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वर्ष ३, किरण १० ]
वह विष्णुभक्त ही था और जैनधर्मावलम्बी नहीं हुआ यह बात इतिहास से मालूम पड़ती है ।
५. गुर्जर देशका नरेश सिद्धराज श्वेताम्बर जैनयति हेमचन्द्रसूरि पर विशेष श्रद्धा रखता था ( ई० स० १०८७ – ११७१ ) । उसने अपनेको सन्तान न होनेकी चितासे हिंदू और जैनधर्मकं पवित्र क्षेत्रोंकी यात्रा उस हेमचन्द्र के साथ करने पर भी, स्वधर्मका – सनातनधर्मका - त्याग नहीं किया । उसे हेमचंद्र गुरुके समान था । उसके साथ हेमचंद्रने सोमेश्वर शिवक्षेत्र की यात्रा करते वक्त, स्वयं जैन होते हुये भी, परधर्म पर विरोध नहीं करते हुए वहाँ शिवलिंगका स्तवन किया, यह बात प्रद्युम्नसूरिकृत 'प्रभावकचरित्र' ( ई०स० १२७७) * में है । उस सिद्धराज के पश्चात्
नपतु गका मत विचार
धरणिधरनिरोधात्स्विन वक्त्रोवराहः ॥
(२) ई० स० १४१ ( जनवरी ३१) के शासन में (E. C. X. गोरिबिदनूरु नं०४८ ) इसने संगमतीर्थ में माघशु० ॥ पौर्णिमा चन्द्रग्रहण दिन स्नान करके 'पेरिमाल' नामके ग्रामको सहिरयय सोदक- पूर्वक ब्राह्मणोंको दान दिया लिखा है ।
(३) इसके और एक ताम्रपत्रका ( प्रा० ले० मा० नं० १११) प्रथम श्लोक इस प्रकार है :जयति जगतां विधातुविविक्रमाक्रान्तसकलभुवनस्य । नखांशुटिलं पदं विष्णोः ॥
* सूरिश्व तुष्टुवे तत्र परमात्मस्वरूपतः । नमाम चाविरीधोहि मुक्तेः परमकारणम् ॥३४६ ॥ यत्र तत्र समये यथा तथा । योसिसोत्यभिधया यथा तथा ।
वीतदोष कलुषः सचेद्भवा । नेक एव भगवन्नमोस्तु ते ॥ ३४७ ॥
(प्रभावकारित पृ०३१७)
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गद्दी पर आये हुए कुमारपाल ( ई० सन् ११४१११५१ ) ने जन्मत: शैवधर्मी रहकर, अन्तमें हेमचन्द्र से जैनधर्म स्वीकार किया; परन्तु पश्चात् भी शिवभक्तिको भूला नहीं, यह बात श्वेताम्बर जैनयति जयसिंह सूरिसे रचित ( ई० सन् १२३०) 'वस्तुपाल तेजःपाल प्रशस्ति' से मालूम पड़ती है . इत्यादि ।
अतएव जो कोई नरेश ( अथवा अन्य कोई ) स्वधर्मी के सिवाय परधर्म के यतियों या अन्य साधुओं ( अथवा कवियों ) की श्रेष्ठ विभूति पर आकर्षित होकर, उसे गुरुभावसे सत्कार करता है तो उससे वह अन्यमतीका शिष्य हुआ, या उसके उपदेशसे उसने स्वधर्म त्यागकर उसका मत स्वीकार किया इस प्रकार मान लेना कदापि ठीक नहीं; पर प्रबल और समर्थक अन्य ऐतिहासिक स्वतंत्राधार हों तो बिना संदेहके स्वीकार कर सकते हैं, क्योंकि गुर्जर कुमारपाल हेमचन्द्रके उपदेशसे जैनी हुआ था यह बात हेमचंद्र के ग्रंथों से " कुमारपालश्चालुक्यो राजर्षिः परमाईत:" - हेमचन्द्र के 'अभिधान चितामणि' (श्लोक ७१२ ) से अन्य समकालीन और ईषत्कालान्तरके ग्रंथोंसे साधारण प्रमाण मिलने पर उस इतिहास- तथ्यको कौन नहीं स्वोकार सकता ?
(श्रागामी किरण समाप्त)
* धर्मापातिस्म कुमारपालनृपति जैनं धर्ममुरीचकार..........
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'गुरूचक्रे स्मरध्वंसिनम् ॥ २३॥ Gaekwad's Oriental Series. -No. X 'हम्मीरमदमर्दन' पृ० ६० )