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भनेकान्त
श्रिावण, वीर निर्वाण सं०२४६६
अधिक आनन्दित होते हैं और इस तरह सत्यके प्रति और इस संग्रहको नालदियारके नामसे कहा गया । हम क्षुधा और पिपासाकी विशेषताको घोषित करते हैं । वे ऐसी स्थितिमें नहीं हैं कि इस परम्परा कथनमें विद्यमान लोग भारतवर्ष के लोगों में श्रेष्ठ हैं तथा कुरल एवं नालदी ऐतिहासिक सत्य के अंशकी जाँच करें । यदि हम इस ने उन्हें इस प्रकार बननेमें सहायता दी है।" परम्परा कथन पर विचार करें जो हमें इन आठ हजार
अब हमें अपना ध्यान पिछले उल्लिखित ग्रन्थ जैन साधुअोंको भद्रबाहु के अनुयायियोंसे संबंधित नालदियारकी अोर देना चाहिये । कुरल और नालदि- करना होगा, जो उत्तर भारतमें बारह वर्ष दुष्कालके यार एक दूसरेके प्रति टीकाका काम करते हैं और दोनों कारण दक्षिणकी ओर गये थे । ऐसी स्थिति में इस ग्रंथका मिलकर तामिल-जनताके सम्पूर्ण नैतिक तथा सामाजिक निर्माण ईसवी सदीसे ३०० वर्ष पूर्व होना चाहिये । इस सिद्धान्तके ऊपर महान् प्रकाश डालते हैं ।" नालदियार सम्बन्धमें हम कोई सिद्धान्त नहीं बना सकते । हम कुछ का नामकरण ठीक कुरलके समान उसके छन्दके कारण निश्चयके साथ इतना ही कह सकते हैं कि वह तामिल हुआ है। नालदियारका अर्थ वेणबा छन्दकी चार भाषाके नीतिके अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थों में एक है और पंक्तियोंमें की गई रचना है । इस रचनामें चार सौ प्रायः कुरलका समकालीन अथवा उससे कुछ पूर्ववर्ती चौपाई हैं और इसे बेलालरवेदम्-कृषकोंकी बाइविल है। बिखरे हुये चारसौ पद्य कुरलके नमूने पर एक भी कहते हैं । यह ग्रंथकारकी कृति नहीं है । परम्परा विशिष्ट ढंग पर व्यवस्थित किये गये हैं । प्रत्येक अध्याय कथन के अनुसार प्रत्येक पद्य एक पृथक् जैन मुनिके द्वारा में दस पद्य हैं । पहला भाग अरम् ( धर्म ) पर है रचा गया है । प्रचलित परम्परा संक्षेपसे इस प्रकार है। उसमें १३ अध्याय तथा १३० चौपाई हैं। दूसरे भाग एक समयकी बात है उत्तरमें दुष्काल पड़नेके कारण पोरुल ( अर्थ ) में २६ अध्याय तथा २६० चौपाई हैं श्राठ हजार जैनमुनि उत्तरसे पांड्य देशकी ओर गये, तथा 'काम' ( Love ) पर लिखे गये तीसरे विभागमें जहांके नरेशोंने उनको सहायता दी। जब दुष्कालका १० चौपाई हैं इस प्रकार ४०० पद्य तीन भागोंमें विभक्त समय बीत गया तब वे अपने देशको लौटना चाहते थे। हैं । इस क्रमके सन्बन्धमें एक परम्परा कहती है कि यह किन्तु राजाकी इच्छा थी कि उसके दरबारमें ये विद्वान पांड्य नरेश उग्रपेरुबालुतिके कारण हुई किन्तु दूसरी बने रहें । अन्तमें उन साधुअोंने राजाको कोई खबर न परम्परा पदुमनार नामक जैन विद्वानको इसका कारण करके गुप्तरूपसे बाहर जानेका निश्चय किया। इस तरह बताती है । तामिल भाषाके अष्टादस नीति ग्रन्थों में एक रात्रिको समुदाय रूपसे वे सब रवाना हो गये। कुरल और नारदियाल अत्यन्त महत्व पूर्ण समझे जाते दूसरे दिन प्रभात काल में यह विदित हुआ कि प्रत्येक हैं इस ग्रन्थमें निरुपित नैतिक सिद्धान्त जाति अथवा साधुने अपने आसन पर ताड़ पत्र पर लिखित एक २ धर्मकेभेदोंको भुलाकर सभी लोगोंके द्वारा माने जाते हैं । चौपाई छोड दी थी। राजाने उनको वैगी नदीमें फेंकने तामिल-साहित्यके परम्परागत अध्ययनके लिये इन दोनों की आज्ञा दी किन्तु जब यह विदित हुआ कि नदीके
ग्रन्थोंका अध्ययन आवश्यक है । कोई भी व्यक्ति तब
तक तामिल विद्वान कहे जानेका अधिकारी नहीं है प्रभावके विरुद्ध कुछ ताड़ पत्र तैरते हुये पाये गये और
जब तक कि वह इन दोनों महान् ग्रंथोंमें प्रवीण न हो। वे तट पर आगये,तब राजाकी आज्ञासे वे संगृहीत किये
क्रमशः