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________________ १८६ अनेकान्त कालेगते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेला चार्थो बभूव सिद्धान्ततत्वज्ञः ॥ १७६ ॥ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारनष्टं लिलेख ॥ १७७ ॥ वीरसेनका शिष्य जिनसेन था और वीरसेन का विनयसेन नामक बड़ा शिष्य भी था, यह बात जिनसेनके ग्रन्थोंसे पाई जाती है श्रीवीरसेन मुनिपादपयोजभृगः । श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् ॥ तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण । काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ पार्श्वभ्युदय ४,७१ इस : गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' की प्रशस्ति में परंपरा के सम्बन्धमें इस प्रकार कथन है। वीरसेनाग्रणी वीरसेनभट्टारको बभौ ॥ ४ मुनिरनुजिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ॥ ६ ॥ दशरथगुरूराक्षी तस्य धीमान् सधर्मा ॥ १३ ॥ शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयो † रासीज्जगद्विश्रुतः ॥ १५॥ देवसेनाचार्य ने अपने 'दर्शनसार' ( ई० स० ९३४ ) में इस प्रकार कहा है: सिरिवीरले सिस्सो जिण सेणो सयलसत्थविराणी ॥३० तस्य सिस्सो गुणवं गुणमहो दिव्वणाणपरिपुरणो ॥ ३१ ये वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र दिगम्बर जैन + जै० सि० भा० १ पृ० २७ 'अनयोः ' 'इन दोनोंका अर्थात् जिनसेन और दशरथ दोनोंका शिष्य । * संस्कृत छाया श्री वीरसेनशिष्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी ॥३०॥ तस्य च शिष्यो गुरवान् गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः ॥३१ [ श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६ धर्म के मूल संघ के + 'सेन' संघ वाले थे, इतना ही मालूम पड़ता है; पर कौनसे 'गण' के और कौन से 'गच्छ' वाले थे सो मालूम नहीं पड़ता । ये बहुशः 'देशीगरण' के होने चाहियें । ये 'पुन्नाट' गण वाले नहीं हैं, इस सम्बन्ध में जैन विद्वानों में अभिन्न विश्वास है ! 'पुन्नाट' इस नामका गरण भी 'सेन' संघकी एक शाखा है। इसी सेन संघ के पुन्नाटराण के दूसरे 'जिनसेन' ने संस्कृत में करीब ११००० श्लोक परिमित जैन 'हरिवंश' की रचना की है । उसे उसने शक सं० ७०५ ( ई० सन ७८३) में लिख नरेश श्रीकृष्णराजका पुत्र श्रीवल्लभ नामका कर पूर्ण किया है । उस समय राष्ट्रकूटवंशका दूसरा गोविन्द गद्दी पर था, यह बात उसकी प्रशस्तिके निम्न पद्य से पाई जाती है शाकेयब्दशतेषु सप्तसुदिशां पंचोत्तरे षूत्तराम् । पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्रींवा भेदक्षिणाम् ॥१३॥ . इस हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेनने अपने ग्रन्थके मंगलाचरण + में वीरसेन, जिनसेना - चाकी इस प्रकार प्रशंसा की है : + इस मूलसंघकी शाखा इत्पादिके संबन्ध में श्रवणबेलगुलके बहुत से शासन में उल्लेख हैं । (E. C. Vol. II) + वि० २० मा० पृ० ८ * जै. सि. भा. १, २ - ३ पृ. ७३ ( 'पवित्र पुंनाटगणाग्रणी गुणी' ) जै. सि. भा. १, २ ३. पृ० ७४ + जै. सि. भा. १, २-३ ० ६०
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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