Book Title: Anekant 1940 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ वर्ष ३, किरण १० ] नृप का विचार महाशय की राय है 1 वह कौनसे आधारसे है, यह मालूम नहीं होता। इतना ही नहीं सोरब शिला लेख नं० ८५ ( ई० स० ८७७ ) के शासन में इस अमोघवर्षको 'पृथिवी राज्यं गेये' ऐसा कहा जाने से वही उस समय गद्दो पर रहा होगा इस प्रकार दृढताके साथ मालूम पड़नेसे पाठक महाशयका कहना ठीक मालूम नहीं पड़ता है । अतः ई० सन् ८७७ वें तक तो यह राज्यकार से निवृत नहीं हुआ ऐसा कहना चाहिये । + कविराजं मार्ग - उपोद्घात पृ० ३ । * E.A.D.P. 49-50 (Mythic Socie - ty's Journal Vol. XIV, No. 2, P. 84) हुआ अथवा जैनधर्मी होनेसे ही उसने ऐसा किया, यह माननेका कोई कारण नहीं है । इसके पिता गोविंदके कुछ शासनोंसे ऐसा मालूम होता है कि गोविन्द के पिता ध्रुव अथवा घोरनरेश ( निरुपम, धारा वर्ष, कलिवल्लभ ) ने अपने पुत्र के पराक्रम पर मोहित होकर अपने जीवनकाल में ही उसे गद्दी पर बैठाकर आप राज्यकारसे निवृत होना चाहा और यह बात उसे सुनाने पर उसने उसे स्वीकार नहीं किया। आपके अधीन मैं युवराज्य ही होकर रहूँगा ऐसा कहा, इस प्रकार लिखा हुआ है । अतः राष्ट्रकूटवंशीय नरेशों में अपने बुढ़ापे के कारण, या पराक्रमी पुत्र की दिग्विजय आदि साहसकार्य से खुश होकर या अपनी स्वच्छन्दतासे गद्दी छोड़नेका यह एक उदाहरण मिलता है। अतः नृपतुंग ई० सन् ८७७ के अनन्तर अपनी उम्र ८० के ऊपर समझ कर राज्यकारसे निवृत हुआ' होगा तो उसने अपने विनयसेन विवेकसे ही ऐसा किया होगा यह कहना चाहिये । ऐसा न कहकर अपना धर्म छोड़ कर जैनधर्मी इस वंशके लोगों की राजधानी 'मान्यखेट' (Malkhed) नगर है । उसे इस नृपतुंगने ही प्रथमतः अपनी राजधानी कर लिया था, इस प्रकार कीर्तिशेष डा. रा. गो. भंडारकर का कहना है (E. H. D. पृ० ५१ ) । 'कविराजमार्ग' के उपोद्घात में श्रीमान् पाठक महाशय के कथनानुसार ( पृ० १० ) यह मान्यखेट नृपतुंग के प्रपितामह प्रथमकृष्ण के काल से ही इस वंशके लोगों की राजधानी था ऐसा मालूम पड़ता है । उसके पहिले उनकी राजधानी 'मयूर खंडि ' ( वर्तमान बंबई आधिपत्य के नासिक जिलाके 'मोरखंड') थी ऐसा जान पड़ता है । कुछ भी हो, (वर्तमान धारवाड़ जिला के अन्तर्गत ) 'बँकापुर' उनकी राजधानी नहीं थी, यह बात दृढताके साथ कही जा सकती है १८५ जिनसेनाचार्यकी परंपरा इस प्रकार पाई जाती है: एलाचार्य / वीरसेनाचार्य जिनसेन दशरथ गुणभद्र इस परंपरा के संबन्ध में इन्द्रनंदिके 'श्रुतावतार' में निम्न प्रकार कहा है * : ० वि० २० मा० पृ० १०,

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