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नृपतु का मत विचार
वर्ष ३. किरण १० ]
जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । वीरसेन गुरोः कीर्तिरकलं कावभासते ॥ ४० ॥ यामिताभ्युदये तस्य जिनेन्द्र गुणसंस्तुतिः । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्तिः संकीर्तयत्यसौ ॥ ४१ ॥ वर्द्धमान पुराणोद्यदादित्योक्तिगभस्तयः । प्रस्फुरन्ति गिरीशान्तः स्फुटस्फटिकभित्तिषु ॥ ४२ ॥
अनेक
ये श्लोक 'हरिवंश' के आदि-भाग में हैं, जिस के ११००० श्लोक लिखने में कमसे कम ५ साल तो लगे होंगे । अतः जिनसेनने उसे शक सं० ७०० ( ई० सन् ७७८ ) में लिखना प्रारंभ किया होगा ऐसा मालूम पड़ता है । तब वीरसेन कविचक्रत्रर्ती कहलाते थे, उसके पहिले उन्होंने काव्यों की रचना की होगी; वैसे ही उनके शिष्य जिनसेनने भी उसके पहिले संस्कृत में 'वर्धमानपुराण' तथा 'जिनेन्द्र गुणसंस्तुति' # नामका काव्य लिखकर पूरा किया होगा । इस हरिवंशमें गुरु वीरसेनको 'स्वामी' कहे बिना उनके शिष्य जिनसेनको 'स्वामिनो । जिनमनस्य' कहा जानेसं
* इस काव्यका नाम ( पार्श्वजिनेन्द्रस्तुति ) है, ऐसा 'विद्वद्वत्वमाला' में ( पृष्ट २६ ) बतलाया है, उसी का (जिनगुणस्तोत्र) नामसे पूर्वपुराण' की प्रस्तावना में ( पृ० ५ ) उल्लेख है । . ( 'पूर्वपुराण' - न्यायतीर्थ शान्तिराज शास्त्रीका कर्नाटक अर्थसहित मुद्रण - मैसूर
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इस जिनसेनको 'स्वामी' कहने के लिये क्या कारण है, इस सम्बन्ध में 'तत्वार्थसूत्रव्याख्याता स्वामीति परिपठ्यत' (नीतिसार) बचनका आधार देते हैं (वि. र. मा. पृ० २६ ) । पर जिनसेनने तत्वार्थसूत्र पर
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गुरु शिष्य दोनोंके जीवित रहते वक्त वैसा कहना अनुचित होगा। इस मंगलाचरण की रचना करते वक्त वीरसेन स्वर्गवासी हो चुका होगा केवल जिनसेन मौजूद था ऐसा मालूम पड़ता है; वैसे ही उसे 'स्वामी' इस प्रकार संबोधित करने से वह उस वक्तका महाविद्वान् तथा बड़ा आचार्य होता हुआ प्रख्यात हुआ होगा । अतः वैसा कीर्तिवान् होनेके लिये उस कीर्तिके कारणभूत अनेक काव्योंकी उसने रचना की होगी। उस वक्त उसकी अवस्था कमसे कम २५ वर्ष तो अवश्य होगी इस से कम तो सर्वथा नहीं होगी, यह बात निश्चयपूर्वक कह सकते हैं । ऐसी अवस्था में वह शक संo ६७५ ( ई० सन् ७५३ ) के पहिले ही पैदा हुआ होगा ।
वीरसेनाचार्य के शिष्य हमारे जिनसेनने उपर्युक्त दो ग्रन्थोंके सिवाय * और भी अनेक संस्कृत काव्योंको लिखा है, जिनमें मुख्य
व्याख्या ई० सन् ८३७-८३८ में लिखी है; ई० स० ७७८–७८३ के अन्दर लिखे गये 'हरिवंश' में उस कारण से उसे 'स्वामी' ऐसा न कहा होगा; इसके लावा उस व्याख्याको वीरसेनने लिखना प्रारंभ किया था, उसे पूर्ण करने के पहिले ही उनका स्वर्गवास हो जानेसे उसे जिनसेनने पूर्ण किया ऐसा मालूम पड़ता है । ऐसा हो तो वीरसेनको 'स्वामी' क्यों नहीं कहा ? * ये दोनों ग्रन्थ अब तक प्राप्त नहीं ।
['जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' का अभिप्राय पार्श्व जिनेन्द्र की स्तुति 'पाश्वभ्युदय' काम्यसे है और वह उपलब्ध है तथा सं० १९६६ में छुपकर प्रकाशित भी हो चुका है । - सम्पादक ]