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________________ वर्ष ३ किरण १० ] (४) सजयति जगदुत्सव प्रवेश प्रथनपरः करपल्लो मुरारेः । लसदस्मृतपयः कणाकं लक्ष्मीस्तन कलशानन लब्धसनिवेशः । जयति च गिरिजाकपोल बिम्बा नृपतु का मत विचार दधिगतपक्षविचित्रिता स भित्तिः । त्रिपुरविजयिनः प्रियोपरोधादुद्धृतमदनाभयदान शासनेव ॐ ॥ (५) नमस्तुंगशिरश्चुंबिचन्द्रचामरचारने । त्रैलोक्य नगरारम्भमूलस्तम्भाय शंभवे ॥ इत्यादि इनके अनेक शासनोंमें किसी प्रकारके देवता स्तुति सम्बन्धी अथवा अन्य शिरोलेख के बिना 'स्वस्ति' ऐसा वचन ही आरम्भ में रहकर † उसके पीछे ही लेख लिखा गया है, परन्तु इनका कोई भी लेख तथा शासन जिन स्तुति-सम्बन्धी शिरो लेखसे युक्त नहीं है । इसके पश्चात् दिया जाने वाला नृपतुंगका शासन भी 'मवोव्यान' ऐसी हरिहर स्तुति से ही प्रारम्भ होता है । इनके शासनों में तथा ताम्र पत्रों में भी बनाए हुए चिन्ह इस प्रकार हैं - ( १ ) शिव की मूर्ति (I. A. p. 156); पद्मासन से युक्तमपको पकड़े हुए शिव (1. A. pp. 179,263) ; शिवलिंग और नन्दि(I. A.pp. 22, 224, 255, 270 ); इत्यादि । इनमें पद्म मनसे युक्त और हाथसे सर्पोंको उठाए हुए शिवमूर्ति राष्ट्रकूट शासनों में रूढिगत लांछन है, इस प्रकार विद्वानोंका अभिप्राय है ( I. A. P. 179 ) । * प्रा० ले० मा० नं० १३३, १५६ + चित्रदुर्ग नं० ७१ (E.C. XI). 1 ऐसा Epigraphia Carnatica लेखमाला इत्यादिके अनेक भागों में है और I. A. pp. 221, 222, 223, 224 इत्यादि । इनमें से बहुत से नरेशोंने जिनालयोंको दान भी दिया है, पर इससे इतना ही जाहिर होता है कि वे सब धर्मोंको समान दृष्टिसे देखते थे । इससे वे जैनधर्मी थे, यह बात कही नहीं जा सकती । क्योंकि इनमें तीसरे गोविन्दने 'अशेष गंगमंडलाधिराज श्रीचाकिराज' की विज्ञापनाके अनुसार ई० सन् ८१३ में एक जिनेन्द्र भवनको दान दिया है, यह बात एक शासन परसे दिखाई देती है । ( I . A. pp. 13-16 ) उसी नरेशने ई०. सन् ८०९ में वेदवेदांगनिष्णात ब्राह्मणको एक ग्राम दान दिया है, यह बात उसके एक ताम्रपत्र में है । (Mythic Society's Journal, Vol. XIv. No. 2, P. 88 ); और इसी ताम्रपत्रका शिरोलेख हरिहर - स्तुति सम्बन्धी ('सवोव्यात्' ऐसा ) श्लोक तथा इसीकी मुद्राका चित्र शिवकी मूर्ति मालूम पड़ता 1 १८३ अब नृपतुंग के समय के एक शिलालेख (I.A Opp. 218 219) का परिशीलन कीजिये- स्वस्ति ॥ सवोन्याद्वेधसा धाम यन्नाभिकमलंकृतम् । हरश्च यस्य कांतेदुकलया कमलंकृतम् 11 ******************** लब्धप्रतिष्टमचिराय कलि सुदूर मुत्सार्य शुद्धचरितैर्धरणीतलस्य ॥ कृत्वा पुनः कृतयुगक्रियमप्यशेषं । चित्रं कथं निरुपमः कलिवस्लमो भूत् ॥ * यह 'निरुपम कलिवल्लभ' याने नृपतुरंगका पितामह पहिला ध्रुव ( धोर ) नामका 1
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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