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________________ २६२ अनेकान्स और यह सर्गविभाग भी कथावस्तु में दिखाई देने वाले समन्वयके आवश्यकीय परिच्छेदोंके अनुकूल न रह कर 'मेघदूत' से समस्यापूर्ति के लिये लिया गया पाद...... ठीक न रह कर कृत्रिम रूपसे किया गया मालूम पड़ता है। । इससे जिनसेन ने यह सर्ग-विभाग नहीं किया किन्तु उससे उपरान्त के किसीने किया मालूम पड़ता है । इसके सिवाय अनर्गल रूपसे बहने वाले ( ३६४ पद्योंसें युक्त ) इस छोटेसे कथानक में सर्ग विभक्ति की आवश्यकता क्यों हुई सो मालूम नहीं पड़ता । २. किसी काव्यमें अनेक सर्ग हों तो उन सर्गों के अन्त में दिये हुए गद्य में उस सर्ग में वर्णित विषय को सूचना देने रूपसे कहने का रिवाज है, अथवा उन सर्वोको कविने अन्यान्य नाम न दिया हो तो अपने काव्यमें अमुक सर्ग समाप्त हुआ कहने का रिवाज है । पर तमाम सगँका नाम एक रखनेका रिवाज कहीं है क्या ? इस काव्य के प्रत्येक सर्गके अन्त में उस सर्गको 'भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम' कहा है । अपने 'आदिपुराण' के प्रत्येक सर्गमें उसकी वर्णनानुकूल पृथक् पृथक् समंजस नाम दिया हुआ होने से महाकवि जिनसेन द्वारा सिर्फ 'पाश्वभ्युदय में इस प्रकारका दृष्टिदोष (Oversight) हो जाने की सम्भावना [श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६ नहीं है । अथवा इस 'पार्श्वभ्युदय को ही कंवल'भगवत्कैवल्यवर्णनं' नामांतर (इसके विषयानुसार) दिया होगा तो सन्तिम गद्य में - "पाश्वभ्युदये भगवत्कैवल्यवर्णना प्रथमः, द्वितियः, इत्यादि) सगः” रहना चाहिये, जैसे है वैसे रहने का क्या कारण है ? इससे यह मालूम होता है कि प्रत्येक सर्गका अन्तिम गद्य जिनसेनका लिखा हुआ नहीं, और किसीका लिखा होगा । † (उदा० - दूसरे सर्गके आदिमें 'इतः पादवेष्टि - तानि', तीसरे सर्गके आदि में 'इतोर्धवेष्टितानि', चौथे सर्गके श्रारंभ में 'इतः पादवेष्टितानि' इस प्रकार सूचना है । अतएव इस काव्यको सर्गरूपसे उसने ही विभा जित किया या व्याख्याता ने किया ऐसा मालूम पड़ता है। ३. इस 'पाश्वभ्युदय' के ऊपर योगिराट् पंडिताचार्यने व्याख्या लिखी है । इसने ई० सन् १३९९ में रचे हुए 'नानार्थमाला' कोषका उल्लेख अपनी व्याख्या में कई जगह पर किया है, इससे यह जिनसेनसे करीब ५५०-६०० वर्षोंसे पीछेका व्यक्ति टीकाकार बहुत पीछे हुआ मालूम पड़ता है; याने - मालूम पड़ता है । इसने अपनी व्याख्या के प्रति सर्ग अन्तिम स्थानमें अन्य व्याख्याताकी तरह व्याख्या जिस पर लिखी गई हैं उस काव्य के तथा व्याख्या के नाम के साथ साथ-' इत्यमोघवर्षपरमेश्वर परमगुरुश्री जिनसेनाचार्यविरचितमेघदूत केष्टितवेष्टिते पार्श्वभ्युदये तदूव्याख्यायां च सुवोधिन्याख्यायां भगवत्कैवल्यवर्णनं नाम प्रथमः ( द्वितीयः तृतीयः, चतुर्थः सर्गः ) इस प्रकार दिया है । इसमें 'पार्श्वभ्युदय' और 'भगवत्कैवल्यवर्णनं' के बीच में इसने अपनी व्याख्या का नाम भी कहा है, अतः वह 'भगवतूकैवल्यवर्णन ' बिशेषवाचिको ( उस काव्यका नाम तथा सर्गका नाम ) इसने ही जोड़ा होगा, ऐसा व्यक्त होता है, वैसे ही अपनी व्याख्या के अन्तिम गद्यमें अनावश्यक 'अमोघवर्षं परमेश्रपरमगुरू जिनसेनाचार्य' इस प्रकार पुनरुक्तिदोषका भी खयाल नहीं करके जोर जोर से
SR No.527164
Book TitleAnekant 1940 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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