Book Title: Anekant 1940 08
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 23
________________ वर्ष ३, किरण १०] . . प्रारमोदार-विचार कि परमात्मा और आत्मा में सिर्फ नाम मात्रका- चौदह जीवसमाम हैं; न कोंके क्षयोपशमसे दृष्टि मात्रका फर्क है । बकौल नाथ सा०-. . . होने वाले लब्धिस्थान हैं, न कर्मोके बंधस्थान हैं; इक नज़र का है बदलना, और इस जा कुछ नहीं। न कोई उदयस्थान है; न जिसके कोई स्पर्श, रस दरमियाने-मौजो क़तरा गैरे-दरिया कुछ नहीं । गंध, वर्ण शब्द आदि हैं, परन्तु जो चैतन्य • स्वरूप है सो ही निरंजन मैं हूँ । २० । २१ । . 'यहा और कुछ नही, कवल एक हाष्ट-मात्रका कर्मादि मलसे रहित ज्ञानमयी सिद्ध भगवान बदलना है। बंद और लहरमें कोई भेद नहीं, जैसे सिद्ध क्षेत्र में निवास करते हैं, वैसे ही मेरी दोनों नदीसे भिन्न और कोई वर नहीं।" ... देह में स्थत परमब्रह्मको समझना चाहिए । २६ । प्रातः स्मर्णीय आचार्य देवसेनजी 'तत्वसार' 'जो नो कर्म और कर्मसे रहित, किवलज्ञानादि में अपने शुद्धस्वरूपका वर्णन करते हुए कहते हैं- ए कहा है- गुणोंसे पूर्ण शुद्ध, अविनाशी, एक, आलम्बन , जस्स णकोहो माणो माया खोहो ग सल्ल लेस्सायो। रहित, स्वाधीन, सिद्ध भगवान हैं, सो ही मैं हूँ ।२७ जाई जरा मरणं वि य णिरंजणो सो अहं भणियोn मैं ही सिद्ध हूँ, शुद्ध हूं, अनन्त ज्ञानादि गुणों णस्थि कलासंठाणं मग्गणगुणठाणजीवठाणाणि । से पूर्ण हूँ, अमूर्तीक हूँ, नित्य हूँ, असख्यातप्रदेशी णय बद्विबंधठाणा योदयठाणाइया केई ॥२०॥ हूँ और देहप्रमाण हूँ, इस तरह अपनी आत्माको फास-रस-रव-गंधा सहादीया य जस्स णस्थि पुणो। सिद्धके समान वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा जानना मुद्धो चेयण भावो णिरंबणो सो अहं भणिभो ॥२१॥ चाहिये । २८ ।. .. मसरहिमो णाणममो णिवसइ सिद्धीए बारिसो सिद्धो। अब जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल तारिसमो देहत्यो परमोवंभो मुणेयब्बो ॥ २६ ॥ अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्था णोकम्म कम्म रहिओ केवलणाणाइगुणसमिद्धो जो । को प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनेना ही सब सोहं सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को णिरालंबोक ॥ २७ ॥ आत्माओंका अभीष्ट है तब आत्मस्वरूपका ही सिद्धोहं सुखोहं अणन्तणाणाइगुणसमिद्धोहं । चिन्तवन करना हमारा एक मात्र कर्तव्य है । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य ॥ २८ ॥ पज्यपाद स्वामीजी कहते हैंजिसके न क्रोध है, न मान है, न माया है, पः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । न लोभ है, न शल्य है, न लेश्या है, न जन्म है, अहमेव मयो पास्यो नान्यः कश्चिदितिस्थितिः ॥ न जरा है, न मरण है, वही निरंजन कहा गया है, सोही मैं हूँ । १६ । ___ अर्थात जो कोई प्रसिद्ध उत्कृष्ट आत्मा या - न जिसके औदारिकादि पांच शरीर है; न परमात्मा है वह ही मैं हूँ तथा जो कोई स्वसंवेदनसमचतुरसादि ६ संस्थान हैं; न गति, इन्द्रिय गोचर मैं आत्मा हूँ सो ही परमात्मा है, इसलिये आदि चौदह मार्गणा हैं; न मिथ्यात्वादि चौदह जब कि परमात्मा और मैं एक ही हूँ, तब मेरे गुणस्थान हैं; न जीवस्थान अर्थात एकेन्द्रियादि द्वारा मैं ही आराधन योग्य हूँ, कोई दूसरा नहीं।

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