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________________ अनेकान्त [श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६६ और दिन रात उसीकी सेवा-शुश्रुषा किया करते मुझे कैसे गृहोंमें उत्पन्न किया है ! मैं स्वगके हैं। इससे हमारे आत्माको मिथ्यात्वका बंध होता उद्यानका पक्षी हूँ ! मैं अपने वियोगका हाल क्या है और यही मिथ्यात्व उसे अपना स्वरूप जानने बताऊँ कि मैं इस मृत्युलोकके जालमें कैसे आ देनेमें प्रतिपल बाधक होता रहता है । एक तो हुई. . फँसा !!) यह बात, दूसरे हमारा आत्मा, जो स्फटिक मणि जैसे ही हमारा यह आत्मा अपनी आत्मके समान शुभ और स्वर्गकी नदीके जलके समान निधिकी सुध पाकर, धातुभेदीके सदृश प्रशस्त पवित्र है, अनादि कर्म मलसे मलिन और उसके ध्यानाग्निके बलसे"मैं ही ब्रह्म हूँ मैं ही शुद्ध बुद्ध मोटे पटलसे इस तरह आच्छादित हो रहा है कि मुक्तस्वभाव, प्रकृत, अदृश्य, सर्वान्तवर्ती, अद्वितीय उसके दर्पणमें हमें अपना स्वरूप बिल्कुल भी आनन्दसागर, निराकार और निर्विकल्प परमात्मा नहीं दिखाई देता है, वरना, जो परमात्मा है वही हूँ," इस तरह के ध्यानमें आरूढ़ हो जायेगा, हम हैं और जो हम हैं, वही परमात्मा है । परमा- हमारे समस्त कर्म मल क्षय हो जायेंगे, हमारी स्मा ज्ञानका भंडार है; हम भी अतुल ज्ञानके सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियाँ सर्वतोभावसे विकसित समुद्र हैं, परमात्मा शक्तिका खजाना है, हम भी हो जायेंगी और तैसे ही हम स्वच्छ तथा निर्मल असीम वीर्यके निधान हैं, अजर, अमर, अवि- स्थितिको प्राप्तकर परमानन्द परमात्मा हो जायेंगे। नाशी है, हम भी जरा, जन्म और मरण रहित शुद्ध बुद्ध परमात्मा हैं, पर इतना होने पर भी हम ध्यानाजिनेश- भवतो भविनः षणेन, कुछ नहीं हैं और अगर हैं भी तो एक जघन्यतम देहं विहाय परमात्मदशी व्रजन्ति । श्रेणी के बहिरात्मा । ख्वाजा हाफ़िज़ कहते हैं- तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके, फाश भी गोयमो अज़ गुफ़्त-ए-खुद दिन शादम । __ चामीकरस्व मचिरादिव धातुभेदाः । बंदा-ए-इश्क मो आज हर को जहां आज़ादम ॥ -श्रीमद्कुमुदचन्द्राचार्य कौकबे-बस्त मरा हेच मुनज्जिम न शिनाख्त । आत्माके स्वरूपका चिन्तवन ही परमात्माका या रब ! अज़ मादरे-गेती बचेः ताला जादम ॥ एकमात्र जगतप्रसिद्ध आराधन है । श्रीपज्यपाद तापरे-गुलशने-कुसुम चे दिहम शहें फिराक । स्वामी 'समाधितंत्रमें कहते हैंकिं दरी दामे-गहे-हादसा यूँ उफ्तादम ॥ सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्ति मितेनान्तरात्मना । (मैं खुल्लमखुल्ला कहता हूँ और अपने इस यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्वं परमात्मनः । कथनसे प्रसन्न हूँ कि मैं इश्क का बन्दा हूँ और - "सर्व इन्द्रियोंको अपने अपने विषयोंमें जाते साथ ही लोक और परलोक दोनोंके बंधनोंसे हुए रोक कर स्थिरीभत मनसे क्षणमात्र भी अनुमुक्त हूँ। मेरी जन्मपत्रीके ग्रहोंका फल कोई भी भव करने वाले के जो स्वरूप झलकता है, सो ही ज्योतिषी न बता सका । हे ईश्वर ! सृष्टि माताने परमात्माका स्वरूप है।" इससे पता चलता है
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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