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________________ २६८ अनेकान्त भड़क पैदा हो उस ही के अनुसार करने लग जाते हैं, आगे पीछेकी कुछ सोच नहीं करते, नतीजेका कुछ भी खयाल नहीं करते । बेधड़क सब कुछ पाप करते हुए उसकी सब ज़िम्मेदारी दैव या भाग्य के ही सिर धरते रहते हैं । अपनेको तो निर्दोष मानते रहते हैं परन्तु दूसरे लोग छोटेसे छोटा भी जो दोष करै उसका दोषी उन ही को ठहराते हैं । दूसरोंके दोषोंका जिक्र कर करके उनकी बुराई खूब करते हैं श्रौर बनते रहते हैं । जिस प्रकार नशेकी तरंगमें नशेबाज या पागल अपने पागलपन में अपनेको सारी दुनियाका राजा समझ बैठता है, हानि-लाभ समझाने वालेको मारने दौड़ता है, इस ही प्रकार ये भाग्यको सब कुछ मानने वाले भी अपनेको सबसे बड़ा समझने लगते हैं और दूसरोंको अपने से घटिया मानकर अपनी बड़ाई गाने और दूसरों को घटिया बतानेमें ही असीम आनन्द मानने लग जाते हैं । यह ही एक मात्र उनके जीवनका आधार हो जाता । इस कारण जिस प्रकार नशेबाज़ नशेकी तरंगमें श्रापसमें एक दूसरे पर हकूमत जताते हुए, आपस में खूब लड़ते हैं और जूतमपैजार होते हैं, इस ही प्रकार ये भाग्य पर ही निर्भर रहने वाले भीश्रापसमें एक दूसरे पर हकूमत जताकर और आपस में लड़ भिड़कर ही अपना जी खुशकर लेते हैं । किन्तु जिस प्रकार नशियाला या पागल किसी होश वालेको देखकर अव्बलतो गीदड़ भभकी दिखाता है, किन्तु होश वालेकी तरफ से जरा भी सख्ती होने पर तुरन्त ही उसके श्राधीन हो जाता है और गुलाम बन जाता है, इस ही प्रकार भाग्य पर निर्भर रहने वाले भी बड़े बननेका दावा कर करके आपसमें तो खूब लड़ते हैं, किन्तु ग़ैरकी शकल देखते X [ श्रावण. वीर निर्वाण सं० २४६६ ही डरकर अपना खोटा भाग्य श्रीया समझकर चुपकेसे उसके गुलाम बन जाते हैं। - हमारा ज़रूरो कर्तव्य हमको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और बुद्धि लड़ाकर जांच लेना चाहिये कि हमारे संबंध में तीन शक्तियां काम कर रही हैं, एक तो हमारे पहले कर्म या हमारी आत्मा के पहले भाव, जिनसे अब तक बुरा भला हमारी श्रादतें या स्वभाव बनता रहा है; जो मरने पर भी हमारे साथ जाता है और कर्मबन्धन या हमारे स्वभावका ढाँचा, या भाग्य कहलाता है । दूसरे हमारी श्रात्माकी असली ताक़त जो हमारे इन कर्मों या स्वभाव या भाग्य के द्वारा नष्ट होने से बच रही है । तीसरे संसार भरके सब ही जीव और जीव जो अपने २ स्वभावके अनुसार इस ही संसार में काम करते हैं, इस कारण उनसे हमारी मुठभेड़ होना लाज़मी और जरूरी ही है । इस कारण हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने उस श्रात्मिक ज्ञानके द्वारा जो हमारे कर्मोंने नष्ट नहीं कर दिया है हम अपने संचित कर्मों पर या स्वभावके ढाँचे वा भाग्य पर भी काबू रखें, उसको अपनी बुद्धि के अनुसार ही चलाते रहें और संसार के जीव जीव पदार्थोंसे तो मुठभेड़ होती रहती है या हो सकती है उन पर भी पूरी २ दृष्टि रखें । उनमें अपने प्रतिकूलको मिलाते रहने की और प्रतिकूल से बचते रहने की कोशिश करते रहें । यही पुरुषार्थं है जिसकी मनुष्यको हर वक्त जरूरत है । इस ज़रूरी पुरुषार्थ के बिना तो मनुष्य मनुष्य ही नहीं है किन्तु, एक निर्जीव घासका तिनका है जो बेइख्तियार नदीमें बहा चला जाता है । 1
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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