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अनेकान्त
[श्रावण, वीर निर्वाण सं० २४६६
सभी प्रमुख ग्रन्थोंमें पाया जाता है । मेरुमन्दिरपुराण में है, वैसा एक अप्रसिद्ध तंत्र शास्त्रमें विद्यमान है,किन्तु
और नीलकेशी जैसे दो प्रधान जैनदार्शनिक ग्रन्थोंमें इस सम्बन्धके पद्य पूरी तौर पर उद्धत नहीं किये जाते जीवोंका इस प्रकार वर्णन है । यह अनुमान करना तर्कके लिये यह मान लेने पर भी कि उसका उल्लेख स्वाभाविक है कि यह जैनियोंके जीव-विषयक ज्ञानका उस तन्त्र ग्रंथमें है, वह साक्षी संदेहास्पद होगी। यह उल्लेख करता है । इससे यह बात स्वतः सिद्ध होती है बात बताना यहां आवश्यक है कि इन्द्रियोंके आधार पर कि ग्रन्थकार जैन तत्वज्ञानमें अति निपुण था । इस किया गया यह जीवोंको विभाग अन्य दर्शनों अथवा निष्कर्ष के समर्थनमें मुख्य साक्षी रूप एक दूसरी बात भारतकी दूसरी विचार पद्धतियोंमें नहीं पाया जाता है । है। उसके सम्बन्धमें शोधक विद्वानोंका ध्यान नहीं यह विशेष बात जैन दर्शनमें और केवल जैनदर्शनमें ही गया; किन्तु इस विषयमें विचार होना चाहिये । उसी पाई जाती है । इस सम्बन्धमें विशेष वाद विवादको हम मरबियल के दूसरे सूत्रमें टोलकाप्पियम्ने मुदलनलं और इस प्रकारकी शोधमें सुरुचि रखनेवाले सुयोग्य विद्वानों के 'वालीनूलं'--मूल और प्रारम्भिक ग्रंथ, गौण तथा लिये छोड़ते हैं । इस स्थितिमें हमारे लिये इतना लिखना संग्रहीत ग्रन्थके रूप में तामिल परम्पराके अनुसार साहित्य ही पर्याप्त है कि यह व्याकरणका ग्रन्थ जो कि अत्यन्त के ग्रन्थोंका विभाग किया है । जब वह मुख्य और मूल पुरातन तामिल ग्रन्थों में एक है, प्रायः एक ऐसे जैन शास्त्र अर्थात् मुदलनलंकी व्याख्या करता है, तब वह विद्वान द्वारा रचा गया था, जो संस्कृत व्याकरण और कहता है कि जो ज्ञानके अधिपति द्वारा कर्मोंसे पूर्ण साहित्यमें समान रूपसे प्रवीण था। उस ग्रंथकी रचना मुक्त होने पर प्रकाशित किया जाता है, वह कर्मक्षयके कब हुई, इस विषयमें पर्याप्त विवाद है, किन्तु हमें उस बाद सर्वज्ञके द्वारा प्रकाशित ज्ञान है । इस बात पर विवादमें भाग लेनेकी आवश्यकता नहीं है। जोर देनेकी आवश्यकता नहीं है कि जैन परम्पराके इस व्याकरण ग्रन्थमें इलुत्त (अक्षर ) सोल श्रनुसार प्रायः प्रत्येक ग्रन्थकार अपने ज्ञान का आदि (शब्द) और पोरुल (अर्थ) नामके तीन बड़े अध्याय हैं स्रोत पर्वाचार्योको, और गणधरोंके द्वारा समवशरण में प्रत्येक अध्यायमें : ल्यल (विभाग ) हैं और कुल धर्मका प्रतिपादन करनेवाले स्वयं तीर्थंकरोंको बतावेगा। १६ १२ सूत्र हैं । यह तामिल भाषाके बादके व्याकरण परन्तु जैन परम्परासे परिचित प्रत्येक निष्पक्ष विद्वानको ग्रंथोंकी जड़ है । संस्कृत व्याकरण के प्रतिकूल जिसमें यह स्पष्ट विदित हो जायगा, कि मूल ग्रन्थकी इस पहले और दूसरे ही अध्याय होते हैं, इसमें तीन अध्याय परिभाषामें पूर्ण ज्ञानके आदि स्रोत सर्वज्ञ वीतरागका हैं और तीसरा पोरुलके विषयमें है । इस तीसरे अध्याय उल्लेख किया है । इन सब बातोंसे यह स्पष्ट होगा कि में व्याकरण के सिवाय अन्य बहुत विषय रहते हैं जिसमें प्रतिपक्षी विचारकी अपेक्षा लेखकका जैन होना अधिक प्रेम एवं युद्धका वर्णन रहता है । इस प्रकार श्रादिद्रविड़ संभव है । जिन लोगोंने इस बातके निषेध करनेका लोगों के पुनर्गठनके लिये इसमें उपयोगी अनेक संकेत प्रयत्न किया है उन्होंने अपने कथनके समर्थनमें कोई पाये जाते हैं। गम्भीर युक्ति नहीं पेश की है । एक आलोचक इस बात यह कहा जाता है कि इस ग्रन्थकी पांच टीकाएँ हैं का उल्लेख करता है कि जीवका विभाग जैसा इस ग्रन्थ जो (१) ल्लम पूर्नर (२) पराशिरियर ( ३ ) सेनवरैयर