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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं०२४६३
जैनाचार्योंकी कृति हैं जो तामिलदेशमें बस गए थे। किया है कि दक्षिण पाटलीपुत्रमें द्राविड़ संघके प्रमुख
कुरल-तामिल भाषी जनतामें प्रचारकी दृष्टि से श्री कुंदकुंदाचार्य थे । विचार करने पर 'कुरल' नामका नीतिग्रंथ तामिल अपना निर्णय प्राप्त करने के लिए हमें केवल इस साहित्य में, सबसे अधिक प्रधान है । इसकी रचना जिस परंपराका ही अवलंबन नहीं करना है। अपनी धारणा छंदमें की गई है, वह 'कुरलवेण बो' के नामसे प्रसिद्ध के प्रमाणमें हमारे पास समुचित अंतरंग तथा परिस्थिति है और तामिल साहित्यका खास छन्द है । 'कुरल' जन्य साक्षी (Circumstantial evidence) शब्दका अर्थ दोहाविशेष ( Short ) है, जो वेणवा विद्यमान है। जो भी निष्पक्ष विद्वान् इस ग्रंथका नामक दोहेसे भिन्न है। यह तामिल साहित्यका अपूर्व सूक्ष्मताके साथ परीक्षण करेगा, उसे यह बात छंद है । पुस्तकका नाम कुरल उसमें प्रयुक्त छन्दके पूर्णतया स्पष्ट विदित हो जायगी, कि यह ग्रंथ अहिंसाकारण पड़ा । यह अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर बनाया धर्मसे परिपूर्ण है और इसलिये यह जैनमस्तिष्ककी गया है । संपूर्ण ग्रन्थमें अहिंसा धर्मकी स्तुति की गई हैं उपज होना चाहिये । इस विषय पर अभिमत व्यक्त
और विपरीत बिचारोंकी आलोचना की गई है। इस करने योग्य अधिकृत निष्पक्ष तामिल विद्वानोंने इस ग्रंथको तामिलवासी इतनी प्रधानता देते हैं कि वे इसके ग्रन्थके कर्तृत्वके सम्बन्धमें इसी प्रकारका अभिमत लिये विविध नामोंका प्रयोग करते हैं, जैसे उत्तर वेद, प्रगट किया है; किन्तु वैज्ञानिक शोधके आधार पर तामिल वेद, ईश्वरीय ग्रंथ, महान् सत्य, सर्व देशीय वेद किए गए निर्णयको बहुतसे तामिल विद्वान् स्वीकार इत्यादि । तामिल प्रान्तके प्रायः सभी संप्रदाय इस करना नहीं चाहते, इस विरोधका मूल कारण धार्मिक रचनाको अपनी २ बताते हैं । शैवोंका दावा है भावना है । हिन्दूधर्मके पुनरुद्धार काल में ( लगभग कि यह शैव लेखककी कृति है । वैष्णव लोग इसे सप्तम शताब्दिमें) जैनधर्म और हिन्दुनोंके बलिसमर्थक अपनी बताते हैं । पोप नामक पादरी, जिनने इसका वैदिक धर्मका संघर्ष इतना अधिक हुअा होगा, कि अंग्रेजी-अनुवाद किया है, यहां तक कहता है कि यह उसकी प्रतिध्वनि अब तक भी अनुभवमें आती है। ग्रंथ ईसाई धर्मसे प्रभावित हुए लेखककी रचना है। इस द्वन्द्वमें हिन्दू पुनरुद्धारकोंके द्वारा जैनाचार्योंकी भिन्न २ जातियाँ इस ग्रंथके कर्तृत्वके विषयमें एक दूसरे रचनाएं दूषित की गई, कारण उन हिन्दुओंका समर्थक से होड़ ले रही हैं । इससे ग्रंथकी महत्ता एवं प्रधानता नवदीक्षित पांड्य नरेश था । कहा जाता है कि इसके स्वत: प्रगट होती हैं । इस भांति विविध अधिकार फलस्वरूप अनेक जैनाचार्योंका प्राणान्त फांसीके द्वारा प्रदर्शकोंके मध्यमें जैनियोंका कथन है कि यह तो हुआ । हम इस बातका पूर्ण रीतिसे निश्चय करने में जैनाचार्यकी कृति है । जैनपरम्परा इस महान् ग्रन्थका असमर्थ हैं कि इसमें कितना इतिहास है और कितना सम्बन्ध कुंदकुंदाचार्य अपरनाम एलाचार्यसे बताती उर्वर मस्तिष्कका उत्पादन है परन्तु अब तक भी मदुरा है । कुंदकुंदाचार्यका समय ईसासे पूर्वकी अर्धशताब्दी के मन्दिरोंकी भित्तियों पर जैनियोंकी हत्या वाली के उत्तर भाग और ईसवी सनकी पहली अर्धशताब्दीके कथाके चित्र विद्यमान हैं और अब भी प्रतिद्वन्द्वी धर्म पूर्व भागमें संनिहित हैं । हमने इस बात का उल्लेख (जैन धर्म ) का पराभव और विध्वंस बताने वाले