन से
मालूम पड़ती है।
३. गुप्तवंशीय नरेश 'समुद्रगुप्त' (ई० स० ३३०–३७५) स्वतः वैष्णव होते हुए भी, अपने धर्म के समान बौद्ध तथा जैनधर्मियों पर भी विशेष प्रेम रखता था; और उसे बौद्धमती 'वसुबन्धु' नाम के व्यक्ति पर विशेष आदर था; तो भी वह अपना स्वधर्म छोड़ कर बौद्ध नहीं हुआ । सिंहल देशके नरेश मेघवर्णने अपने देशसे इसके राज्य में स्थित बुद्धगया की तरफ जानेवाले यात्रियों के हितार्थ वहाँ स्वयं एक विहार बनाने के लिये इससे अनुमति चाही तो इसने उसे दिया, ऐसा मालूम पड़ता है।
४. चालुक्यान्वयका सत्याश्रय नामके दूसरे पुलिकेशीने अपने परमाप्त 'रविकीर्ति' नामके ('सत्याश्रयस्य परमात्मवता ••'रविकीर्तिना' दिगम्बर शाखाके ( और बहुशः 'नंदि' संघ) जैनपंडितको स्वयं बनवाकर दिये हुये जिनालय में उस रविकीर्ति द्वारा रचित और उत्कीर्ण शिलालेख ( ई० सन् ६३४ ) जिनस्तुतिसंबन्धी पद्योंसे आरंभ होते हुये भी, उस पुलिकेशीके अन्य सभी लेख विष्णु स्तुति-सम्बन्धी पद्योंसे ही प्रारंभ होते हैं, इतना ही नहीं
Men and thought in ancient India, pp. 157-159.
इस समुद्रगुप्त का ध्वज गरुडध्वज था; इसके ऊपर दिये हुए नृपतुंग के शासन में उसने अपनेको 'गरुडलांघन' कहा है, यह बात ध्यान में लाना चाहिये ।
+ उदा० - (१) यह शक सं०५३२ ( ई०स०६१०) का एक ताम्रपत्र के आरंभ में वराहरूपी विष्णु की स्तुति
जयति जलदवृन्दश्यामनीलोत्पल्लभः ।